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Showing posts from November, 2017

निधि की निधिन गाढ़ रस , संगिनी जु

Do Not Share ... "व्रज नव तरुणि कदंब मुकुट-मणि, श्यामा आजु बनी। नखसिख लौं अंग-अंग माधुरी,मोहे श्याम-धनी।।" साँझ ढली...नीलकमलदल पर गहरे कारे बादर घिर आए री...सावन की बूँद ने सिंगार कर दिया कनकलता का... ... ... रस सिन्धु ने उमड़ते हुए सैलाब से एक बूँद बिंदिया आंक दी...और सम्पूर्ण रसदेह रोमावली खिल उठी...समस्त निधिन की निधि का सिंगार... ... ... अहा...कैसा होगा ना जैसे पीतवर्णा पर नीलाभा और उस पर भी मधुर लालिमा लिए रसीली प्रेमबूंदन से सजीली जरकीली कनकबेल...सितारों का सा सिंगार लिए... ऐसी थिरकन कि ताल मृदंग स्वतः बज उठे जैसे घन मृदंग और कोकिल सम कूजत सब अंग... ... ... बंसी बनी कनक काया...सरोज उरज...चंदनचर्चित सघन गलियाँ...रस की बूँदें...भुजंग लिपटे जैसे...हया रिसती...लालित्य झर रहा...मधुर रस बरषन...स्मृति विस्मृति की सेज पर छब भूले हरषत... ... ... रैन बिसरी...गगरी छलकी...शिशुवत झगरत...रंगरेज मन...कोरे कागज सा तन...स्यामल लट उरझन...मधु झरझर...मयूर पिकन...मतवारी लतन...केस भुजंगन गौरमुख झलकन...रूप अनूप पी सम... ... ... कनककली तमाल लपटान पुष्प रंगसनी...रसभीनी भ्रमराकर्षिणी...म

श्रीहरिनाम में अनुराग , बाँवरी जु

*श्रीहरिनाम में अनुराग* हे दयासिन्धु ! हे करुणाकर! गौरहरि आपने नाम संकीर्तन प्रकट हर हम अधम जीवों हेतु भगवत प्राप्ति को अति सहज कर दिया है। आपकी भक्त परायणता ,आपकी करुणा ,आपकी अहैतुकि कृपा का अनुभव कर मेरा पाषाणवत हृदय भी दृवीभूत हुआ जाता है। आपकी वाणी को भी हृदयस्थ कर लेने पर मुझ अधम का चित्त नाम मे सहजता से प्रवृत्त नहीं हो पा रहा है। यधपि आपकी वाणी में मुझे कोई संदेह नहीं है श्रीप्रभु जी , परन्तु मेरे हृदय पर जन्मों से पड़े हुए आवरण  को हटाना मेरे बल द्वारा सम्भव नहीं है।    हे भक्तिप्रदाता गौरसुन्दर ! आपकी कृपा तो अनन्त है। आपने अपने उपदेश द्वारा श्रीहरिनाम की महिमा को कलियुग के जीवों के सम्मुख प्रकट करने को ही अपनी लीला प्रकट की है। आप सर्व रूपेण अपने आश्रित अनाश्रित सबका मंगल करने वाले हो। श्रीहरि के विभिन्न नामों के गायन द्वारा श्रीहरि की विभिन्न लीलाओं के प्रकट होने का आपने ही रहस्य जीवों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। आपकी भक्तवत्सलता इतनी सहज है कि प्रभु आप इसके आस्वादन को भक्त रूप में ही लीला कर रहे हो। आपका सम्पूर्ण जीवन ही भक्ति के विभिन्न आयामों का साक्षात प्राकट्य है। आपने

अधर अरुण तेरे कैसे दुराऊं ... संगिनी जु

नवमधुकर नवलता के लिए आज नवलता में वीलीन हुआ नवलता को पुकार रहा ...कैसे...तृषित सखी री...आह...तृषित... ! जाने क्यों आज श्यामा जु कुछ मान किए हुए श्यामसुंदर जु से रूठ कर सखी संग प्रिय की साथ वाली कुंज में जा बैठीं हैं।वे ही जानतीं आखिर क्या कब और क्यों श्यामसुंदर से किंचित रूठना भी आवश्यक सो अभिन्न युगल आज भिन्न कुंजों में...आह ! सखी...    सुनो श्यामा प्यारी जु...अब यह मान छोड़ो और निरखो अपने प्रियतम को...इंतजार में वे... ... ...  पर... ना...ना...तनिक रूको...अभी ना... ... ... सखी ने उन्हें छुपाया हो जैसे...आग्रह कर रही अब ऊपर से... ना और भीतर से...हाँ...हाँ...कहता श्यामा जु का हृदय... अत्यंत करूणामयी श्रीराधा जैसे जावक रचे हाथों पर लालित्य सुहाता ना वैसे ही इनके रोम रोम से लालित्य झर रहा... ... ...अनवरत... जब जब सखी मनाने आती तब तब सिहर उठतीं कि अब...अब...अब तो...प्रिय स्वयं पधारे हैं... पर नहीं...तब उनकी हया की लाली तिलमिला कर दामिनी सी चपल हो उठती और वे सखी संग दूसरी कुंज में जाने से स्वयं को रोक लेती...आह... ! और वहीं इधर इस कुंज में सहचरी संग किए हुए श्यामसुंदर जु की दशा ऐसी

आपकी करुणा , बाँवरी जु

*आपकी करुणा* हे पतितपावन गौर हरि! आप अनन्त कोटि करुणामयी हो। आपकी करुणा का बखान तो  कोटिन कोटि जिव्हा लेकर कोटिन कोटि जन्मों में भी नहीं हो सकता। आपका नाम एक बार भी किसी जिव्हा से उच्चारित होना, किसी हृदय में स्फुरित होना आपकी ही विशेष अनुकम्पा द्वारा सम्भव है। हे करुणामयी ! अनन्त कोटि जन्मों से आपसे विमुख यह हृदय अब जान गया है कि इस अनन्त भटकन के पश्चात यदि कहीं सुख है तो केवल आपके ही श्रीचरणों में। हे प्राणनाथ ! आप तो सदा से ही सँग हो परन्तु अपने हृदय की मलिनता से आपका सँग भी स्वीकार नहीं होता। हे करुणासिन्धु ! जब आप पतितपावन हो, पतितों के द्वारा आपके मात्र एक नाम उच्चारण से ही सम्पूर्ण पतितता नष्ट हो जाती है। हे करुणाकर! अब एक करुणा और कीजिये नाथ कि स्वयम के अवगुण न बखान आपके अनन्त गुणों का ही बखान करूँ। आपकी महिमा तो शब्दातीत है , परन्तु नाथ आपके नाम उच्चारण से , आपके गुणगान से ही इस अतृप्त हृदय में आपकी करुणा झलकने लगती है। हे नाथ ! मुझमें स्वयं की भी विस्मृति उदित हो जावै, यह जिव्हा आपके नाम , गुण उच्चारण में ही डूब जावै। यह दृष्टि अब ब्राह्य संसार से विमुख हो आपके कोमल चरणारविन

*चपलांगी श्रीप्यारी नवघनदामिनि जु* भाग 2

*चपलांगी श्रीप्यारी नवघनदामिनि जु* भाग-2 *चपलांगी की नवरससारता* चपलांगी क्यों कोमलांगी रसीली लजीली वे तो...यही सवाल और यह नवभाव कहीं कुछ बेमेल सा लगता ना...पर है नहीं सखी... अति सहज है...श्रीप्रिया जु की चपलता अर्थात प्रेमरस से सराबोर बरसने को आकुल हिय...किस पर बरसता...आह...!अपने प्रियतम पर...और कहाँ री... हाँ...!यही तो सारता असारता इस परम प्रेममय युगलजोरि की सखी री सखी...जानै है तू...कहीं पूर्णविराम तो होवै ही ना है ना...प्रेम सदा गहराने को पनपता और पनपता ऐसे कि "राधा मुख पंकज भंवर,कामी कुँवर किसोर। गर्वी गर्वित नैन हरि,रमनी घन मन मोर।।" कि अगर...कमलिनी पर मकरंद है तो भ्रमर पिपासु...पर इस मकरंद और पिपासा का मेल क्या सहज ही...नहीं...नहीं ना...निरख तो जरा...यह कमलिनी अति रसीली पर यह पूर्णतः खिलती किसके लिए...भ्रमर के लिए ना...रात्रि की यह रसीली कमलिनी खिलती तो प्रभात में भी है जब सूर्य की संयोजित रश्मियाँ इसे उसके आलिंगन स्पर्श का एहसास करातीं पर तब भ्रमर इस पर मंडराता रहता...सहेजता इसके मकरंद रस को ऐसे जैसे स्वयं को तन्मय होने रोक इस कमलिनी की रक्षा करता रहता और रात्

उज्जवल श्रीप्रियाजु , उज्ज्ज्वलस्मिता (मुस्कान) संगिनी

उज्जवल श्रीप्रियाजु उज्ज्ज्वलस्मिता (मस्कुराहट) Full Read नवीन शब्द यह उज्ज्ज्वलस्मिता... है न । मुस्कान प्यारी श्रीश्यामा जु की ...जीवन निधि श्रीप्रियतम की । ...नव भाव धारा श्री निकुंजन की । ...प्रियतम हृदय के सम्पूर्ण राग का श्रृंगार श्रीप्रियाजु जु की उज्ज्ज्वलस्मिता ...श्रृंगार का श्रृंगार । प्यारी सी प्यारी यह अधर प्रफुल्लित छटा ।...नवस्फुरणा है सम्पूर्ण श्रीविपिनराज में यह उज्ज्ज्वलस्मिता । ...नवराग ...नवभाव ...नवरस ...नवरंग ...नवतरँग ... नव नव होते प्रति मुस्कुनिया प्यारी जु की श्री प्यारे मनहर । ...मनहर प्रियवर के मन का ही नहीं सम्पूर्ण भावावेश अनुरागित अनन्त हृदयस्थ तृषाओं की का हरण कर लेती है यह उज्ज्ज्वलस्मिता (मुस्कान) । ...श्री विपिन की प्रति रेणुका की अबाध वरद निधि है यह प्यारी जु की उज्ज्वलस्मिता । विपिन विहार के रसातुर जो नित्य निरख रहें इस परम् सौभाग्य निधि को वें जानते ...नितांत परमोच्च सुख प्रीति का यह स्फुरण शिखर प्रियतम के हिय को कितना जीवनदायी रिझावन से अभिषेक करती है ...श्रीप्रियाजु उज्ज्ज्वलस्मिता । उज्ज्वल...उज्ज्वल रस की खान समेटे उज्ज्वल  हुई जिनकी त्रि