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अहेतु की कृपा से हटते पट

अहेतु की करुणा --
पट इनका सूत्र ही है ऐसा लगता है । लगता है इन्हे अपने सौंदर्य से भय है , सो तरह तरह के पर्दे बना डाले , अविद्या-माया । सन्देह , अहम् काम आदि विकार , कई तरह के पट (पर्दे) । फिर मन्दिर में भी कई पट में छिपे सरकार । और सब पट हट जाएं , सामने ही हो , तब यूँ ही अविरलता देखने का कैसे तैसे उन्माद जगे कि फिर एक पर्दा , नेत्रों की यें पलकें ।
सामने हो , एक क्षण छोड़ते न बने तब भी अपने ही तन की पलकें दुखदाई हो जाती है ।
गोपियां कह उठती है यें पलकों की सृष्टि करने वाले विधाता सरस नहीं है , कठोर है । इतनी क्रूरता प्रेमियों के प्रति उन्होंने कैसे कर दी । इतनी भीष्ण वेदना होती है इन पलकों से । तुम्हें पर्दें बनाये रखने ही भीतर मन , और बाहर पलकें , अब सामने हो तो पलकों का क्या काम ? कृपा कर इन्हें उखाड़ ही दो ना , नित्य संयोग की आतुर भिखारिन हूँ । अविरल - अनन्य दर्शन करने है । ......... या तो पलकें ले लो । या फिर नेत्र ही लें लो ।
यहाँ भगवान की अपार करुणा भी देखिये । एक पुस्तक में एक वर्तमान का उदाहरण मिला , जिसे जब भी सामने पाता हूँ , ऐसी पिपासा को विचार .... अपना सब झूठा सा सिद्ध हो ही जाता है । प्यास क्या है यें साक्षात् उदाहरण है । जिस समय यें लेख सामने आया भीतर उनसे यें ही शिकायतें थी , कि पलकें कष्ट देने लगी है । आपके समक्ष तो कम से कम थिर हो जाएं । आप भी देखिएगा । यें लेख करीब 8 वर्ष पहले प्रकाशित हुआ ।
...... जयपुर की एक गृहणी है , वह बाल्यकाल से श्री गोविन्ददेव जी के दर्शन करने मन्दिर में जाती है । इस समय उनकी आयु 60 वर्ष की है । (पुस्तक का प्रकाशन 2008 का है , 60+8 = 68 वर्ष , अब उनके होने पर हो सकता है ) वह मानसी सेवा करती है । श्री राधगोविंददेव जी उनकी मानसिक सेवा स्वीकार करते है । दोनों का वार्तालाप होता है । श्री राधाकृष्ण विरह में ख़ूब रोती है ।
श्रीराधागोविंददेवजी उसके हृदय में आकर बैठ गए है । वह उनकी मुख माधुरी का आस्वादन करती रहती है , अपनी प्रेम भरी आँखों से । " इसलिए उसकी आँखों की पलकें स्थिर हो गई है । अर्थात् आँखों ने पलक मारना बन्द कर दिया है । सोते समय , दिन में या रात में आँखें खुली ही रहती है ।
....... अब बताईये क्या कहा जाएं , प्रीत साँची हो तो कोई भी बाधा नहीँ । नित्य योग है । कोई आक्षेप ही नहीँ । उलाहना हम दे देते है । भीतर का उन्माद नहीँ तलाशते , हमें हमारी प्रीत सच्ची लगती है , और उनकी ही ओर से बाधा समझते है । जबकि प्रीत उनकी ही सत्य है , कैसी भी प्राप्तियाँ हो , स्थितियां हो उसमें इनकी ही साँची प्रीत है । जीव को छदम् का इतना अभ्यास हो गया है कि आभास भी नहीँ करता कि उसमें कितना सत्य है और सामने कितना ?
आज बहुत से हृदय व्याकुल है , अच्छी बात है । कृपा उनकी । कोई सामर्थ्य नहीँ जो उन तक लें जाएं बस उनकी करुणा , उनकी कृपा । पर प्रेम है तो कैसे उन्हें ही नित्य दोष दें हम वहीँ स्तुतियाँ करें , हाँ उन्हें भाता होगा , पर उनके जो है .... उन्हें पीड़ा होती है । किसी भी तरह की बाधा है तो जीव की ओर से , उनकी ओर से नहीँ , उनका ही प्रेम सत्य है ।
हम सत्य भाषी और वें असत्य हो , असम्भव । सत् ही तो वें नित्य ही है । समझिये उन्हें , शास्त्र से नहीँ तो दिल से ही सही । हाँ खिजना-मनाना हो , उन्हें कह लें प्रेम में जो भी दिल हो , प्रेम रस में । परन्तु चित् में स्पष्ट हो , कि हम मलिन-पापात्मा दोषी है , प्रेम उनका ही सत्य है । और प्रेममय प्रभु कुछ भी कर गुजरते है , अपनी दीनता को सत्यता से समझ इतना माना जाएं उनकी प्रीत कितनी अनुपम है , और अपनी नहीँ उनकी प्रीत को अनुभूत् किया जाएं तो अहा .... और क्या कहा जाएं , सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

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