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Showing posts from September, 2018

तृषा वर्धन , बांवरी जू

*तृषा वर्धन*      चेतना सदा से तृषित है, अतृप्त है क्योंकि छूटी हुई है उस महाचैतन्य से।पुनः उस महाचैतन्य केे रस स्पर्श ही इसकी वास्तविक तृषा उदित होने लगती है, वर्धित होने लगती है। परंतु उस महाचैतन्य का स्पर्श तब तक सम्भव नहीं जब तक चेतना अपने जड़ीय आवरणों से युक्त है। तब तक न स्पर्श सम्भव है न ही तृषा वर्धन सम्भव।      श्रीरसिक कृपा, श्रीधाम कृपा, श्रीगुरु कृपा से जड़ता के यह आवरण छिन्न भिन्न होने लगते हैं।श्रीरासिकों के मुख से निसृत वाणी इस रस तृषा को जीवंत करती है, तृषा को प्राण देती है, उसे विकसित करती है, जिससे यह तृषा विकसित हो पल्लवित होने लगती है।चेतना जब अपना वास्तविक सुख, वास्तविक मूल पहचान लेती है तो पुनः पुनः उसी मार्ग पर लौटने लगती है। श्रीरसिकों की कृपा, श्रीगुरुदेव कृपा से दुर्बल चेतना पुनः बलवती होकर अपने मूल की ओर उछलने लगती है। कृपा का यह बल ही इस तृषा को वर्धित करता रहता है।        श्रीरसिक वाणी में ऐसा अद्भुत सामर्थ्य है कि इसका एक एक वाक्य चेतना का निर्मलीकरण करता है।वास्तविक श्रवण वही है जो भीतर तृषा उत्तपन्न करे, ऐसे श्रीरसिक मुख से निकला एक एक वाक्य भीतर के जड़त

अमितानुरागिणी वेणु वेणु जय जय वेणु जय श्रीवेणु , बाँवरी जू

*अमितानुरागिणी वेणु वेणु जय जय वेणु जय श्रीवेणु*      श्रीवेणु जो अपने रव रव से श्रीहित सुधा, प्रेम सुधा पिला रही है, इस वेणु के भीतर ऐसा दिव्य रस भर रहा है श्रीस्वामिनी जु का नाम। श्रीराधा नाम सुधा प्रियतम इसे भर भर पिला रहे हैं, इस वेणु नाद से निनादित होकर श्रीनिकुंज का कण कण वेणु मय हो रहा है, रस मय हो रहा है, हित मय हो रहा है, अनुराग मय हो रहा है।ऐसे अमित अनुराग को पिलाने वाली है यह श्रीवेणु। सभी राग रागिनी का मूल इसी श्रीवेणु नाद में समाहित है । जिस प्रकार श्रीस्वामिनी श्रीराधा जु का नाम प्रियतम के रोम रोम को आह्लादित किये हुए है , वही आह्लाद रव रव में प्रकट हो रहा है, बिखर रहा है, प्रसारित हो रहा है, स्वयम भी हितमयी होकर सबको हितमयी स्वरूपः दे रहा है।    श्रीराधा जी के चरणों का अमित अनुराग प्रदान कर रही है वेणु, श्रीप्रियतम को , सखियन अलियन को, श्रीनिकुंज के कण कण को। ऐसा अनुराग जो नित्य नव नव होता जाता है, नित्य वर्धित होता जाता है। श्रीवेणु श्रीस्वामिनी जु की सेवा प्रदान करने का सामर्थ्य रखती है। हित रस जैसे जैसे इस वेणु नाद से गहन अति गहन होता जाता है, वर्धित होता जाता है, प

हा...हा...करत ना देति , सँगिनी । पीताम्बर-मुरली लीला ।

Do not SHARE हा...हा...करत ना देति... सखियन संग प्राणप्रियतमा भोरी किशोरी जू सिंगार कुंज में रसहिलोर में सिंगार धरातीं रसीली सखियन की कोमल छुअन से स्पंदित सिहरित हो रहीं हैं...सखिगण लज्जाशीला कू सिंगार धरावन तांई किंचित कंचुकी सौं  आँचल हटाई दें तो प्यारी जू पुनः दुराइ कै स्वयं कू छुपाइवे कौ प्रयास करै... च्यौं... ! च्यौं री...प्यारी जू के सुकोमल रसप्याले से भरे कनक कलश सुसज्जित भए प्यारे के नखों से सुरख लाल...हा... जेई झाँकि कू निरख रहै प्रियतम पीताम्बरधारी सम्मुख सिंगार कुंज में झाँकती एक बंदनवारों से सजी किवड़िया से जो सुरभिनि श्वासों से तनिक सरक फुरक जाती और प्यारे को प्यारी जू की लजीली मंद मुस्कान निरखाती...अहा... जेई कीर्तिकुमारी कू निहारत निहारत रसपल्लवन सौं प्रियतम अधीरतावश भीतर प्रवेश पानो चाह्वै...पर सेवातुर...प्रेमवत्सलातुर...प्यारी जू कौ सिंगार धरानो चाह्वै अपने कोमल कर सौं... पर स्थिति कू विपरीत जान वहीं किवरिया की ओट में बैठ अपना सरस रसीला पीताम्बर बिछाए कै...यांते मुरली धर...मुरलीधर प्रियतम सुंदर कोमल करुंगलियों से प्यारी जू के पाइनि की पायल सजाने लगते हैं नन्ही नन्