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Showing posts from August, 2019

हरिदासी उत्सव

हमारे श्रीहरिदासी रस में श्रीयुगल नित्य बिहारित है , प्रियाप्रियतम नित्य है और  नव रस में खेल रहे है (निकुँज उपासना) सो उत्सवों को रसिक आचार्य उत्सव अनुगत मनाया जाता है , नित्य रस में ही निकुँज उपासना तक ही रहना वैसे ही है जैसे ऐश्वर्य भार से आराम देकर और विश्राम तथा और भाव-  सुख- श्रृंगार- आदि जुटाते रहना । श्रीयुगल के (निजहिय सुख की उपासना) * श्रीहरिदासी नित्य रस उत्सव * (रसिकाचार्य उत्सव) भाद्रपद शुक्ल अष्टमी (राधा-अष्टमी) * श्रीस्वामीजू का उत्सव * मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी (बिहार पंचमी) (विवाह पंचमी) * श्री विट्ठलविपुलदेव जू * श्रावण शुक्ल तृतीया (हरियाली तीज) * श्रीबिहारिणी देव जू का उत्सव * आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) * सरसदेव जू * ज्येष्ट कृष्ण द्वितीया * श्रीनरहरिदेव जू * माघ शुक्ल पंचमी (बसन्त पंचमी) * श्री रसिकदेव जू * मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी (भैरवाष्टमी)  * श्रीललितकिसोरीदेव जू * माघ कृष्ण एकादशी (षटतिला एकादशी) * श्रीललितमोहिनीदेव जू * भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (जन्माष्टमी) * श्रीपीतांबरदेव जू का उत्सव * कुँजबिहारिणी उत्सव (होरी महोत्सव) फाल्गुन शुक्ल अष्टम

अति प्रचार और अमृत वितरण - तृषित

किसी भी पथ का जब अति प्रचार हो तब ही विकार होता है क्योंकि सभी अनुयायी सम स्थिति पर नही होते । और अनुसरण भंग होकर अपनी अपनी छद्मता उसमें झोंक दी जाती है । मदिरा भी औषधिवत्  ग्राह्य है जब तक औषधी में वह है । औषधी से पृथक् वह विकृति ही प्रकट करती है (औषधी - सिद्धान्त) अमृत भी सभी के लिये नही है । कोई कहे भक्ति पथ भी क्या कालान्तर में अधर्म हो सकते है (पूर्णिमा जैसे गृहण हो जाती वैसे हो सकते है) यहाँ मोहिनी अवतरण देखना चाहिये ।  सुर और असुर स्थिति में सुर स्थिति में ही अमृतपान हो यह  चाह कर मोहिनी अवतरण लेने पर अमृत वितरण स्वयं मोहिनी अवतरण सँग श्रीहरि करें तब भी राहु-केतु अमृतपान करते है जिससे अमृत का असुरत्व में प्रवेश होने से अपभृंश प्रकट होते है । कितनी ही सतर्कता हो राहु केतु अमृतपान करेंगें यह पुरातन तथ्य है तदपि अपनी ओर असुरत्व में अमृत-वितरण नही किया जाता (श्रीहरि-आश्रय से पृथकताओं की माँग ही असुरता है)

भावना भक्ति से निषेध अनुसरण तक - तृषित

जयजय । भावना की ही वन्दना भक्ति है । भावुक ही रसिक भावना की वन्दना कर सकता है । अगर स्वामी जू की छबि निषेध है तब केवल हे नाथ मैं तुझे ना भूलूँ उसे उनके नाम सहित लगाकर भी उन्हें नमस्कार किया जा सकता है । स्वामी जू जानते है कि जीव का सत्य-विस्मरण एक जीवन ही हो गया है । श्रीहरि के प्रति प्रीति हो इसलिये ही श्रीहरि गुण-गान के लिये कोई भावुक करुणावश तैयार होते है सो वह पृथक् अस्तित्व की माँग ना स्वयं में चाहते है ना अपेक्षा करते है कि पृथकता को माना जावें । परन्तु जीव बाह्य इंद्रियों के सँग को छोड नही पाता और इनसे ही रस लेता है जबकि देह तो दाह तक सँग है अगर देह की प्रीति को चिन्तन से दाह कर लिया जावें तब इंद्रिय दिव्य होकर रस ले और दे रही होगी । जीव का तर्क है कि हमने भगवान को नही देखा सो गुणगान करते सन्त को ही वंदन करें जबकि यह इच्छा बाह्य नेत्र को सत्य मानने पर होगी । भगवदीय शक्ति से सिद्ध स्थिति को अभिन्न मानने पर भी जीव कहता है कि  इनमें ही हरि है । यह आचार्य भक्ति (गुरुभक्ति) हुई परन्तु आचार्य की अपनी निष्ठा और भावना का आदर कर उनके सिद्धांत और प्रेम का आदर होने पर उनके द्वारा प्रक

प्रीतिहिंडोरा - तृषित

*प्रीतिहिंडोरा* जब कृपा वर्षण से भरे हृदय पर परस्पर कृपाओं की घर्षण होती है तब कृतज्ञता की वर्षा होती है और क्षण-क्षण बलिहार होकर झूम रहा होता है वही कृतज्ञ लता श्रृंगारित होकर प्रीतिहिंडोरा हो जाती है एक बार श्रीयुगल प्रियालाल को लेकर झूमा हुआ हिंडोरा उनकी मधुता की सुगंध से मुक्त नहीं हो सकता रसाभार से भर रस देने को आकुलित रसीले हिंडोरे के सरस रसालाप नित्य-लय होकर जीवन को ही हिंडोरावत झूलता हुआ दर्शन करते है । बलिहार होते श्रृंगारों की बलिहार होती उल्लसित रसवर्षिणी झाँकियाँ। तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।