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मिलते हो कि ... रुलाते हो । कविता

मिलते हो कि ... रुलाते हो
छुते हो या .... सताते हो

दृग तिरछे क्युं करते हो
खंजर पैने चलाते हो

ना देखो , तुम भी छिप कर
ना देखुं , मैं भी तुम्हें पलट कर

हाय ! यें पीर बिन भी ना जीना
हाय ! तुम संग भी सांसों का ना ठहरना

हिवड़ा बिन छुये भी पाये ना चैना
छुवत ही भँवर-हलचल थमे ना

मन तो है लिपट जाऊं
महक से ना घबराऊं ....
बिन पुछे सिमट जाऊं
होवें कुछ भी , आज बिखर जाऊँ
पर हिय बिन भी कैसे पग बढाऊं ...

हृदय तो है लाड़ली पद सेवा में पिया

श्री सेवा तो करने दो पिया
जाओ , इन संग मोहे
ना छेडो पिया
मैं तो दरस की प्यासी
निभृत युगल छवि ही तो चाही

पलक भी ना देखूँ , पिया
अपनी श्री जी पद संग चहकुं ...
लाडिली संग लाल आप सुहाये हो
दासिन को लाड कर मान भी बढ़ाये हो
धन हो मेरी श्यामा का
श्यामा की कुँजी हिय से लगाये हूँ ....
स्यामा संग ही स्याम को चाही हूँ .....
            .....  सत्यजीत तृषित

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