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ज्ञान और अज्ञान

अबोध , अधम अज्ञानी ! इन्हें कहना भर ही या मानना भी होता है । जो स्वयं को अज्ञानी कह लेते है ! क्या वाकई ऐसा है ! वें अज्ञानी है क्या ? देखियें जो अबोध है ... अज्ञानी है वो तो निश्चित ही प्रभु के निकट है ! बिल्कुल निकट ! ज्ञान का अर्थ है भगवत् ज्ञान ... आत्मा - परमात्मा का ज्ञान और जिसे यें है उसे ही तत्व ज्ञान है ! जिसे किसी ख़ास किसी तत्व का ज्ञान है वो उस विषय का विज्ञानी है पर शेष तत्वों से वो भी अपरिचित् है ! परमात्मा का सर्वत्र आभास - दर्शन और बोध है कि चावल के दाने में ईश्वर क्या कर रहे है ? और पुष्प में क्या ? और मिट्टी के कण में क्या ? वो ज्ञानी है ... क्योंकि किसी एक तत्व का नहीं सब तत्व में किसी एक शक्ति का उन्हें बोध है ! सो यें ज्ञान है ... सर्वत्र - सदा परमात्मा दर्शन !!
परन्तु अज्ञान को स्वीकारना ही , वस्तुतः ज्ञान की सच्ची स्थिति है , कहना भर नहीँ , भीतर से स्वीकारना । ज्ञान वह बूँद है जो हम पर गिर गई और हमने हल्ला मचा दिया कि हम पूरे भीग गए । जबकि अब भी वर्षा हो रही है और होती रहेगी । अतः वंचित वर्षा अधिक है , दूसरा अज्ञान समुद्र है विशाल , और जिसे हम ज्ञान कहते है वह सागर से भरी चम्मच । अज्ञान वह ज्ञान है जिस पर हमारी सत्ता नहीँ । और ऐसा सदा से अज्ञान अधिक रहा है । समूचे सागर को देख चम्मच भरने की अपेक्षा ही सागर में गोता लगाना , सच्चा ज्ञान है । सच्चा ज्ञान स्वतः आत्मसात् होता है , भीतर से वहीँ तत्व ज्ञान है । दो तत्वज्ञों में कथन की विभिन्नता होने पर भी प्राप्त अनुभूति और तत्व विशेष की जानकारी एक ही ही है , यहाँ भेद हुआ व्यक्तित्व भेद है , प्रत्येक पात्र के गुण भेद अलग है । अतः प्राप्त वस्तु एक ही होने पर भी आत्मसात् की विधि एक ना होने से दो तत्वज्ञों की बात विभिन्न लगती है , मूल में है एक ही बात । यहाँ किसने कैसे कितना किस तरह तैरते हुए गोता लगाया , इस बात का महत्व है । हमारी जानकारी से बाहर का ज्ञान ही अज्ञान है और ऐसा अज्ञान सदा ही अधिक रहा है , रहेगा । समस्त ज्ञान का एकत्रीकरण करने पर भी उसे पूर्ण ज्ञान नहीँ कहा जा सकेगा । जिसका ज्ञान समुद्र से ही सम्बन्ध है , समस्त ज्ञान उसका ना होते हुए भी उससे जुड़ा है , इसके लिए अन्तः करण से स्पष्ट अपने अज्ञान को स्वीकारना हो । अज्ञान (अप्राप्त ज्ञान) को ज्ञान में परिवर्तित करने की अपेक्षा उसे वहीँ वह ही स्वीकारेगा जिसे मूल तत्व बोध हो । और समस्त से स्वयं को पृथक् अनुभव ना कर सकता हो , अपनी क्रिया और समस्त में व्याप्त तत्व क्रिया में भेद को समझ उसे हटा सकता हो , और सदा स्वीकार्यता से भरा हो । तत्वज्ञ के लिए कोई वस्तु दो नहीँ भले पाप हो या पूण्य , ज्ञान हो और अज्ञान , विद्या हो या अविद्या । व्याप्त तत्व दर्शन के बाद , अन्य कोई पृथक् आभास भर नहीँ होता । चूँकि अद्वैत का दर्शन हुए तत्वज्ञ की स्वयं की कोई भी चेष्टा से अद्वैत - द्वेत में होता है , अतः वहाँ तत्वज्ञ का मौन ही है , अथवा समस्त चेष्टाओं का वह चालक नहीँ , जिसने जगत के स्थिति-कारण को बना रखा है , वही उसका भोक्ता और वहीँ भोग्य है ।
हाँ , मैं अज्ञानी हूँ , क्योंकि खोज से नहीँ , पीने से जल की उपादेयता है । और जल पी रहा हो वह जल से पृथक् नहीँ , उसे जल की जानकारी के लिए अपने और जल के सम्बन्ध को समझ लेना होगा । सत्यजीत जयजय श्यामाश्याम । ।।।

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