भजन की नित्यता
सभी पूज्य धर्म परायण भगवत् जन को नमन । अपितु लघु मति होने से शब्दहीन होना ही उचित है , परन्तु हृदय से रहा नहीँ जा रहा । जैसा कहा गया है तेल की धारावत् सुमिरण हो नित्य , अनन्य । वहाँ मृत्यु एक गाँठ हो जिसे भी पार कर भजन अनवरत् बहता रहे । अपितु मृत्यु के क्षण तक भजन की बात कही जाती है , प्रयास तो यें होना है कि भजन होता रहे मृत्यु योग गुजर जाएं आभास ही ना हो । इस अवस्था से उस अवस्था तक अनवरत रहे । मृत्यु के क्षण ही भजन की पूर्णता विचारने से अंतस् कहीँ भजन का विराम खोजता रहता है । अपितु भगवत् अनुराग पूर्ण श्रद्धा से है , कृपा मयी अनुभूतियाँ है तो अंत समय ही नहीँ किसी समय वैसा ही जाल बूनते रहना है । यहाँ भीतर की दबी आस तो है , हम निष्काम होना चाहे पर हुआ ना जा सकेगा जब तक आत्मा अपने परामात्मा से एकत्व को सदेह रहते प्राप्त ना हो जाये । मन के भागने का विकल्प जब तक ही है , जब तक आत्म भाव सो रहा है । आत्मा से जीवन जीने पर मन विराम पाता है और देहाध्यास भी छुट जाता है । आत्मा भी जब परमात्मा को भेंट हो गई तो शेष जो भी है , वहाँ परमात्मा ही साक्ष्य , प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष है । और इस स्थिति में काम बन जाते है । वस्तुतः बन चुके ही होते है । भजन को केवल मृत्यु के क्षण तक ना विचारना है , अपितु मृत्यु को उलाँघ कर भी राम राम होना चाहिए । रस तभी ही है । और यहाँ अगर आत्मा को देह त्याग की स्मृति भी ना रहे तब मुक्ति है । वरन् भजन होगा परन्तु अपने देह के त्याग से चित् उससे हटेगा नहीँ , समस्त क्रियाएँ होगी देह को मिटाने कि ताकि आत्मा अपनी देह की आसक्ति हटा सके । जबरन के प्रयास में आत्मा फिर बन्धन में पड ही जायेगी । भजन आत्मा की व्याकुलता हो जाये , देह से निकलने में भाव यें ही हो कि मृत्यु की यें अवस्था शीघ्र हटे और भजन में बाधा ना हो ।
भजन द्वारा किसी भी पारलौकिक प्राप्ति की अपेक्षा आत्मा भजन को ही समस्त प्राप्तियों का फल जब तक ना मानेगी तब तक निःस्वार्थ प्रवृत्ति नहीँ होगी । और आवश्यकता से किया भजन विराम चाहेगा । वैसे ही जैसे कुछ देर पहले क्षुधित और फिर कुछ पा कर तृप्ति की घोषणा करती है । यहाँ देह को आवश्यकता थी , अनिवार्यता नहीँ , जैसे श्वांस जिससे श्वसन तन्त्र कभी थकन महसूस नहीँ करता , ना ही तृप्त होने की घोषणा । अतः भजन - साधना प्राणों से भी प्रिय हो जाएं । तनिक भी अन्य संकल्प अथवा विकल्प आत्मा तक पहुँचे तो पथ बाधित होगा । समस्त प्राप्तियों को केवल बटोही के लिए मध्य में आने वाले छायादार वृक्ष मान अपने भजन संग आगे बढ़ जाया जाये । भजनान्दी मृत्यु के समय तीव्र भजन ना भी करें तो कारगर ही है । बस भजन जैसा होता है होता जाएं । अपने पुराने वस्त्रों से मोह न रख अब आत्मा नग्नता से झिझके नहीँ । वरन् आत्मा को आवरण का सदियोँ का अभ्यास है । देह त्याग होते ही व्याकुल हो उठती है , मुक्ति भूल जाती है । असहज अनुभूत् करती है , जैसे आज देह बिना वस्त्र करता है वैसे ही । यहाँ भजन हुआ आत्मा के प्राण बन तो वह अन्य किसी चाह और आवरण की भावना ना करेंगी । नित्य भगवत् सुमिरन की तृषा सजीव हो इस आस में "तृषित" हो सकता है , कुछ असहज कह दिया हो , अबोध बालक की तोतलेपन की तरह क्षमा की चाह बिना भी मुस्कुरा कर भजन की नित्यता का आशिष दे दीजिये । जय जय सन्त चरण रज ।
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