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Showing posts from November, 2015

हाय मोरा पियु बिन । प्रेम रस मदिरा ।

हाय मोरा, पिया बिनु जिया घबराये | बरसों बीत गये गये घर सों, परसों कितक विहाये | कहँ लौं मन समुझाउँ सखी अब, मनहूँ भये पराये | सुधा समान बैन सखियन के, विष सम मोहिं जनाये | छिन आँगन छिन बाहर भाजति, कितहूँ चैन न आये | कबहूँ तो ‘कृपालु’ पिय हियहूँ, ‘हाय !’ लगेगी जाये  || भावार्थ    –     ( जब श्यामसुन्दर गोपियों को छोड़कर मथुरा चले गये तब एक विरहिणी अपनी विरह – व्यथा को अपनी अन्तरंग सखी से बताती है |) हाय ! सखी ! मेरा मन प्रियतम श्यामसुन्दर के बिना अत्यन्त ही घबरा रहा है | अरी सखी ! उन्होंने कहा था कि परसों ही आ जायेंगे किन्तु बरसों बीत गये उनका अभी तक परसों नहीं समाप्त हुआ | अरी सखी ! अपने मन को किस प्रकार एवं कहाँ तक समझाऊँ और अगर समझाऊँ भी तो वह भी तो उन्हीं के पास चला गया है, फिर हमारी बात मन समझ कैसे सकता है ? मेरी परम अन्तरंग सखियों के अमृततुल्य मीठे वचन भी मुझे विष के समान प्रतीत हो रहे हैं | मैं क्षण – क्षण में कभी घर में आती हूँ कभी ‘प्रियतम आते होंगे’, इस आशा में भागती हुई घर से बाहर जाती हूँ किन्तु कहीं भी चैन नहीं मिलता | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि अरी विरहिणी ! तू घबरा

मनीषा पंचकम् की सीख

💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢 ➡ मनीषा पञ्चकं की सीख   ➡ जिसने अपने गुरु के वचनों से यह निश्चित कर लिया है कि परिवर्तनशील यह जगत अनित्य है । जो अपने मन को वश में करके शांत आत्मना है । जो निरंतर ब्रह्म चिंतन में स्थित है । जिसने परमात्म रुपी अग्नि में अपनी सभी भूत और भविष्य की वासनाओं का दहन कर लिया है और जिसने अपने प्रारब्ध का क्षय करके देह को समर्पित कर दिया है । वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥३॥ शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना । भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥ 💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢💢

कहो कौन मुँह लाइ कै रघुबीर गोंसाई

🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴🌴 पाती प्रभु के नाम 📝📝📝 हे रघुवीर ! हे स्वामी ! कौन - सा मुहँ लेकर आपसे कुछ कहूँ ? स्वामीकी दुहाई है, जब मैं अपनी करनीपर विचार करता हूँ, तब संकोचके मारे चुप हो रहता हूँ ॥१॥ सेवा करनेसे वशमें हो जाते हैं, स्मरण करनेसे मित्र बन जाते हैं और शरणमें आनेसे सामने प्रकट हो जाते हैं । ऐसे आप श्रीसीतानाथजीके गुण - समूहपर भी मैं ध्यान नहीं देता ॥२॥ आप कृपाके समुद्र हैं, दीनोंके बन्धु हैं, दुःखियोंके हितू है और शरणागतोंके पालनेवाले हैं, आपकी ऐसी विरदावली सुनकर और जानकर भी मैं भूल गया हूँ ॥३॥ मैंने न तो सेवा ही की और न ध्यान ही किया । स्मरण करके आपके चरणोंमें सच्चा प्रेम भी नहीं किया । आप - सरीखे श्रेष्ठ स्वामीको पाकर भी मैंने आपके साथ भर पेट बिगाड़ ही किया ॥४॥ आप गरीबोंपर कृपा करनेवाले हैं; पर मैंने गरीबी धारण नहीं की । ( अतएव मेरी ओर देखनेसे तो कुछ भी नहीं होगा ? अब हे नाथ ! अपनी ओर देखकर ही जो आपसे बन पड़े सो कीजिये ॥५॥ कहौं कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाईं । सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥१॥ सेवत बस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं । गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौ

श्रीनरोत्तम प्रार्थना

🐚        श्रीनरोत्तम प्रार्थना        🐚 ✨हरि हरि ! आर कि एमन दशा हव । 🔸ए भव संसार त्याजि, परम आनन्दे मजि ✨आर कबे ब्रजभूमे जाव ॥ ✨सुखमय वृन्दावन ,कबे हवे दरशन ,से धूलि लागिबे कबे गाय । 🔸प्रेमे गद गद हैञा ,राधाकृष्ण नाम लैञा कांदिया बेड़ाइब उभराय ॥ ✨निभृते निकुञ्जे जाञा,अष्टांगे प्रणाम हैञा डाकिब हा राधानाथ बलि । 🔸कबे यमुनार तीरे , परश करिब नीरे , कबे पिब करपुटे तुलि ॥ ✨आर कबे एमन हब , श्री रासमण्डले जाब कबे गड़ागड़ि दिव ताय । 🔸वंशी वट छाया पाञा , परम आनन्द हञा , पड़िया रहिब तार छाय ॥ ✨कबे गोवर्धन गिरि , देखिब नयन भरि , कबे हबे राधाकुण्डे वास । 🔸भ्रमिते भ्रमिते कबे , ए देह पतन हबे , कहे दीन नरोत्तमदास ॥ ✨ हे हरि ! हे कृष्ण ! कभी ऐसी भी स्थिति होगी कि मैं इस संसार को त्याग कर श्रीवृन्दावन धाम में वास के परम आनन्द में निमग्न हूँगा ???? 🔸 हे हरि ! उस सुखमय वृन्दावन के कब मुझे दर्शन होंगें और कब उसकी पावन धूलि मेरे शरीर पर विभूषित होगी ? प्रेम में गदगद कण्ठ होकर मैं कब " श्रीराधा " "श्रीकृष्ण " नामों का उच्चारण करते हुए उच्च स्वर में रोता हुआ इधर-उधर

किशोरी जी से प्रार्थना

हे श्रीकिशोरी राधिके जू !मेरे अनंत अपराधो के लिऐ मैं आपसे क्षमा-प्रार्थी हूॅ ।�। ।मैं तुम्हारा अज्ञानी और अबोध बालक हूॅ और तुम ही मेरी माॅ हो ।अनादि काल से अनंत जन्मो में मैने अनंत पाप ही किये है तथा अब भी मैं मूर्खतावश प्रतिपल और पापो का ढेर जमा करता जा रहा हूॅ ।तुम अपने अकारणकरुण स्वभाव के चलते कृपा करके बारम्बार मुझको मानव देह प्रदान करती है और मैं महामूढ़ इस नश्वर संसार के चक्कर में उस अमूल्य देह को गॅवा देता हूॅ ।तुम जानती ही हो कि तुमसे अनादिकालीन मैं विमुख हूॅ जिस कारण तुम्हारी ही माया ने मुझ पर अधिकार कर रखा है जिसके चलते मैं मन को सदा संसार में ही लगाता आया हूॅ; उसी संसार में तुम्हारी माया ही मुझे बार-बार दंड (संसार के दुख/हानि आदि) देती है ताकि मैं तुम्हारे सन्मुख हो जाऊ लेकिन मैं महामूर्ख बार-बार उसी संसार में मन लगा देता हूॅ जहाॅ दिन-रात मुझे ठोकरे और दुत्कार ही मिलता है ।जिस प्रकार तुम्हारे समान कोई पतितपावन नही है उसी प्रकार मेरे समान कोई पतित नही है; हम दोनो की कोई उपमा (मेरे पापी होने की और तुम्हारे पतितपावन होने की) ही नही है ।तुम्हारे अकारणकरुण, पतितपावन, दीनवत्सल आदि

रसिकों की कृपा

रसिक रँगे जे युगल रंग,तिनकी जूठन खाइ। जहाँ तहाँ के पावने,भजन तेज घटि जाइ।। इष्ट मिलै अरु मन मिलै,मिलै भजन रस रीति। मिलिये तहाँ निशंक ह्वै,कीजै तिनसों प्रीति।। जिनके देखे पुलक तन,रोमांचित ह्वै जाहि। सुनत मधुर तिनके वचन,नैन भरैं जल आहि।। खान पान तौ कीजिये,रसिक मंडली माहिं। जिनके और उपासना,तहाँ उचित ध्रुव नाहिं।। संग सोई जाके मिले,भूलै ग्रह व्यौहार। तिहि छिन आवै हिये में,अद्भुत युगल विहार।। यह रस परस्यौ नाहिं जिन,तू जिनि परसै ताहि। तासौं नातौ नाहिं कछु, यह रस रुचै न जाहि।। युगल प्रेम रस मगन जे,तेई अपने जानि। सब विधि अंतर खोलि कै,तिनही सों रूचि मानि।। [ जिनकौ सहज सुभाव परयौ,युगल रंग की बात। निशि दिन बीतै भजन में,और न कछु सुहात।।

प्रेम स्वामी रामसुखदासजी

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है । उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है‒इसका खयाल नहीं रहता । वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं । (साधक-संजीवनी अध्याय ७ । १८) प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान्‌ ही हैं‒‘तस्मिंतज्जने भेदाभावात्’ (नारद॰ ४१) । (साधक-संजीवनी ७ ।१८, परिशिष्ट भाव) उस {महात्मा भक्त} का भगवान्‌के साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाता है, जिससे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति (जागृति) हो जाती है । इस प्रेमकी जागृतिमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्णता है । (साधक-संजीवनी ७ ।३०, अध्यायका सार) भगवान्‌ ही मेरे हैं ओर मेरे लिये हैं‒इस प्रकार भगवान्‌में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्‌में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य-निरन्तर होता है । (साधक-संजीवनी ८ ।१४ परिशिष्ट भाव) ॥ ॐ

ek laalsa एक लालसा

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ ‘मेरा भगवान्‌में ही प्रेम हो जाय’—इस एक इच्छाको बढ़ायें । रात-दिन एक ही लगन लग जाय कि मेरा प्रभुमें प्रेम कैसे हो ? एक प्रेमके सिवाय और कोई इच्छा न रहे, दर्शनकी इच्छा भी नहीं ! इस भगवत्प्रेमकी इच्छामें बड़ी शक्ति है । इस इच्छाको बढ़ायें तो बहुत जल्दी सिद्धि हो जायगी । इस इच्छाको इतना बढ़ाये कि अन्य सब इच्छाएँ गल जायँ । केवल एक ही लालसा रह जाय कि ‘मेरा भगवान्‌में प्रेम हो जाय’ तो इसकी सिद्धि होनेमें आठ पहर भी नहीं लगेंगे ! ● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

ek laalsa एक लालसा

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ ‘मेरा भगवान्‌में ही प्रेम हो जाय’—इस एक इच्छाको बढ़ायें । रात-दिन एक ही लगन लग जाय कि मेरा प्रभुमें प्रेम कैसे हो ? एक प्रेमके सिवाय और कोई इच्छा न रहे, दर्शनकी इच्छा भी नहीं ! इस भगवत्प्रेमकी इच्छामें बड़ी शक्ति है । इस इच्छाको बढ़ायें तो बहुत जल्दी सिद्धि हो जायगी । इस इच्छाको इतना बढ़ाये कि अन्य सब इच्छाएँ गल जायँ । केवल एक ही लालसा रह जाय कि ‘मेरा भगवान्‌में प्रेम हो जाय’ तो इसकी सिद्धि होनेमें आठ पहर भी नहीं लगेंगे ! ● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

प्रीतम का झुनझुना

प्रीतम का झुंझुना (खिलौना) खिलौना कितना ही छोटा हो उसमें भोक्ता को देने के लिये रस है | जीवन एकरंग मंच है ! और हमें अभिनय करना है ! देह केवल अभिनय हेतु है ! और इस अभिनय को इस तरह करना है कि महादर्शक को हर्ष मिलें , रस मिलें !  भक्त और परम् ज्ञानी केे लिये ईश्वर का लोप होता ही नहीं ! जगत् को ईश्वर मान जीवन लीला ही होगी ! नित्य लीला ! प्रत्येक क्रिया को समर्पण भाव से करना ! भगवत् सुख के लिये ! पूर्ण रूपेण ईश्वर रस के भाव से ! प्रति क्रिया कर्म ईश्वर अर्पण के भाव से रहे ! दृश्य को दृश्य में लगा , मूल में निहित प्रेमस्वरूप को ईश्वरोन्मुख करना है ! निज स्वरूप का बोध है दृश्य से हटने में ! अहम् निवृति में ! अहम् गुण दोष से ज्ञात है ! सत रज तम गुण और दोष की निवृति में प्रीति उदय होगी ! दोष से हटने के लिये सत्संग और साधन भक्ति है ! आहार विहार से त्रिगुण है ! छिपे हुये दोष की कारण सहित गुण निवृति से प्रेम प्रगट होता है प्रेम गुणातीत है ! दोष न होने पर उस गुण का अभिमान पिघलने लगता है ! और अहम् रहित भाव तब होता है ! परन्तु यहाँ प्रयास न हो , प्रयास भी अहंकार से जुडा है ! पहले दृश्य को दृश्य में

आशा निराशा पिपासा और तृषा

आशा , निराशा और पिपासा ... क्यो ? से मुक्ति अध्यात्म में अनिवार्य है ! क्यों ? से निवृत हो कर ही भगवत् पथ खुलता है ! तब ही जिज्ञासा प्राप्त होती है ... तर्क वितर्क हो कर गर्भ में ले जायेगा ... सवालों विचारों के गर्भ से बाहर न आया जा सकेगा ... भगवत् पथ की मूल प्रारम्भिक आवश्यकता है .... श्रद्धा ! श्रद्धा से पूर्व विश्वास होता है ! विश्वास की माटी सत्संग की चाकी पर गुरु या सुहृद जन द्वारा श्रद्धा होती है ... ... श्रद्धा का कारण आकर्षण ! आकर्षण से श्रद्धा गहराती है ... बिना श्रद्धा भी प्राप्ति तो है ... जैसे शिशुपाल , कंस , रावण , कुम्भकरण , हिरण्यकशिपु आदि ! यें प्राप्ति विपरित आवेश में है और तीव्र प्राप्ति है ! इन प्राप्तियों में सन्मुखता का लाभ तो मिला पर भगवत् रस और प्रेम नहीं .... ! श्रद्धा के 3 मार्ग है एक आशा या कामना का जो श्रद्धा करता तो है , मानता भी है , पहुंचता भी है परन्तु आशा की निवृत्ति कर लौट आता है | जैसे दुर्योधन जो आशा लेकर गया श्री कृष्ण के पास और सेना लेकर लौट आया .... वो गया अर्थात् श्रद्धा तो थी परन्तु यहाँ श्रद्घा ऐश्वर्य के आकर्षण में हुई ! दूसरा निराशा जिस