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कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।।

कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए....
जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें...
कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए....
जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय....
कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए....
परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ...
कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए....

ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई।

ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं।

रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :-
"एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ"

वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं।

श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:-
"भगवान मुझे इस धरातल पर विशेषतः गोकुल में किसी साधारण जीव की योनि मिल जाय, जिससे मैं वहाँ की चरण-रज से अपने मस्तक को अभिषिक्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ।"

भगवान शंकर जी को भी यहाँ गोपी बनना पड़ा:-

"नारायण ब्रजभूमि को, को न नवावै माथ,
जहाँ आप गोपी भये श्री गोपेश्वर नाथ।"

ब्रज में तो विश्व के पालनकर्ता माखनचोर बन गये, इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी को ब्रज में गोपियों से दधि का दान लेना पड़ा।

जहाँ सभी देव, ऋषि मुनि, ब्रह्मा, शंकर आदि श्री कृष्ण की कृपा पाने हेतु वेद-मंत्रों से स्तुति करते हैं, वहीं ब्रजगोपियों की तो प्रेम-रस से भरी गाली सुनकर ही कृष्ण उनके ऊपर अपनी अनमोल कृपा बरसा देते हैं।

बृज की ऐसी विलक्षण महिमा है कि स्वयं मुक्ति भी इसकी आकांक्षा करती है :-

"मुक्ति कहै गोपाल सौ मेरि मुक्ति बताय,
ब्रज रज उड़ि मस्तक लगै मुक्ति मुक्त हो जाय"

श्री ब्रजभूमि प्रेममयी है, श्री ब्रजरज प्रेम प्रदाता है।

श्री युगलकिशोर की कृपा से जिस देह में ब्रजरज लिपट गयी तो समझो कि प्रभु की प्रेमा-भक्ति का जन्म होने ही वाला है।

जिस प्रकार नाम-जप की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार ब्रजरज की महिमा का बखान नहीं किया जा सकता।
यह तो कुछ बिरले प्रभु के विशेष प्रेमियों तक ही सीमित है और इसका यत्किंचित ज्ञान, उन्हीं की स्नेह-कृपा के द्वारा ज्ञात हो सकता है।

संभव है कि कभी आपने भी अनुभव किया हो कि श्रीधाम वृन्दावन की सीमा में प्रवेश करते ही, अन्त:करण में सुप्त पड़ा, प्रेम-रस का सोता, किस प्रकार से फ़ूट पड़ने को आतुर हो उठता है।

मन एक अनिवर्चनीय आनन्द से प्रफ़ुल्लित हो उठता है और ह्रदय अपने प्राण-प्रियतम का स्मरण करते हुए स्वत: ही "राधे-राधे" कहते हुए हिलोरें लेता, प्रेम-समुद्र की सारी सीमायें लाँघ जाने को आतुर हो जाता है।

साथ ही यह भी अनुभव किया होगा कि जब आप श्रीधाम वृन्दावन से वापस जाते हैं तो वह प्रेम-रस का सोता, शांत होता हुआ, श्रीधाम वृन्दावन की सीमा से बाहर जाते ही, उस अनिवर्चनीय आनन्द की अनुभूति से आपको वंचित कर देता है और तभी आप अनुभव कर पाते हैं कि आकर क्या पाया और जाते हुए क्या छूट गया।

सत्य तो यह है कि ह्रदय तो यहीं ब्रज में छूट जाता है।

मेरे श्रीयुगलकिशोर का ऐसा प्रेम, ऐसी कृपा, ऐसा भाव, श्रीधाम में बाँहें पसारे अपने प्रियजनों की प्रतीक्षा, अदभुत विरह, अदभुत मिलन, अदभुत अनुकंपा....

हे नाथ, हे मेरे जीवन सर्वस्व, ब्रज में सर्वत्र बिखरी तुम्हारी यह चरण-धूली, इस देह का श्रृंगार बने, यही आपके चरणों में मुझ अधम की प्रार्थना है।

हे दीनबंधु ! इस अपवित्र देह और कलुषित ह्रदय को भी आपने, अपने निजधाम में स्थान दिया है; इससे बढ़कर भी आपकी अहैतुकी कृपा क्या हो सकती है?

हे रसिकशेखर, हे रासेश्वरी, आपका और आपके निज-जनों का जो रस-सानिध्य, मुझ अधम को प्राप्त हो रहा है; इसके सम्मुख मोक्ष या मुक्ति का कोई महत्व ही नहीं है।

आपके श्रीधाम की बुहारी सेवा ही मिल जाये तो यह जन्म सार्थक हो जाये।

श्रीधाम वृन्दावन दिव्य है, दिव्य है, दिव्य है, चिन्मय है, चिन्मय है, चिन्मय है....

कुन्ज-निकुन्ज, लतारूप में गोपियाँ, वृक्षरूप में सिद्ध योगीगण, चरण-धूली पाने को लालायित दूर्वारुप में भक्त, लताओं में झाँककर, रसिकशेखर को खोजते "प्रेमी" उद्धव....

जन्म-जन्मांतरों के सुकृतों के फ़लस्वरूप, जड़-चेतन के अन्य रूपॊं में श्रीयुगलकिशोर के कृपापात्र
अदभुत, मोहक, अनिवर्चनीय, गूँगे का गुड़ ...

श्री कृष्ण जी उद्धव जी से कहते हैं:-

ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं...

हंस-सुता की सुन्दर कगरी, अरु कुञ्जनि की छाँहीं,
ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि - गहि बाहीं...

यह मथुरा कञ्चन की नगरी, मनि -मुक्ताहल जाहीं,
जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं...

अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नन्द निबाहीं,
सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि-कहि पछिताहीं..

ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं...

                       जय जय श्री राधे

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