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Showing posts from October, 2017

शुद्ध प्रेमविलास मूर्ति श्रीराधा , मृदुला जु

*शुद्ध प्रेमविलास मूर्ति श्रीराधा * समस्त लोकों के समस्त प्रेम भावों से अतीत है श्री ब्रजपरिकरों का निरुपाधिक प्रेम । निरुपाधिक अर्थात् उपाधि रहित । ऐसो प्रेम जिसे न किसी रूप की न गुणादि के आश्रय की अवलंबन की कोई आवश्यकता है । प्रेम स्वयं परम समर्थ है । बाह्य रूप-सौंदर्य-गुण आदि कारणों से उदित होने वाला भाव प्रेम कदापि नहीं है । निरुपाधिक प्रेम न कारण से उत्पन्न होता है न कारण नष्ट होने पर समाप्त होता है। वरन यह तो प्रतिक्षण वर्धमान है । रूप गुण आदि प्रेम के हेतु नहीं वरन प्रेम इनका हेतु होता है । प्रेम ही प्रेमास्पद में अपार गुण रूप दर्शन कराता है ।समस्त ब्रज परिकरों के हृदय इसी निरुपाधि प्रेम से आप्लावित हैं । परंतु श्रीगोपांगनाओं का प्रेम इस निरुपाधि प्रेम की भी अति उच्च अवस्था है । क्योंकि इनके प्रेम में माधुर्य भाव की मधुर सुगंध सुवासित है । माधुर्य का तो आधार ही संपूर्ण समर्पण है इसी कारण इनका प्रेम संपूर्णता से संपूर्ण सेवा का साधन हो जाता है । इन समस्त कांताभावमयी श्री गोपांगनाओं की मुकुटमणि सिरमौर परम उद्गम आधार स्वरूपा परम आराध्या परम आदर्शतम प्रेम पयोधि श्री श्री नित्यनिकुं

नववया किशोरी नव्याजु , संगिनी जु

*नववया किशोरी नव्याजु* नववया ...  और खिल गई वह ... अभी पूर्ण ... न ... नहीं , पूर्ण नहीं सम्पूर्ण सुधार्णव सौंदर्या थी । पर , प्रेम नित्य वर्द्धन ... श्रृंगार - रूप - कौमार्य - लावण्य सब गहरा हो रहा । ... जैसे प्रियारूप सुधा तृषित प्रियतम कभी इस सम्पूर्ण भावसार निधि को पी नहीँ पायेंगे ... !! नित्य बढ़ता प्रेमसागर !! काव्य मात्र कल्पना नहीं ,  प्रेम- रूप-भाव की सुधा श्रीप्यारी जु गहरा रही । जो देखा उन्हें वह यह ... यह अभी ... न अभी.. अभी जो वह हुई , वह ... वह सौंदर्य ना देखा । नव्या .. नई हो रही उन्हें देखा कैसे जावें । काल-माया से परे वह बढ़ती सुगन्ध... गहराती कोमलांगी... बहती हुई । ... खिलती हुई कुमुदिनी को ही हम ना समेट सकें नयनों में तब श्रीप्रियाजु ...वह प्रेम की नितनव खिलती फुलवारी । झर रही हमारी यहाँ कोमलता-सरलता , झर रहा काल-देह ... हम जीवन की नवीनता को नित्य खो रहें , सौन्दर्य-वयता-लावण्यता सब मुरझाने पर ... !! ... निखर रही वह , ... खिलती नव-नव ... नव । नवनिकुंज मंदिर , सखियों के युगल पदराग सटे झुके नयन.. मणिजटित चौकी पर सुशोभित युगल चरण...  जगमगाती मणियों की प्रभा लजा गईं ...

श्रीप्रिया चरण , मृदुला जु

श्रीप्रिया चरण श्रीप्रिया चरण श्रीप्रिया चरण आह ! सदा सर्वथा मम् उर मंडल में वासित मेरी प्रिया के कोमल पल्लव । मेरे जीवन सार का सार ये श्रीचरण । कौन से कहुँ या की महिमा कौन से कहुँ क्या हैं ये कृष्ण के लिये । ईश्वरत्व के समस्त आवरणों से परे पहुँच जो मोहे जाने केवल वही समझ पावे कि इस कृष्ण के लिये क्या हैं ये पादपल्लव । रससार माधुर्यसार सौंदर्यसार लावण्यनिधी अतुलित कांतिसंयुत्त कोटि चंद्रमणियों को विनिन्दित करने वाली नखप्रभा आभामय अरुणचन्द्र की चंद्रिका सा पादतल जिनकी अरुणिमा मेरे समस्त माधुर्य का उद्गम है .......क्या केवल यहीं हैं मेरे लिये मेरी प्रिया के श्रीचरण ! न ....। कोई पिपासु हो मेरी हृदय तृषा का तो उतरे वहाँ इन श्रीचरणों का महात्मय मेरे हृदय से । मेरे ऐश्वर्य की गंध भी शेष न रहे चित्त में तब ही पाइयेगा इस प्रेमतृषित कृष्ण की हृदय अभिलाषा के सीकर को अन्यथा मेरी भुवनमोहिनी माया तत्पर ही है आप जैसे बुद्ध पुरुषों की निष्ठा को क्षणार्ध भर में दिग्भ्रमित करने हेतु । मेरी श्रीप्रिया के पादारविन्द आह! मेरी कोटि जन्मों की साधना का सुफल हैं ये पद्मपल्लव । हाँ मेरी साधना प्रेम साधना जि

प्यारे के नयन , मृदुला जु

प्यारे के नयन कब तक है यह मन जब तक इसे स्थिर रस ना मिले । यह वास्तविक सौंदर्य से ना टकरा जावें , दृष्टि बन भागता यह मन बहुत भागे तो टकरा जाता .. हर लिया जाता प्यारे के नयनों से ... आह ! प्यारे के प्यारे दो नयन रतनारे अरुणारे कजरारे मतवाले दो नयन । ... सच्चे तृषित यह नयन ।  दो नयन प्रतीक्षारत से उस वीथिका पर मानो जुड ही गये पथ की रज से जिस पथ पर श्रीभानुलली पधारने वालीं हैं । कोई देखो तो इन दो प्यारे नयनों को ... ना , ना देखो ... बहुत गहरे है यह फिर इनसे बाहर कुछ देखने को होगा ही नहीं । चिर प्रतिक्षित ... ! क्या वाणी में भरी जा सकती है इनकी यह प्रतीक्षा - पिपासा - पिपासा के सुधार्णव निधि यहीं रस-स्रोत हमारे ...। प्रेम-अभिलाषाओं के सिंधु से गहराते । आकांक्षा-अभिलाषा-कामना- पिपासा-प्रतीक्षा कितने लघु हैं ये समस्त शब्द इन नयनों के भाव समक्ष ... फूलों की मोहब्बत , फूल समझे । कोमल-मृदुल-रसोल्लास से छलकते कभी दैन्य से द्रवित होते कितने व्याकुल होकर भी परम गंभीर-इनकी मधुर सुरभियाँ... । ये दो नयन हैं प्यारे के या इनका हृदय ही यहाँ बैठा इन रूपों में श्रीप्रिया पथ की बाट जोह रहा है ... प्रियतम

प्रेमाणु , मृदुला जु

प्रेमाणु प्रेम  वास्तव में स्वयं में ही होता है   । पर तत्व में संभव ही नहीं । पर की प्रतीती भ्रम उपस्थित करती है । हौं भ्रम मान लाख भागने को चाहूँ पर स्व से कैसे भागूँ । कोई जाने या ना जाने कोई समझे चाहें जो भी प्रेम कण जिस भी हृदय में होवे वह परम अभिन्न ही रहेगा नित्य । दो हृदय में एक वस्तु है तो एक ही रहेगी सदा ।जैसे ज्ञान ज्ञान में ही ,बोध बोध में ही रमता है , वैसे ही प्रेम प्रेम में ही रमता है , रहता है। एक तत्व में द्वेत असंभव चाहे करे कोटि उपाय । मुझे नहीं पता कि यहाँ की बात उस वाणी से निसृत हो रही या वहाँ की बात यहाँ प्रकट है । पर केवल वह बात परम सत्य है अखंड सत्य है जिसे दो हृदय अनुभव कर रहे । दो का एक अनुभव ही उन्हें अभिन्न करता है । जिस प्रकार ब्रह्म का ज्ञान जीव हृदय में प्रकट होने पर ब्रह्म से एकत्व करा देता है । प्रेम भी प्रियतम से और जिस हृदय में प्रकट होता अभिन्न करा देता । प्रत्येक तत्व केवल स्वयं में ही प्रतिष्ठित रहता नित्य । प्रेम सदा प्रेम में ही रहता है । संपूर्ण चराचर में जिस हृदय में भी भगवदीय प्रेम अणु प्रकट है वे समस्त हृदय पूर्व में ही परम अभिन्न हैं । किसी

सोहनी महिमा

---------------*सोहनी महिमा*------------                  ।।दोहा।। रे मन नवल निकुंज की, सुमिर सोहनी प्रात। लपटी प्यारी चरण रज, लसत सहचरी हाथ ।।१।। अहो सोहनी सोहनी, यह मति मौको देहु। अति अधीनता दीनता, पद रज सों नित नेहु।।२।। तो समान कब सहचरी, मोहू कौ अपनाय। नव निकुंज रति माधुरी, प्राप्त सुनावैें गाय।।३।। विरमि -विरमि हा सोहनी, देखि प्रिया पद अंक। प्रियतम मन अटक्यो जहां,मेटत तिन्हैं निसंक।।४।। श्री प्यारी पद रैनुं में, उमगत लोटत लाल। कोमल कर चुटकीनु लै, तिलक बनावत भाल।।५।। कण-कण में जा रेणु के, बसत लाल के प्रान। हाय सोहनी ताहि यों , साधारण मत मान।।६।। अहो सोहनी सोहनी , यह न सोहनी रीति। मो प्राणन की प्राण रज, ता संग करत अनीति।।७।। कण -कण पै वारौं यहाँ, कोटिन तन-मन-प्रान। सो रज दूर न डार तू, नेकु निहारौ मान।।८।। अवसि झारि जो डारिबौ, यह रज प्राण अधार। तौ मो तन-मन-प्राण में, हिय में, जिय में डार।।९।। कोटि विश्व ऐश्वर्य सुख, नहिं जु एक कण तूल। सो रज तोकौं खेल है,मेरी जीवन मूल।।१०।। हरि-हर विधि ललकत रहत, लहत नहीं कण एक। ताहि झारि यौ फैंकिवौ, तुम्हें कौन यह टेक।।११।। इतन

श्रीप्रिया-तृषा , श्रीमृदुला जु

श्रीप्रिया-तृषा श्रीकृष्ण रसराज संपूर्ण चराचर समस्त जीव सत्ता के लिये परंतु तृषित हैं केवल श्री राधिका के समक्ष । जिनके भी लिये श्री कृष्ण इंद्रियगम्य होतें हैं मात्र रस रूप ही रसराज रूप ही सेवन करतीं समस्त इंद्रियाँ । परंतु श्री प्रिया मात्र ही तृषित हैं श्रीकृष्ण तृषा की । श्री श्यामा भी तृषित हैं श्री श्याम भी और जीव भी । परंतु सबकी तृषा भिन्न भिन्न । जीव तृषित रस का श्री श्याम तृषित प्रेम सार के और प्रेम सार स्वरूप श्री श्यामा तृषित श्रीश्यामसुंदर की तृषा की । श्री प्रिया के नेत्र प्रत्येक इंद्रिय इंद्रिय ही नहीं वरन रोम रोम तृषित श्री प्रियतम तृषा के । उनका रोम रोम पान करता मात्र श्री कृष्ण हृदय की अनन्त अगाध अपार तृषा का । रसपान नहीं तृषा पान । जीव पान करता है रस का सो रसराज हैं वे परंतु श्रीश्यामा पान करती हैं कामना करतीं हैं तृषित हैं प्यारे की हृदय तृषा की । आह ! प्यारे मोहे अपना हृदय पिला दो । अपना मन मोहे दे दो जीवन निधी मेरे । सर्वस्व मेरे ! तुम्हारा मन मोहे दे दो । तुम्हारे हृदय की एक एक वृति मुझमें भर दो प्राणपुष्प मेरे । क्यों ! हाँ प्यारे तोरा मन मो में होगा तभी तो तु