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Showing posts from October, 2015

भाव 1 11 2015 भोग दृश्य

मानस सेवा को नेम भलो नाना रस सु रसरसिका सेवत निज कर सु मुख भोग पवावे अधरामृत लगो कर चाटत जावे कबहुँ दोउन लाड सु पवावे कबहुँ दोउन का लाड सूं पावे कबहुँ युगल निज निज आरोगई कबहुँ लाली कंज  लालन अरविन्द सूं पवाई दोउन सन्मुख होत सेवा भोग संग पावे कबहुँ निज कोर मोहि महा प्रसादी पवावे सरस सरिल पुनीत मनोहर दरस निज रस पायो नित नित रूचि नाना बिधि भोग लालस बढ़ायो ।।। तृषित ।।। सांवरे साजन की सलोनी सजनी जी मोरी मनहर रूप की मनबसत नटवरि प्यारी अति कोमल वादन सु पुलक ठुलक नाचत हंसनी कृष्ण भँवर मकरन्द कुमल अधरन भिनी भिनी गावत मोहिनी

Bhav 31 10 2015

पग से लिपटी रहूँ श्यामा जु संग झांझर का नुपुर बन संग नाचती रहेय नित प्रति प्रेम केलि विलास रमण करेय सखियन के सेवा रस को शीश धरेय श्री जी सामीप्य सानिध्य रस में प्रीतरस में कलकल भये कछु भाव सेवा से युगल अधरन पर मुसुकानी होय ऐसो आशिष सखीयन कुँजन को पावत रहेय श्यामा पद रज मांग भरो री सखी श्यामाश्याम युगल वरण करो री सखी पद बिसरे जिन पल छिन नातो  रहे शवासन से पद बिन मन को युगल पद वास रहे तन की न निज प्यास रहे युगल सेवा को भाव रहे प्रियाप्रितम मिलन को चाव रहे स्वामिनी सहज कृपा की कोरी देखत सुनत न जानत पापिन कु निज कर उठावे अंकभर बेठा वे मधुर माधुरी कर कमलन सूं लाड करत अति मधु बतियावे भाव न जाणु आखर न जाणु दोउन आस बिन कछु जीवन न जाणु ऐरी ओ श्यामा ।। निज निर्बल बावरी नव मञ्जरी पुकारत अति धीर थिर अधरन बोरी संग संग राखियो । तनिक न बिसारियो । जगत रंग बहु भये एक हित चटक कुसुमल बरसाइयो जोरन मेरो लगाये कबहू हार गई काज सब भये सु नयनन की कोरी करत करुणा किरपा किशोरी पतितन को ताज आप ही हटाइयो तनिक लाड को पयासो हिय निज पद धर राखियो । भाव भीनी बौछारन होय तनिक तेज बदरिय

एकहु बार प्रगटाय ल्यो

[10/30, 21:51] Satyajeet trishit 2: ऐसे सन्त भी हुए जो जै जै को भजन में बाधक कह चुप करा दिए । न बोले जब तक एकहु शब्द न बोले यो । बोलन लाग्यो तो कबहुँ रुके न रुकेगो । बहुत भरयो है यांको हिय । कोई सुणनो न चाहवे न । बहुत । सब काज छुड़ाय बस सुनत रह्यो । मिलत देखि ल्यो । पगलन से भी पगलन है । ऐसो ऐसो ख्याल करे । टाबरन सो नन्नो टाबर । रोवन लागे चुप न होवे। एकहु जगत और टिकाये दियो । कोई बात करणो चाहवे रूठ बैठ जावे । घना नखरां । सारन जनमन की कसर निकाल लेवे । सोवन न देवे । खाबन न देवे । का कहू । ऐसो बावलों है ।। बस एकहु बार प्रगट हुयो । कबहू न जावे । घणो लाड करे । [10/30, 21:51] Satyajeet trishit 2: भला जा ने न दिखत । दिखत न देखत बनत । न मरत । न सम्भलो जावे । एकहु बार मिल ल्यो । इतनो नेह करत है पलक झपकन से खीज जावे । आप देय आप ही रूठे । [10/30, 21:51] Satyajeet trishit 2: नेह चाहवे । सबन के हिय रहत । प्रगट होय खेलन चावे । खूब रस भरयो है।  पल पल कहत बात करत रह्यो है कि जाऊ । सारा जोग छुड़ाय कहे बातन सुन । बातां ऐसीं का कहू । ग्यो वो काल । अब धुंधलो बचो है । सबन पहली बताय सारो मजो कीर कीरो करे 

पिया न आवे

पग से लिपटी रहूँ श्यामा जु संग झांझर का नुपुर बन संग नाचती रहेय नित प्रति प्रेम केलि विलास रमण करेय सखियन के सेवा रस को शीश धरेय श्री जी सामीप्य सानिध्य रस में प्रीतरस में कलकल भये कछु भाव सेवा से युगल अधरन पर मुसुकानी होय ऐसो आशिष सखीयन कुँजन को पावत रहेय पिया न आवे जब तक मानस करवो भरनो है प्यास हिय न बुझे तृषित ही रहणो है मुख माधुरी निहारत ही अमृत रस पीनो है तृषित का होवे सारो जग पूछत डोले नारी से आज पूछ ल्यो जल चन्द पे काहे ढोले पतितन को पति जो पावे एकहु दिन न चरु भर खावे हिय पीर नित नव दरस प्यासी बाट निहारत सुहागन भई सन्यासी

जलराशी २५ - १० -२०१५

मन माखन होवत जब  आवे चुरईय्या नाविक न कोई होवे खिंचत खिवईय्या मलिन मन में ना गुंजत स्वर कबहू कालिया फन पर नाचत बाजत घुंघरु सब क्लेश तापाचार विचार फेकनो है बृहद राशि रहित सरोवर होनो है पूर्व बहे सरोवर मेघ से न आस करे रिक्त चित् में सदा सच्चिदानन्द वास करे एकहू द्वार धरि दियो शीष न उठाय फिरो धरत पुनि पदराई दियो हरि कृपा भान रहियो तृषित ऐसन बन जा रिक्त कूप समुद्र आवे बनत वही मेघरूप भरत कूप निज प्यास न बुझावे है खग - पथिकन री प्यास बुझावे है कूप को जल निरमल होवे परतन परदन में रहत होवे तडाग न जलदाशीष शीतल होवे कृपा पे न कछु विवेकन प्रकास होवे एकहू ही राशी पावे विभिन्न स्वादा कूप तडाग सु सलिल झरत झरन नादा वेद पुराणन क्षार सागर भये जल राशी होवत पिबत न बने रसिकन मेघ भये सार खेचत सारन को सार केवल पिलाय रहे

प्रकृति और शरद २५ - १० -२०१५

माधुर्य शरद का मधुर आगमन प्रेमानन्द से प्रवाहय व्योमाभुवन प्रकृति भीतर गोपीवत् तीव्र प्रेमास्पन्दन रजकण-कण नृत्य उमडत् श्रवण वेणुनादन परिवेश प्रेममय हुआ है किसी ने पुन: निमन्त्रण भेजा है मधुर शीतल शरद हृदय तक तीव्र उत्कंठ मिलन प्रवाह से भीतर कम्पित हृदय मकरन्द छुने लगी है मैं क्या नाचुं सब भुवन नाचे है शीतल वेणु तरंग में डाल पात स्वघर से कुंजन भागे है शरद ने वर्षा रितु की प्रेम बगिया में मधुर थिर रागित वीणा नाद और वेणु का संयोजन छेडा है वायु के पराग से भ्रमर मन हृदय मकरन्द तक उतरे तब भी न सुन सके निमन्त्रण शरद का चित् ! असम्भव ! प्रेम कितना तीव्र उन अधरामृत से बहा  सुप्त शुष्क जर्जरित धरा में निर्मल उन्माद जाग उठा सच ! उस और का प्रेम हृदय सुन रहा है हर शरदित श्वासन से कोई छेच रहा है नित अप्राकृत मधुर राग वायु के पराग में अब बहा है

प्राप्त होगा पर ।।

प्राप्त होगा । उसे भी जिसने बिस्तर पर लेट कर नाम लिया । उन्हें भी जिन्होंने सरकंडों के बिस्तर पर भजन नही छोड़ा । उन्हें भी जो नियमित सच्चे साधक हो भजन किये । सबको मिलेगे । किसी को ऑटोग्राफ । किसी को संग डिनर । कोई सर्वेंट । और कोई और भी करीब । भावना की बात है । गहरी भावना हो । जैसे रसिक अकेले कान्हा से भी राजी नही । युगल हो । प्राप्त शांत समाधिस्थ को भी होंगे पर जैसा भजा वैसा । निर्विकल्प निर्गुण ब्रह्म । कोई अहसास नही । बस आत्मा परमात्मा में घुल जायेगी जैसे चासनी में एक बून्द । नदी में अँजली भर जल । कोई अहसास नही । जैसी विधि जैसी प्यास उतनी तृप्ति ।

साधुता पर भाव

[10/24, 19:50] Satyajeet trishit 2: साधू उसे जानिए पाछे ढेला एकहु न मिले न ना मिले दूजी कोपीन [10/24, 19:57] Satyajeet trishit 2: आज सिद्धन को चलन है स्वांगन सो आकर्षण ह्वे दुई रुपय बचावे को पानी पे चलत है बरसन का भजन प्रतिफल आसन सो उठनो होय है प्रभु जब आय गए तनिक मुदित मन निहारिये मांगन को कहत जबहि मूक होई जाइये पुनि पुनि कहत रहे चरणन सु लिपट जाइये कछु मांग लेवे जगत मोसे पिंड झुंझुणो देय छुड़ाय लेय [10/24, 20:06] Satyajeet trishit 2: मानस लिखत दीन भये तुलसी सूर कबीर नानक मीरा रहीमन अखियाँ देखत रही जो भावन कानन सु सुनत बीतत जीवन सदा ऐसन भक्त दीन हीन रह्वे दोई नाम दिखावो के लेत जगत न मोई समान अकडत रह्वे । दीनता न त्यागिये कबहू सठमना हरी निज पद नित नित रैन दबाय पातक विचारिये भजन यमुना जी चढ़ाय [10/24, 20:17] Satyajeet trishit 2: अंक भरत मिलत है रहत संग खेलत कूदत नाचत है संग संग काज करे बातन करे फिरत रहे पाछन खावत सोवत  संग एसो बने हरी साजन दोई आखर ग्रन्थं पढ़त माला मनरहित फेरत अकडत भक्त बनत फिरत केसो कुटिल तृषित बाजत सांचो नेह नाथ चाह्वे सत चित् होत आ

दीनता पर वार्ता

[10/24, 20:25] Satyajeet trishit 2: जगत में भक्तन बढ़ी गई । कीर्तन सत्संग बहुत हजारन पावे दैन्य । दास्य । करुण । समभाव खोजे न अखियाँ पावे । ऐसो जो मिलत है पलकन न उठावे मस्तक झुकाय सरक जावे । हरी कृपा दीनन पे कीनी । दीनता के अभिनय पे न किये है । सांचो दीन होय चित् ऐसो उपकार ब्रज रज माई करे [10/24, 20:31] Satyajeet trishit 2: चित् में अपार दैन्य सागर उमड़े । तब हरि कृपा मिले है । कृपा सदा है । पर अनुभूत दैन्य चित् करे । सारा संसार भक्त एक मैं कुटिल कुलाचार ये भाव हृदय से उमड़े । शब्दों से नही । दीनता के सागर में हरि साक्षात् गोता लगाते है । [10/24, 20:51] Satyajeet trishit 2: खाय चोखो भोगे चोखो ऐसन संसार को स्वाद भावे चोखो दीन होनो दीनन ही रहणो है विलास जगत बिसार हरि चित् होनो है [10/24, 20:52] Satyajeet trishit 2: सारा जीवन हम अमिर होने पर लगाते है ।। और गलती से हरि का सफर उल्टा है ।।। क्या कहू ।। आप गुरु जन है [10/24, 20:53] Satyajeet trishit 2: हम दान देने वाले बनते है । हाल किसी दिन ऐसा हो की कोई सिक्का सामने फैक दे तो समझना बन गया काम ।। एक्ट नही । नेचरुल । [10/

भाव वार्ता अंश

युगल सरकार ।।। श्री श्यामाश्याम के मिलन से जो सार उत्प्नन होता है वो प्रेम और करुणा का सम्मिश्रण है । प्रेम करुणा से ही जगत नियोजित है और चलायमान है । वही ऐश्वर्य भाव में कृष्ण और लक्ष्मी का ऐश्वर्य भाव मिले तो प्रद्युम्न उत्प्नन होगा जो की काम का रूप है । चूँकि ये काम विशुद्ध है परन्तु आधार के भेद से काम प्रेम में रूपांतरित न होकर सांसारिक होगा ।।। अतः भाव रखे युगल के लिए । श्री प्रिया जी से मातृ भाव अच्छी बात है । परन्तु वे समानता का ही भाव रखते हुए सखी ही मानती है । और गूढ़ लीलाओ में केवल सखी का ही प्रवेश है । प्रिया जी के लिए पुरुष केवल कृष्ण है । सो साखियॉ ही अब कृष्ण के अतिरिक्त उन्हें छू सकता है तत्सुख सुनि सब राखत है माने कोई नाई ... मैं तो कपटी लम्पट सबन से बडो हूं... कामना भई काम हुयो . प्रेम करनो है लेनो भुलाय दियो ! युगल को सुख देवन की सोचत रह्यो. अपनो सुख भुलावे  से युगल सुख दिखेगो ईश्वर मानि कर प्रेम करत रहे तब तो हाथन से कछु न कछु कह देवे है . बालपन में गुडिया को लाड सांचो कियो सबन ने ..का दी वां ... कछु ना . तब न मांग्यो अब काहे मांगत रहे गुडिया जैसो ला

रा र स सु नि 83

अलं विषयवार्त्तया नरककोटी वीभत्सया वृथाश्रुति कथाश्रमो वत विभेमि कैवल्यत: परेशभजनोन्मदा यदि शुकादय: कि तत: परं तु मम राधिका पद रसे मनो मज्जतु मत विभिन्न है -- अवस्था गहिरता का भी विषय है ! सर्व धर्मान् परितज्य कहना सरल है ... यहाँ एक आस में सब का विन्यास सार्थक है ! परम् रसिक मत है ... परम् गुप्त गोपनिय रसिक रस ग्रन्थ से ... कोटी नरकों जैसी वीभत्स विषय वार्ता तो दूर रही , श्रुति कथा भी मेरे लिए व्यर्थ श्रम है | तुम्हें यह सुनकर आश्चर्य होगा कि मुझे कैवल्य से भी भय लगता है | परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के भजन में उन्मत्त शुकादिक भक्तगण से भी मेरा क्या प्रयोजन ? मैं तो मात्र यही चाहता हूँ कि मेरा मन केवल श्री राधा चरण कमलों के रस में ही मग्न रहे | ( श्री रा. र. सु. नि. ८३ )

मेरे प्राण नाथ श्रीस्यामा

रहौ कोउ काहू मनहि दियै मेरे प्राण नाथ श्रीस्यामा , सपथ करौं तिन छियैं जे अवतार कदंब भजत हैं , धरि दृढ व्रत जु हियैं तेऊ उमगि तजत मर्जादा , वन-विहार रस पियैं खोये रतन फिरत जे घर-घर , कौन काज ऐसै जियैं ( जय श्री ) हित हरिवंश अनत सचु नाहीं , बिनु या रजहि लियैं !! यहाँ श्री राधाजु को प्राण नाथ शपथ पुर्वक घोषित किया गया है !

श्यामाश्याम परिजन परिकर पात्र आदि

श्यामाश्याम परिजन परिकर पात्र आदि  परिचय

भाव

जय राधागोविन्द #माधुर्य-कादम्बिनी# (7). सप्तम्यमृतवृष्टि: (2). भक्तके द्रवीभूत चित्तमें भगवान् के अंगोंका अनुभव:- भावानुवाद:- Part (7.2.1) इस भावके उदित होनेपर जातरति भक्तको व्रजराजनन्दन श्रीकृष्णके अंगोंकी श्यामलता, उनके अधर और नेत्रोंकी अरुणिमा मुखचन्द्रकी म्रदु मुस्कानकी शुभ्रता और उनके वस्त्र भूषण आदिकी पीत छटा आदिका अनुभव होने लगता है। तब उसका कन्ठ अवरुद्ध हो जाता है और नेत्रोंसे विलगित अजस्त्र अश्रुधारा द्वारा अपनेको अभिसिक्त करता है। वह भक्त श्रीकृष्णकी मधुर मुरली ध्वनि, उनके नुपुर आदिकी झंकार ध्वनी, उनके मधुर कंठकी सुरीली वाणी और उनके द्वारा उनके चरणोंकी सेवाका साक्षात् आदेश सुनकर अपनेको चरितार्थ करनेके लिए स्थान-स्थानपर प्रदक्षिणा करता है, मानो उनका अनुसंधानकर उनको ढूंन्ढ़ने लगता है। कभी कान उठाकर, कभी नीचेकर निश्चल होकर खड़ा हो जाता है। इस प्रकार कभी व्रजेन्द्रनन्दनके करकमलोंका स्पर्श कैसा है, उसका मानों अनुभवकर रोमांचित हो उठता है। कभी उनके श्रीअंगको सौरभको सुंघकर प्रफुल्ल नासिका द्वारा क्षण-क्षणमें श्वास लेकर पुलकित होता है। जय राधागोविन्द #माधुर्य-कादम्बिनी# (7).