Skip to main content

बरसाना और राधा रानी के वंश का पौराणिक महत्व

बरसाना में रस आया, श्री राधा रानी के चरणों से |

ये सभी जानते हैं कि राधा रानी का गाँव बरसाना है और यहाँ आने के लिए श्री कृष्ण भी तरसा करते हैं |  बहुत लोग इस बात को नहीं समझ पाते हैं |  जो सबसे प्रधान श्री राधा रानी जी का ग्रन्थ राधा सुधा निधि है, उसमें बरसाना की ही वंदना की गई है |  रसिक लोग कहते हैं कि राधा रानी को प्रणाम करने की योग्यता तो हममें नहीं है | उनके श्री चरणों को अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक भगवान श्री कृष्ण भी छूने में हिचकते हैं और बड़े भय से उनके चरणों को छूते हैं |

जब वो श्री जी के चरण छूने जाते हैं तो वो प्रेम से हुंकार करती हैं | तो रसिक श्याम डर जाते हैं कि कहीं ऐसा ना हो लाड़ली जी मान कर लें |  इसीलिए भयभीत होकर पीछे हट जाते हैं |  उन चरणों से ही जो सरस रस बिखरा उस रस को पाकर के गोपीजन ही नहीं स्वयं श्री कृष्ण भी धन्य हुए | बिहारी जी के प्रकटकर्ता स्वामी हरिदास जी लिखते हैं कि (ता ठाकुर को ठकुराई -----) |  वो बोले कि ये मत समझना कि बांके बीहारी जी सर्वोच्चपति हैं |  सब ठाकुरों के ठाकुर ये बांके बीहारी हैं | लेकिन इनकी भी ठकुराइन हैं श्री राधा रानी | हम उस गाँव में बैठे हैं |

अब बरसाना का थोड़ा सा इतिहास भी सुन लो, जो आपने कभी नहीं सुना होगा |  सूर्यवंशी महाराज दिलीप हुए  |  वो बड़े गौ भक्त थे  |   राधा रानी सूर्य वंशी थीं | राम जी भी सूर्य वंशी थे |  इनकी परम्परा इस प्रकार है | महाराज दिलीप तक तो एक ही वंश आता है |  दिलीप ने गाय की भक्ति की  क्योंकि उनको कामधेनु गाय का श्राप था |

ये जब एक बार स्वर्ग में गये थे तो जल्दी-जल्दी में गाय को प्रणाम करना भूल गए थे | कामधेनु ने श्राप दिया कि तुम पुत्र की इच्छा से जा रहे हो तुम्हें पुत्र नहीं होगा | ये श्राप उस समय दिलीप सुन नहीं सके थे क्योंकि आकाश में इंद्र का ऐरावत हाथी क्रीड़ा कर रहा था | दीघर्काल तक भी प्रयत्न करने पर उनको जब पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई तो गुरु वशिष्ठ के पास गए |

उन्होंने ध्यान करके बताया कि राजन तुम्हें तो श्राप है |  तुम्हें पुत्र कभी हो ही नहीं सकता | ये अमोघ श्राप है कामधेनु गाय का | वशिष्ट जी ने कहा कि तुम गाय सेवा करो |

कामधेनु की लड़की हमारे पास है वो भी कामधेनु है | सिर्फ वही इस श्राप को नष्ट कर सकती है |  दिलीप ने अद्भुत सेवा की |  इनकी परीक्षा भी हुई | परीक्षा में सिंह ने आक्रमण किया और दिलीप ने अपना शरीर सिंह को दे दिया |  सिंह बोला कि मैं पार्वती से नियुक्त सिंह हूँ, तुम इस साधारण गाय के लिए अपना शरीर क्यों नष्ट करते हो ?  जीवित रहोगे तो अनेक तरह की तपस्या आदि कर सकोगे |

उन्होंने कहा कि ये शरीर जीवित रखने से कोई लाभ नहीं अगर हम गाय को नहीं बचा सकते |  इससे तो मर जाना अच्छा है | मनुष्य को उतनी ही देर जीना चाहिए जब तक मशाल की तरह उस में प्रकाश हो | अगर प्रकाश न रहे तो जीने से कोई लाभ नहीं | उससे अच्छा है मर जाना | सिंह ने कहा तो फिर तैयार हो जाओ मरने के लिए |  वो तैयार हो गए |  सिंह आकाश में ऊपर उछला पर ये सिर नीचे करके बैठ गए | हिले नहीं कि सिंह हमारे ऊपर प्रहार करेगा |  तब तक क्या देखते हैं कि एक फूलों की माला आकाश से उनके ऊपर आकर पड़ गयी |

उन्होंने सामने देखा तो गाय मुस्करा रही थी | बोली मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी | तुम इसमें पास हो गये हो | जाओ मेरी माँ का श्राप मिटता है | तुम्हारा पुत्र होगा बड़ा प्रतापी |  उनका नाम रघु होगा | उस गौ सेवा को देख करके राजा दिलीप के लडकों में से जो धर्म नाम के सबसे छोटे लड़के थे उन्होंने कहा कि हमें राज्य नहीं चाहिए | हमें कुछ नहीं चाहिए | हम तो सिर्फ गाय की सेवा करेंगे |

उसी वंश में आगे चलकर अभय कर्ण हुए |  शत्रुघ्न जी जब ब्रज में आये तो अभय कर्ण को साथ लाये क्योंकि ये भी बड़े गाय भक्त थे | शत्रुघ्न जी जानते थे कि ये भूमि गाय के लायक है |    वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग आता है कि जब सीता जी वनवास के समय यमुना जी को पार कर रही थीं, तो जब यमुना जी को पार करते  समय सीता जी ने यमुना जी की वंदना किया | उन्होंने देख लिया कि ये यमुना ब्रज से आ रही हैं |  वहाँ श्लोक है ( कालिंदी  --- प्रतिवार्त्म ) सीता जी ने कहा कि हे माँ मैं तेरी हजारों गायों से सेवा करुँगी | सीता जी भी ब्रज भक्त थीं |

जब अभय कर्ण जी यहाँ आये तो बड़े प्रसन्न हुए और गाय सेवा करने लग गए | इसीलिए रघुवंश का ये एक अलग वंश आता है | इन्हीं के वंश में रशंग जी हुए जिन्होंने बरसाना बसाया है और इन्हीं के वंश में राधा रानी होती हैं  |  ये बरसाने का इतिहास है | रशंग  जी के वंश में ही राजा वृषभानु और राधा रानी हुई हैं | ये सूर्यवंशी थीं और श्री कृष्ण चंद्रवंशी थे |

महारानी कीर्ति जी धन्य हैं जिनके यहाँ राधा रानी जन्मी |

महारानी कीर्ति मानवीय कन्या नहीं हैं, इनका अवतार हुआ है |  किसी समय में अपने पूर्व जन्म से पहले ये तीन पितरी कन्याये थीं |  ये कथा शिव पुराण में आती है |  जब ये शवेत दीप गयीं तो वहाँ सनकादि आये | इन्होंने उठकर सम्मान नहीं किया तो उन्होंने श्राप दिया कि तुम जाओ मानवी बन जाओ |

भगवान ने कहा कि ये वरदान है, श्राप नहीं है |  तुम्हें नित्य शक्ति को जन्मने का अवसर मिलेगा |  वो तीनों कन्याओं में से एक सीता जी की माँ बनी, सुनैना, एक पार्वती जी की माँ बनी, नैना और एक राधिका  जी की माँ बनी, कलावती |  ये कलावती के रूप में प्रगट हुई थीं |  महाराज सुचिन्द्र की स्त्री बनीं |

दोनों ने बड़ा तप किया |  ब्रह्मा जी आये और उन्होंने कहा कि वरदान मांगो |  महाराज सुचिन्द्र जी ने कहा कि हम मोक्ष मांगते हैं |   ब्रह्मा जी ने ये वरदान दे दिया | कलावती जी बोली कि ब्रह्मा मैं तुमको श्राप दे दूंगी | तुमने मेरे रहते इनको क्यों मोक्ष दिया |  ब्रह्मा जी घबरा गए क्यों कि ये महासती व अवतार थीं | वो बोले कि ठीक है, ये कुछ दिन तक यहाँ ऊपर रहेंगे और फिर तुमको गोलोक्ष्वरी की माँ बनने का सौभाग्य मिलेगा |  ये तुम्हारे साथ ही धाम में जायेंगे |  वो ही महाराज सुचिन्द्र और वही कलावती फिर से यहाँ प्रगट हुए |  कलावती, कीर्ति हुईं और इनकी कोख में राधा, भादों में अष्टमी की तिथि को, आयीं | 

🌺🍃🌺🍃🌺🍃🌺🍃

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात