Skip to main content

Posts

Showing posts from August, 2017

वेणु माधुरी भाव नोट्स 1

वेणु मूलतः श्रीप्रिया का श्रंगार है वह श्यामसुन्दर को सखियों द्वारा मिला है । हित सखी है राधा किंकरी । निभृत स्थिति में प्रत्येक श्रंगार कंकरियां सुरक्षित रखती है । भगवान शिव के ध्यान में श्री यूगल का उत्कर्ष मंजरित्व प्रकट है । अतः दिव्याभूषण का रक्षण वह ही करते है । मंजरी रूप । श्रीप्रिया वेणु से अति विभोरित है क्योंकि वह उन्हें श्यामसुन्दर की अन्तः वासी प्रिया जानती है । श्याम सुंदर वेणु से अति प्रेम करते है क्योंकि वह श्रीप्रिया की सौरभता और माधुर्यता में ही डूबी हुई रहती है । वस्तुतः वेणु ऐसा ही रहस्य है । वह युगल के प्रेम की उपासिका है । हित परस्पर । तृषित । समस्त भावों की सुधा श्रीप्रिया है अतः किंकरी , मंजरी , सहचरी भाव की मूल धरा भी वही है । यह भाव सम्पूर्णता से उनमें सदा है । कोई भाव श्रीप्रिया सुधा से भिन्न हो ही नहीँ सकता । तृषित

रज रानी , मृदुला जु

रज रानी कहाँ सहेजुं तुम्हें प्यारे प्राणधन श्यामसुन्दर ॥ कितने कोमल हो तुम जीवन के जीवनधन सर्वस्व ॥ क्या इस सृष्टि में कुछ भी है ऐसा जिससे तुम्हें स्पर्श कर सकुं ॥ तुम्हें देख ऐसा लगता कि कुछ भी नहीं मेरे पास जो तुम्हें छू सके ॥कितनी पीडा होती है अपनी अक्षमता पर हृदयधन ॥ चाहें जो कर लिया जावे पर क्या कभी वह प्राप्त हो सकता जो तुम्हारी कोमलता को स्पर्श करने की पात्रता रखता हो ॥ जिस प्रकार नवजात शिशु को स्पर्श करने में भी भय लगता कि तनिक सा कष्ट ना होवे उसे पर फिर भी सहेजना तो है ही उसे तो कितना प्रयास किया जाता कोमल से कोमल वस्त्र आदि में लपेट परम सुकुमारता से अंक में सहेजा जाता , हृदय से लगाने में भी सावधानी रखी जाती , तो जो ऐसे  नवजात शिशु से भी अनन्त गुणा कोमल है उसे कहाँ रखें ॥ शिशु की कोमलता स्वभाविक होती ही है परंतु ममत्व से और अधिक बढ जाती है ॥ किसी पर के लिये संभवतः वह उतना अमुल्य न हो जितना अपने माता पिता के लिये होता है स्वजनों के लिये होता है ॥ इसी प्रकार संसार के लिये शायद तुम ईश्वर हो भगवान हो पर हमारे लिये तो हृदय  को परम कोमल पुष्प हो जिसे सहेजें को प्राण भी कठोर प्रतीत

श्री राधा श्रृंगार , मृदुला जु

श्री राधा श्रृंगार श्री राधिका जू का श्रृंगार करें हम , प्यारी जू का श्रृंगार बनें हम ॥कितना सुंदर भाव है ॥ पर वस्तुतः श्री किशोरी का श्रृंगार है क्या , क्या भाव है क्या सेवा है क्या समर्पण है क्या आत्मनिवेदन है वास्तव में यह श्रृंगार ॥ श्री प्यारी का श्रृंगार सेवा की चरम पराकाष्ठा है ॥ प्रेम के समस्त स्तरों को पार कर प्रेमी जब श्री राधिका की कृपा से उन्हीं के दिव्य प्रेम भावों को धारण करने की पात्रता पा लेता है तब यह सेवा भाव उदय होते हैं हृदय में ॥उदय होतें हैं हृदय में ये कथन इस प्राकृत जगत में समझने के लिये कहा गया है अन्यथा यह भाव ही स्वरूप हो जाता है प्रेमी का ॥ अर्थात् उसमें ये भाव नहीं वरन वही भाव स्वरूप हो जाता है ॥ यही तो भावदेह से सेवा का स्वरूप भी है ॥ पूर्ण आत्मसमर्पण हैं ये सेवा भाव ।। न केवल समर्पण की महान भावना वरन प्रियतम सुख की परम तृष्णा ही साकार रूप हैं ये ॥ श्री किशोरी के दिव्य श्रृंगार वास्तव में प्रियतम सुख की दिव्य लालसायें ही तो हैं जो दिव्य प्रेम की साकार मूर्ति स्वरूपा श्री निकुंज रस मूर्तियों द्वारा प्रिया प्रियतम सुखार्थ ही नित्य आत्मनिवेदित की जातीं हैं ॥

चाह , मृदुला जु

चाह युगल प्रेम युगल प्रीति युगल सेवा ॥ हम तो चाहें बस युगल सेवा ॥क्या है वास्तव में युगल सेवा ॥ सामान्यतः श्री राधामाधव को एक स्त्री पुरुष मान उनकी सेवा को ही युगल सेवा समझा जा रहा है ॥ युगल सेवा कृष्ण प्रेम की अतयंत उच्च अवस्था है ॥ हमारे प्यारे युगल कोई नर नारी नहीं हैं वरन उनका स्वरूप क्या है संबंध क्या है परस्पर से यह बिना कृष्ण प्रेम प्राप्त हुये अर्थात श्री राधिका की कृपा बिना उजागर होता ही नहीं ॥ उससे पूर्व उनके संबंध में जो भी कल्पनायें की जातीं हैं वे केवल कल्पनायें ही मात्र होतीं हैं ॥ श्रीकृष्ण सहज आकर्षण हैं प्राणी मात्र का ॥ सो उनकी तरफ आत्मा का खिंचाव निश्चित और परम कल्याणकारी है ॥ जीव मात्र अनन्त काल से उन्हीं के अनुसंधान में पृवृत्त है चाहें इसे समझे या नहीं ॥ इन्हीं श्रीकृष्ण के प्रति जब ये खिचाव इतना प्रबल हो जाता है कि माया के समस्त संबध, चाहें वे स्वयं से होवें या अन्यों से टूट जाते हैं तब वे प्रेमस्वरूप स्व का दान करते हैं ॥ उनका स्व क्या .....॥ उनका स्व हैं श्री राधा .....श्री राधा अर्थात् कृष्णप्रेम ॥ बात बहुत सूक्ष्म है ॥ उनके स्व को पा कर ही उन्हें जाना जा सकत

विशेषता , मृदुला जु

आकर्षण का प्रथम कारण विशेषता ही होती है ॥ हमारे युगल संपूर्ण विशेषताओं का सार तथा मूल उद्गम हैं ॥ सो रस के प्रति रूप के प्रति गुणों के प्रति हृदय की पिपासा ही उन तक ले आती जीव को क्योंकि जीव का स्वरूप ही प्यास है आनन्द की ॥ उस रूप रस के गहन होती पिपासा को ही जीव हृदय में अनुभव करने लगता उत्तरोत्तर ॥ जितनी प्यास उतना ही वे प्राप्त भी होते ॥ जीव अपनी इस प्यास को ही प्रेम जानता है ॥ जितनी गहन प्यास उतना ही अधिक प्रेम मानता स्वयं में ॥ वास्तव में यह प्यास ही विशुद्ध प्रेम की भूमिका है ॥ विशुद्ध प्रेम जीव का स्व भाव या स्व वृत्ति है ही नहीं ॥प्यास ही स्वरूप है उसका ॥ और इस स्व भाव के कारण वह केवल ले ही सकता है रस सिंधु से ॥ परंतु वे परम प्रेम सार विग्रह इसे ही प्रेम स्वीकार कर लेते हैं जीव का ॥ जीव उनके रूप , रस का रसास्वादन कर सुखी होता रहे यह उन्हें सुख देता है क्योंकि प्रेम का स्वरूप ही तत्सुख है ॥ इसी कारण भक्ति को सर्वोपरि माना गया है क्योंकि भक्त भगवान् के आनन्द का उपभोग कर पाता है और अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें सुख दे पाता है ॥ परंतु जीव की सीमा है आनन्द उपभोग की सो वह प्यारे को सीमारहि

शांत भाव भजनाष्टक , मृदुला जु

शांत भाव अनन्त काल से जीव माया मोहित होकर श्री भगवान् से विमुख है ॥ कहीं किसी जन्म में कोई पुण्य उदय होने पर तथा किन्हीं भगवद् जन की कृपा दृष्टि प्राप्त होने पर ही विमुख जीव श्री भगवान् के सन्मुख होता है ॥सन्मुख होने का अर्थ है कि माया के पीछे न भागकर वरन भगवद् मिलन की सहज चाह का उदय होना है ॥ इसी चाह के हृदय में उदित होने पर सहज ही भक्ति महारानी का हृदय में प्रवेश हो जाता है क्योंकि भगवान् तो स्वयं ही सदा से अपने से विरहित जीव की प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ भक्ति के उदित होने पर श्री भगवान् से संबंध का भान होता है ॥ सर्वप्रथम जिस भाव संबंध का हृदय में अनुभव होता है वह है शांत भाव ॥ शांत भाव समस्त संबंधों का आधारभूत भाव है ॥ यह अत्यंत महत्वपूर्ण भाव है क्योंकि यही भूमिका है समस्त संबधों की ॥ इसी भाव में मनुष्य को अपने जीव स्वरूप का बोध होता है । इससे पूर्व तो वह स्वयं को देह ही मानता जानता है ॥यही वह प्रथम सोपान है जहाँ स्वयं को अँश तथा श्री भगवान् को अंशी स्वरूप जानता है ॥यहाँ श्रीभगवान् के प्रति सहज आकर्षण जगता है जो अंश का अपने अँशी के प्रति स्वभाविक खिचाव है ॥ भगवद् नाम में ,रूप में ,ल

शांत भाव भजनाष्टक , मृदुला जु

शांत भाव अनन्त काल से जीव माया मोहित होकर श्री भगवान् से विमुख है ॥ कहीं किसी जन्म में कोई पुण्य उदय होने पर तथा किन्हीं भगवद् जन की कृपा दृष्टि प्राप्त होने पर ही विमुख जीव श्री भगवान् के सन्मुख होता है ॥सन्मुख होने का अर्थ है कि माया के पीछे न भागकर वरन भगवद् मिलन की सहज चाह का उदय होना है ॥ इसी चाह के हृदय में उदित होने पर सहज ही भक्ति महारानी का हृदय में प्रवेश हो जाता है क्योंकि भगवान् तो स्वयं ही सदा से अपने से विरहित जीव की प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ भक्ति के उदित होने पर श्री भगवान् से संबंध का भान होता है ॥ सर्वप्रथम जिस भाव संबंध का हृदय में अनुभव होता है वह है शांत भाव ॥ शांत भाव समस्त संबंधों का आधारभूत भाव है ॥ यह अत्यंत महत्वपूर्ण भाव है क्योंकि यही भूमिका है समस्त संबधों की ॥ इसी भाव में मनुष्य को अपने जीव स्वरूप का बोध होता है । इससे पूर्व तो वह स्वयं को देह ही मानता जानता है ॥यही वह प्रथम सोपान है जहाँ स्वयं को अँश तथा श्री भगवान् को अंशी स्वरूप जानता है ॥यहाँ श्रीभगवान् के प्रति सहज आकर्षण जगता है जो अंश का अपने अँशी के प्रति स्वभाविक खिचाव है ॥ भगवद् नाम में ,रूप में ,ल