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Showing posts from June, 2016

श्यामसुंदर पीताम्बर ओढ़े नीलाम्बर श्यामा प्यारी जू , तृषित

श्यामसुंदर पीताम्बर ओढ़े नीलाम्बर श्यामा प्यारी जू सखी जाए के चरण छुए चूमे दोऊन के पद कमल जी धोए के फिर चरणामृत खुद पर उंडेले करे नित प्रेम स्नान री अखियां खोले देखे मुख छवि होवे फिर बलिहार जी सुमन चढ़ाए कोमल चरणों में करे अर्पण चंदन सुगंधित सिंदूर कुमकुम जी हो नतमस्तक फिर धरे फल फूल मेवे मिष्ठान भोग प्रसाद जी सेवा कुंज निकुंज में करे जो भी हो लग्न साथ री अंगना बुहारे चंवर डुरावे सखियन संग रहे चित्तचोर के द्वार जी पाए सखी जो श्यामाश्याम पद सेवा होवे खुद बलिहार जी अश्रुजल बिन्दु सजा पलकों पर अधरों से करे प्रेम पुकार जी नित्य सेवा में नित्य मिलन की ले लेती है नित्य आशीर्वाद  सेवा प्रसादी जी करे निहोरा श्यामसुंदर से ज़रा हाथ बटावो सजावो राधे दुलारी को प्रिय तुम बिन ना कोई प्रिया जु को श्रृंगार कभी पूरा हो निहार निहार दोऊन को फिर नीर आँखों में भर जावै री छवि को भर कर नैनों में मन मंदिर में सजावे री उसी युगल की छवि को पूजते सगरे काज संवारे जी हुई जब संध्या वेला तब अश्रुजल से विरहन पग धुलाती जी जुटाकर प्रेम से खिलाकर तुच्छ भोग अपने मलिन हाथों से फिर मांगे माफी जोड़

निकुँज गिलहरी भाग 22

भाग-22 श्री प्रियतम ने जब श्री राधा जी को अंक में ले लिया तो उस समय के आनन्द का क्या बखान करूँ।मानो चन्द्रमा का जो प्रकाश हो वो सब चन्द्रमा में ही सिमट कर चन्द्र-प्रकाश एक ही में समा रहा हो।श्री नवल युगल के बीच में प्रेम-रस ऐसा बढ़ा है कि धीरे से लज्जा संकोच कहीं विदा हो गए हैं। दोनों के मुख पर सहज मुस्कान है और वे बातचीत रस के कुशल रचनाकार हैं।दोनों बात करते करते एक दूसरे में खोते चले जा रहे हैं और अब तक श्यामा जु भी शर्म का घुंघट हटा कर श्याम जु के आनंद रस में पुर्णत: घुल ही गईं हैं।नीलमणि नीलवर्ण श्रीकृष्ण ने श्रीराधे को अपनी चंचलता में पूरी तरह से भिगो दिया है और अब उनकी स्वीकृति से वे राधे जु की अंगकांति का एक एक रसकण अपने अधरों से पान कर रहे हैं।श्रीश्यामा जु भी सर्वसमर्पित श्रीश्याम जु के रसान्नद को बढ़ाते हुए उनसे नेह कर रही हैं।वे दोनों ऐसे एक दूसरे में डूबे हैं कि चाँदनी भी शर्मा कर खुद को रात्रि के अंधियारे में छुपा लेती है और इनके मधुर मिलन की वेला में पवन भी ऐसी शांत है कि इनके मध्य अपना स्थान ना पाकर वहाँ से प्रस्थान कर चुकी है।इनकी श्वासों का अंतर भी मिट चुका है कि ये नव

गोपाल'संग'कजरी गाय भाग -5

गोपाल'संग'कजरी गाय-5 कजरी को जैसे ही मईया स्पर्श करतीं हैं तो वो आज पहली बार सिहर जाती है क्योंकि उसे आज मईया की उंगलियों के स्पर्श में श्यामा जु के स्पर्श का एहसास हो रहा है।राधे जु की कोमल व मखमली हाथों का स्पर्श पाते ही कजरी कुछ समय के लिए शांत तो हो ही जाती है और साथ ही कोमलांगी की कोमल छुअन के लिए स्थिर भी ताकि श्यामा जु को उसे दुहने में कोई परेशानी ना हो।पर नटखट श्यामसुंदर सब समझ पा रहे हैं और स्थिति का फायदा उठा कजरी की पीठ पर चढ़ बैठते हैं और उसे गुदगुदाना आरम्भ कर देते हैं।अब कजरी क्या करे?वो जरा सा हिलती है और फिर से स्थिर हो जाती है।फिर कन्हैया नीचे उतरकर कजरी की पूंछ से खेलने लगते हैं पर अब कजरी नहीं हिलती पर मईया कान्हा को वहाँ से भगा देती हैं कि काहे तंग करे है लल्ला तू कजरी को।वाको कोई दूजो कार्य ना है पर मोकू बहुत हैं।देर मत करवा अब और।यापे दूध धरयो है और याके बाबा को भी ग्वालों संग मथुरा जानो है।चल जा तू।कान्हा वहाँ से चले जाते हैं और कजरी अभी भी मईया को राधा ही समझ रही है। वन विहार के लिए जाती कजरी को हर कहीं प्रिया जु ही नज़र आ रहीं हैं।उस पर प्रियाप्रियतम

गोपाल'संग'कजरी गाय भाग-4

गोपाल'संग'कजरी गाय-4 वंशी बजाते श्याम कजरी के संग नंदभवन तो पहुँच जाते हैं लेकिन कजरी अभी भी गहरे भावावेश में ही है।पूरी राह वो श्यामसुंदर के दिव्य पर धूल धूसरित व श्यामा जु के भव्य दर्शन का आनंद उठाती मदमाती सी चलती रही और खूंटी से बंधी हुई उसी दिव्य आवेश में ही गुम है।दिन ढला शाम हुई कि अचानक ही कजरी ने रम्भाना आरम्भ कर दिया। कान्हा मईया यशोदा के पास बैठे मईया को अपनी प्यारी चिकनी चुपड़ी बातों से रिझा रहे हैं।राधे जु के बारे में बतियाते वो इठला रहे हैं।जब से किशोर अवस्था में कदम पड़े हैं तब से माँ ने शायद ही कभी कोई दूसरी वार्ताा सुनी होगी कन्हैया के मुख से।नहीं तो पहले कभी कबार बालसखाओं की या गोपियों की शिकायत भी कर ही लिया करते थे लल्ला।पर अब कुछ और सूझता ही नहीं है लाडली के सिवाए।सखियों की शिकायत तो चाहे करें कभी से कि वो राधा और कान्हा के मिलने में घड़ी घड़ी अपनी मनुहार करवाती हैं और अब सब सखागण जान से प्यारे हो गए हैं क्योंकि वो हमेशा कन्हैया का ही पक्ष लेते हैं राधे की सखियों के समक्ष।पर अब मईया भी क्या करे।जानती हैं लल्ला का भी इसमें क्या कसूर।सारा दोष तो बाली उमरीया का

बेबस सी ऑंखें ढूंढ रही है तुमको.. संगिनी

बेबस सी ऑंखें ढूंढ रही है तुमको.. काश कि इस दुनिया में तुम ही तुम होते.. हरी बोल जाने कब ये अश्कों से भीगी रात जाए जाने कब होंठों से तेरी बात जाए जाने कब बन जाए वजह तू मेरे जीने की जाने कब भीगती हुई ये बरसात जाए जाने कब आगोश में भरोगे मुझे जाने कब इश्क़ तुम करोगे मुझे जाने कब दिल को मेरे करार आए जाने कब पतझड़ जाए और बहार आए जाने कब तू ही तू बस रह जाए जाने कब लहू बन मुझमें ही बह जाए जाने कब वो मुरादों वाली रात आए जाने कब दिल में मेरे ऐसे जज्बात आएं

बाहर बरसात सावन की , संगिनी

बाहर बरसात सावन की भीतर है आग विरह की बरस कर भड़का रहा कोई प्यास मिलन की नहीं है दूर पर कोई नहीं पास भी राधे बैठीं हैं तन्हा है उनको कान्हा का इंतजार भी ना जाने कहाँ खोई सी किस अतीत की यादों में अनवरत रोई सी मोहन हैं पास पर पहचान रहीं नहीं रो रो कर है बात कर रहीं उस रोज़ श्याम रूठे थे सावन आया पर वो ना आए अभी प्यासे दृग अभी छलके नहीं और रूंधे कंठ ने ठीक से पुकारा नहीं सावन है बरस रहा या बरस रही राधे की रूस्वाई ही क्षमा करो प्रिय मान भी जाओ आ जाओ पास मेरे यूँ ना तड़पाओ माना हूं लायक नहीं बहुत दिल दुखाती हूँ किसी काम की नहीं फिर भी पाकर तुम्हें इतराती हूं सखियन संग बतिया कर खुद को नालायक ही पाती हूँ है नहीं खास मुझमें कुछ फिर भी मेरे मोहन कह कह करके खुद अभिमान बढ़ाती हूँ तुम खुश रहो जैसे प्रिय वैसी भी ना हो पाऊं तुम्हारी चाहत के काबिल नहीं फिर भी ना दूर रह पाऊं महोब्बत क्या है ये जानूं ना तुम करते हो बेहद ये भी ना सोच पाऊं श्याम चुप खड़े सब सुन रहे ना जाने कैसे सब जर रहे पलकों में अपनी अश्रुजल व राधे के दर्द को ही भर रहे थाम लेते कभी वो कभ

सुबह की किरण बोली उठ देख क्या नजारा है , संगिनी

सुबह की किरण बोली उठ देख क्या नजारा है मैने कहा रूक पहले दर्शन करलू मेरे श्याम का जो सुबह से भी प्यारा है जय श्री श्याम हाँ पता है साँवरिया.... हमें तुम्हारे ये इतराने का राज़.... तुम्हारे चाहने वाले तुम्हारी शान में इतने कशीदे जो पढते हैं..... ज़ख्म नहीं सजदे कहो दिल के दिल को फरमान कहो रूह तक लफ्ज ही जाते गर महसूस आंसु दिल से होते तो जिस्म से होते हुए तिनके भी महसूस तड़प के होते इश्क हुआ ही नहीं ना होगा ये कभी ना आरजू जगेगी चाहत है महबूब ही है सच्चा आशिक वही ना अपनी कोई जुस्तजू होगी कभी आसां ना करना इश्क को जब चाहत ही ना गमगीन होगी फुर्सत मिलेगी ना इश्क में जब महोब्बत ही इबादत से होगी इश्क की गली में तुफां उठते हैं यहां दिल वाले ही सौदे किया करते हैं दर्द से होते हैं नाते रूह के और अश्क भी रूह से पिया करते हैं महोब्बत को यूँ भुलाया नहीं जाता गर हो सच्चा इश्क तो याद दिलाया नहीं जाता गल्तफहमी में भी निभ ही जाता है याद करने वाले को इश्क कह कर जताया नहीं जाता गिन कर महोब्बत के शिकवे नहीं होते याद करने के भी फलसफे नहीं होते इश्क में याद कुछ रहता ही नहीं

सखी नृत्यांगना नित्य प्रति प्रियतम के द्वार , एक युगल संगिनी

सखी नृत्यांगना नित्य प्रति प्रियतम के द्वार रिझाने मनाने जाती सखा को नव किशोरी राधे के संग सखी भाव निभाती वो गजरे बिंदिया पायल से किशोरी को सजाती देख सुंदर सलोनी को खुद को भूल जाती वो प्रेम करती वो सांवरे से हार तिलक अर्पण कर दिल में लजाती वो चूम कर कदम युगल के निकुंज सेवा में लग कर आनंद नेह से मदमाती वो कभी राधे तो कभी मोहन का वेश धर कर सखियों संग प्रेम बढ़ाती प्रिया मेरी स्वामिनी प्रियतम में मोहन को पाती करती नादानियां गुस्ताख सखी कहाती वो पड़कर अनूठे प्रेम में वजूद खोकर अपना नम आँखों से मुस्काती रूह उसकी तरसती पल पल सांवरे के रंग राची श्याम धुन सुनते ही वो बिन घुंघरू थिरक कर घूम झूम कर इतराती छवि बसाकर नयनों में श्याम की आँखों ही आँखों में नेह लगाती मूक अधरों से बिन छुए ही मदमस्त प्याले रस के पीकर मदहोश होकर राधे के चरणों में गिर कर मधुर स्नेह दान पा जाती देख युगल को प्रसन्न समक्ष आँखों में आनंद भर कर हृदय में ले उनको छुपाती सुषुप्त पड़ी वो ना जाने मिलन हुआ या बिछड़ गई अश्रुजल से जग कर भीग वो जाती विशुद्ध प्रीत करती वो खुद ही प्रेमी प्रेमास्प