संत ज्ञानेश्वर संक्षिप्त जीवन परिचय ------भाग १
पूना शहर से १५ मील दूर इंद्रायणी नदी के किनारे आलंदी नमक गाँव है. जहाँ सिद्धेश्वर मंदिर है. जिसमें नित्य श्रद्धालु भक्त नदी में स्नान करने के पश्चात दर्शन करने के लिए आते हैं.
श्रीमती रुक्मिणी बाई नित्य की तरह अपने पड़ोस में रहनेवाली सहेली सुनंदा नायक के साथ दर्शन करने आयी थी. परिक्रमा समाप्त करने के बाद उसकी नजर एक ओर बैठे एक सौम्य संत पर पड़ी जो ध्यान लगाए एकटक मंदिर की ओर देख रहा था.
एक अनजाने आकर्षण से रुकमनीबाई ने संत के समीप जाकर जमीन से माथा टेककर प्रणाम किया. संत ने प्रसन्न मुद्रा में कहा-``सौभाग्यवती हो बेटी. दूधो नहाओ पूतो फलो. ``
सहसा रुकमनीबाई की आकृति पर विषाद की रेखाएं प्रस्फुटित हो गयीं. सुनंदा ने प्रणाम करते हुए कहा-``ऐसा आशीर्वाद किस काम का.?``
संत ने विस्मय से पूछा-`` क्यूँ बेटी, मेरा आशीर्वाद फलदायक क्यूँ नहीं होगा?``
सुनंदा ने तेज़ स्वर से कहा-``जो नारी सुहागिन होती हुई विधवा सा जीवन व्यतीत कर रही हो, वह भला दूधो नहाओ, पूतो फलो जैसा आशीर्वाद लेकर क्या करेंगी. आप अपना आशीर्वाद लौटा लीजिये.``
अब संत तानकर बैठ गए. कुछ क्षण तक गौर से रुकमनी बाई की ओर देखने के बाद उन्होंने पूछा-``आखिर बात क्या है? मैं प्रत्यक्ष रूप से देख रहा हूँ की यह देवी कई सुसंतानों की जननी होगी.``
सुनंदा ने कहा-``ऐसा कैसे हो सकता है महाराज? इसके पति लगभग ११-१२ साल पहले तीर्थयात्रा करने काशी गए थे. बाद में पता चला की वही श्रीपाद्स्वामी से दीक्षा लेकर संन्यास ग्रहण किया है. सन्यासी व्यक्ति पुनः कैसे गृहस्थ बन सकता है?``
सहसा संत महाशय की आकृति कठोर हो गयी. प्रश्नसूचक दृष्टि से देखते हुए उन्होंने पूछा-`` उसके नाम और रंग रूप के बारे में कुछ बता सकती हो? मैं यहाँ से काशी जाऊंगा. अगर वह काशी में कहीं होगा तो उसे यहाँ भेज दूंगा, क्यूंकि युवा पत्नी से छल करके संन्यास लेना अपराध है. इससे संन्यास-धर्म नष्ट हो जाता है. साधना निष्फल हो जाती है.``
सुनंदा ने उत्तर दिया-``रुकमनी बाई के पति का नाम विट्ठल पन्त है. दुबले पतले गोरा रंग है, दाहिने हाथ में एक बार फोड़ा हुआ था, उसका निशाँ है, बात करते समय नजर नीची रखते हैं.``
संत ने कहा-``तुम चिंता मत करो बेटी. मैं कशी जाकर स्वयं तुम्हारे पति की खोज करूँगा. उसे तुम्हारे पास अवश्य भेजूंगा. मेरा आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता. तुम एक दो नहीं कई संतानों की माँ बनोगी. ``
रुकमनी बाई और सुनंदा ने एक बार पुनः जमीन से सिर लगाकर प्रणाम किया और फिर वापिस चली गयीं.
ये संत कोइ और नहीं वरन स्वयं श्रीपाद स्वामी थे. विट्ठल पन्त की रूपरेखा को सुनते ही वे समझ गए की ये वही चैतन्य आश्रम है जिसने छल से उनसे संन्यास लिया है. काशी आते ही उन्होंने एक दिन पुकारा-``विट्ठल यहाँ आओ.``
इस संबोधन को सुनते ही चैतन्य आश्रम चौंक गया. श्रीपाद स्वामी ने अनुभव किया की उनका संदेह ठीक ही था.
चैतन्य आश्रम के पास आने पर उन्होंने कहा-`` वत्स, छल करने से साधना क्षतिग्रस्त हो जाती है. भले ही सर्वसाधारण न समझे, पर सर्वशक्तिमान इश्वर इसे जान लेते हैं. तुमने मुझे, अपनी पत्नी, गाँव वालों को धोखा दिया है. संन्यास ग्रहण के समय तुमने मुझसे कहा था की तुम पत्नी पुत्र हीन हो. गुरु से कपट करते तुम्हें लज्जा नहीं आती.
विट्ठल को स्वप्न में भी विश्वास नहीं था की उनके गुरु तीर्थ दर्शन के सिलसिले में उसके गाँव जायेंगे. वहां इनकी मुलाक़ात रुकमिनी से हो जाएगी. . वे हतप्रभ होकर गुरु के वचन चुपचाप सुनते गए.
विट्ठल को चुप रहते देखकर श्रीपाद्स्वामी का क्रोध शांत हो गया. उन्होंने मृदु स्वर में कहा-``अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. तुम्हारी पत्नी तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा कर रही है. मेरा आदेश है की उस देवी को मनोकष्ट मत दो. घर वापिस चले जाओ. गृहस्थ जीवन में भी तुम साधना कर सकते हो. मेरी शुभकामनाएं सदा तुम्हारे साथ रहेंगी.``
विट्ठल पन्त गुरु की आज्ञा मान कर आलंदी वापिस आ गए. मध्ययुग में ब्रह्मण वाद अत्यंत कठोर हो गया था. बार बार मुसलामानों के आक्रमण और अत्याचारों के कारण कर्मकांडी पंडित उदार होने के बजाय रूढीवादी बनते गए. सारा हिन्दू-समाज इनके बंधनों में जकड़ता गया. ऐसे माहौल में विट्ठल पन्त ने संन्यास आश्रम त्यागकर पुनः गृहस्थ- आश्रम में प्रवेश किया.
विट्ठल अपने यहाँ की समाज व्यवस्था से अपरिचित नहीं थे. वे यह जानते थे की यह एक अक्षम्य अपराध है, इसे समाज कभी क्षमा नहीं करेगा. संन्यासी बनने का अर्थ है- समाज तथा परिवार के लिए मृत बन जाना. संन्यासी कभी अपनी जन्मभूमि में वापिस नहीं आता.
आलंदी आते ही उन्हें सारा समाज घृणा की दृष्टी से देखने लगा. वे समाज से बहिष्कृत कर दिए गए. गाँव के अंतिम छोर पर वे सपरिवार अछूतों सा जीवन व्यतीत करने को बाध्य हो गए.
विट्ठल का वंश असाधारण था. निष्ठावान, कुलीन ब्रह्मण परिवार में अध्ययन चिंतन बराबर होता था. विट्ठल के पितामह त्रयम्बक पन्त के गुरु नाथ-संप्रदाय के पतिष्ठाता गुरु गोरखनाथ थे. विट्ठल के पिता तथा माता को नाथ-संप्रदाय के दुसरे गुरु गहिनीनाथ से दीक्षा प्राप्त हुई थी. साधक परिवार में जन्म लेने के कारण विट्ठल पन्त में बचपन से ही वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया था. वे विद्वानों के निकट वेद शास्त्रों का अध्ययन और विचार विमर्श करते थे. यहाँ तक की योग्य गुरु की तलाश में निरंतर तीर्थयात्रा पर चले जाते थे.
इसी यात्रा के दौरान वे अपनी जन्मभूमि आपेगांव से आलंदी आये. यहाँ सिद्धेश्वर मंदीर में ठहरे. कस्तूरी की गंध शीघ्र ही फ़ैल जाती है. इनके ज्ञान और निर्मल स्वभाव को देखकर सिद्धोपंत कुलकर्णी आकर्षित हुए वे इसी प्रकार के युवक की खोज कर रहे थे. उन्होंने कल्पना की कि ऐसे व्यक्ति के हाथों अपनी बेटी सौंप दूँ तो गौरव की बात होगी.
एक दिन उन्होंने अपनी इच्छा विट्ठल के सामने रखी. विट्ठल ने सिद्धोपंत को कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया. वास्तव में विट्ठल सदा अपने आत्मचिंतन में इस प्रकार लीन रहते थे कि उनका ध्यान इन बातों पर नहीं जाता था. सिद्धोपंत ने अनुमान लगाया की विट्ठल की इच्छा नहीं है.
कई दिनों बाद एक रात को विट्ठल ने स्वप्न में देखा कि स्वयं भगवान् विट्ठल उसे आदेश दे रहे हैं-``यह विवाह तुम कर लो. इससे तुम्हारे वंश का मुख उज्जवल होगा. ``
दुसरे दिन विट्ठल स्वयं ही सिद्धोपंत के यहाँ जाकर अपनी स्वीकृती दे आये. सिद्धोपंत की बेटी रुक्मिणी से उनका विवाह हो गया. देखते ही देखते कई वर्ष बीत गए. इस बीच विट्ठल के माता पिता का देहांत हो गया. आपेगांव आने के कुछ दिनों बाद विट्ठल की स्थिति चिंताजनक हो गयी. सर्वदा पठन पाठन में लगा व्यक्ति निकम्मा हो गया. अपनी बेटी से यह समाचार पाकर सिद्धोपंत तत्काल आपेगांव आकर अपने साथ बेटी-दामाद को लेकर आलंदी चले आये.
कुलकर्णी को विश्वास था थी यहाँ विट्ठल अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी को समझेगा पर वे हमेशा पठन, पाठन में लगे रहे. गृहस्थी का माया जाल उनको बाँध नहीं पाया.
सहसा एक दिन विट्ठल ने अपनी पत्नी से कहा-``बहुत दिनों से काशी जाने की इच्छा हो रही है. तीर्थयात्रा हो जाएगी और शायद वहीँ कुछ अपनी व्यवस्था हो जाएगी.
रुकमनी अत्यंत पति परायण स्त्री थीं. उसने न तो पति को जाने से रोका और न साथ ले चलने के लिए अनुरोध किया. सहर्ष अनुमति देते हुए बोलीं-`` जल्द वापिस आइयेगा``
काशी जाकर विट्ठल पन्त अध्ययन में जुट गए. सौभाग्य से एक दिन श्रीपाद्स्वामी से मुलाक़ात हो गयी. इनके ज्ञान और साधना से प्रभावित होकर विट्ठल ने संन्यास ग्रहण कर लिया. अपना वास्तविक परिचय गुप्त रखा. संन्यास लेने के बाद विट्ठल का नया नाम चैतन्य आश्रम हुआ. श्रीपाद स्वामी स्वयं जगद्गुरु शंकराचार्य की आश्रम शाखा के संन्यासी थे.
बारह वर्ष बाद एक दिन पुनः अपने गुरु के आदेश पर आलंदी वापिस आना पड़ा. विट्ठल पन्त अक्सर सोचते थे कि शायद आगे चलकर गांववालों का क्रोध शांत हो जाएगा. और उन्हें अपना खोया सम्मान वापिस मिल जायेगा. वे इसी आशा में लम्बी अवधी तक आलंदी में निवास करते रहे.
इस बीच वे चार संतानों के पिता बने. संतानों के नामकरण में उन्होंने अपने ज्ञान का परिचय दिया, जिसका उपयोग अपने परवर्ती जीवन में बच्चों ने किया. `निवृत्ति` बड़े लड़के का नाम था, जिसका अर्थ है- समाप्ति, छुटकारा, मुक्ति विश्राम. वे आगे संतान नहीं चाहते थे, पर इसके बाद ज्ञानदेव ने जन्म लिया. तीसरा सोपान यानी सीढी और अंत में आयीं मुक्ता.
समाजपतियों की उपेक्षा के कारण विट्ठल का मन आलंदी से उचट गया. उन्हें तीर्थयात्रा की सनक सवार हुई. रुक्मिणी से अनुरोध करते ही वह भी तय्यार हो गयी. कई दिनों बाद विट्ठल सपरिवार नासिक आये. कुशावर्ती में नित्य स्नान करने के बाद त्रयम्बकेश्वर का दर्शन करते थे. इसके बाद ब्रह्मगिरी की फेरी करते थे. भिक्षा में जो कुछ मिलता था, उसी में संतोष कर लेते थे. शेष समय अध्यात्म और ब्रह्मचिंतन में व्यतीत होता था.
दैवयोग से एक दिन दुर्घटना हो गयी. जिसके कारण से विट्ठल के जीवनधारा में अद्भुद परिवर्तन हो गया. उस दिन मंदिर दर्शन करने के बाद जब सभी लोग घर वापिस आ रहे थे तभी जंगले के भीतर से बाघ गरजने की आवाज आई. भय से घबराकर जिसे जिधर मार्ग मिला. उधर भाग निकला. किसी को इतना होश नहीं था कि कौन कहाँ है. जंगल के बाहर सुरक्षित स्थान पर आने पर विट्ठल को पता लगा कि केवल निवृत्ति को छोड़कर सबलोग साथ आ गए हैं.
एक ऊंची चट्टान पर चढ़कर विट्ठल निवृत्ति को पुकारने लगे. उनकी आवाज जंगल में गूंजती रही पर दूसरी ओर से कोइ आवाज नहीं आई. यह देखकर अनजाने आशंका से रुकमनी रोने लगीं . माँ को रोता देखकर बच्चे भी रोने लगे.
विट्ठल ने कहा-`` रोने से वह वापिस नहीं आयेगा. लगता है किसी पेड़ पर या किसी गुफा में छुप गया है. अब कल सबेरे जंगल में जाकर खोजना पड़ेगा. ``
दुसरे दिन सभी लोग निवृत्ति की तलाश में जंगल के भीतर चले गए. इसी प्रकार तीसरे चौथे दिन तक लोग खोजते रहे. पर निवृत्ति का कहीं पता नहीं चला. बाद में विट्ठल ने यह सोच कर संतोष कर लिया की भगवान् ने किसी पाप का दंड दिया है.
आठवें दिन अचानक निवृत्ति आ गया. उसे देखते ही माँ ने कंठ से लगाया. पिता ने गोद में उठाया और भाइयों ने प्रणाम किया.
माँ के प्रश्न करने पर निवृत्ति ने बड़ी रोमांचकारी कथा सुनाई. उसने कहा कि आप लोगों से बिछुड़ने के बाद मैं दायीं ओर अंजनी पर्वत की गुफा की ओर भागा. थोड़ी देर बाद वहां एक महात्मा वहां आये और मुझे अपने साथ लेकर भीतर की ओर बढे. आगे एक स्थान पर काफी बड़ा घर था. दुसरे दिन मुझे उन्होंने अपने शिष्यों के साथ स्नान के लिए भेजा. स्नान करने के बाद जब मैं वापिस आया तब उक्त महात्मा ने कहा-``निवृत्ति, आज तुम्हारे जीवन का महत्त्वपूर्ण दिन है, गुरु गोरखनाथ की कृपा से कल तुम्हारा आगमन हुआ और उन्ही की प्रेरणा से आज तुम्हें दीक्षा दे रहा हूँ. अब यहाँ कुछ दिनों तक आसन, मंत्र. आदि सीखना पडेगा. इसके बाद घर जा सकोगे. `
शेष अगले अंक में...
जय श्री राम
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