Skip to main content

राधा और त्रिगुण

श्री राधा गुणातीता है ... सो शब्दातीता भी |
शब्द के गुण और दोष होते है
सो राधा आद्यशक्ति का निर्गुणात्मक स्वरुप है |
वेदातीता भी , विद्वान की पकड़ से बाहर है । प्रेम
निवर्चनीय स्थिति है , वहाँ शब्द जाल नहीँ । क्योंकि
प्रेम में एक ही है और जो है वो वही है जिनसे आपको प्रेम है ।
अग़र मैं कौन हूँ ? क्या करता हूँ और क्यों हूँ ? आदि प्रश्न
के उत्तर उससे चाहे जाएं तो उसे स्वयं को अनुभूत् करना होगा ।
जबकि प्रेम में केवल प्रियतम् की स्मृति है । स्व की कोई धारणा
नहीँ । राधा जु से कृष्ण चर्चा सहज है , क्योंकि उन्हें ही वह सर्व
भाँती जी रही है । परन्तु अपनी चर्चा उनसे परम् स्तर पर नहीँ होगी ।
प्रेम आपको दूध में शक्कर की तरह घोल देता है । और अब यें तो
कहा जा सकता है कि दूध मीठा हो चूका है  , परन्तु शक्कर को
देखा नहीँ जा सकता । अतः शक्कर का अनुभव है दूध की
मिठास में । परन्तु केवल शक्कर और केवल दूध उतने सरस
नहीँ , मिलन होगा तो रसास्वादन बढ़ेगा । प्रेम और राधा
निर्गुण स्वरूप है , जहाँ अनुभव , अनुभूति से समझने पर
सामान्य तौर पर मौन स्थिति हो जाती है । कहने को कुछ नहीँ
रहता । कारण निर्गुणता , शब्दों से स्वयं को संतुष्ठी नहीँ होती ।
शब्द अधिक से अधिक सतो गुण तक कह जाएंगे , निर्गुण
स्वरूप को तो अनुभूत् ही किया जा सकेगा । निर्गुण यानि
सत् रज तम् से भी ऊपर की अकथनिय स्थितियाँ ।
राधा उपासको में भी निर्गुण भाव होना जरुरी है |
ना कोई आसक्ति , ना विकार ,
सात्विकता तक की स्थिति मिल जाती है निर्गुणता नहीं | सतो गुणी नहीं है
राधा जी ... हाँ निर्गुणात्मक प्रेम की साक्षात्
विग्रहा है | सो केवल सात्विक वृति से राधा पद
अनुराग ना होगा | आपके मुंह में तामसिक
जर्दा हो ... मुख से सात्विक भी नहीं निर्गुण
राधा हो तो राधाभाव आप समझे नहीं |
तामस छुटे ना तो तंत्रशक्तियों को ध्याया
जा सकता है | राधा केवल कहने का नहीं जीने का
विषय है | प्रकृति के महाकरुणत्व और प्रेम
का साकार स्वरुप है राधा |
बिन करुणा प्रकृति असहज है ,
करुणा हटा दि जाये तो उत्पत्ति
कैसे होगी | पुरुष से अप्राकृत महा मिलन
के उपरान्त प्रकृति में
घटी करुणा को जीवंत देखे |
माँ में करुणा होती है अपनी सृष्टि
हेतु ... राधानुरागियों में हंगामा होना भी असहज सा है ...
उन्हें भीतर राधा तत्व को सजीव कर 
कृष्ण सुख का ही अंगीकार
करना आना चाहिये | जहाँ आनन्द की भी
कामना हो वहाँ सत गुण ही
होगा ... निर्गुण नहीं | राधा का अनुसरण
और दर्शन अलग विषय है |
राधा जु तो लीलाओं में अपने सुख
को चाह ही नहीं रही | ... कृष्ण सुख केवल |
यहीं भाव प्रेमियों में हो जीवन भर ...
आत्मा का राधात्व कर करुणा में बह कर
केवल कृष्ण-सुख | अर्थात् ईश्वर सुख
यहाँ आप सुख भी अनुभुत किये तो वो आपका
हुआ | कृष्ण हेतु फल आसक्ति का त्याग |
निकुंज में युगल राधाकृष्ण निर्गुण भाव से ही है ...
कार्य ,क्रिया ,उपादान राधा जी के भाव नहीं वहाँ
सब हो कर नहीं हो रहा ... केवल ब्रह्म माधुर्य रस  ले रहे है |
ब्रह्म के रस में ही अगर राधा हँसी हो तो राधा हँसेगी
पर केवल कृष्ण हेतु | अपने हेतु नहीं | यहीं करुणा है ...
करुणा आपको ईश्वर से जोडती है ... उनकी कामना ,
उनकी चाह क्या है ? करुणा से आपको ज्ञात हो जायेगी |
वहाँ लेश मात्र आपका सुख नहीं होगा |
प्रेमियों में केवल करुणा हो ... महा करुणा |
न राग और ना द्वेष ही | परन्तु राधा सब कहते है समझते
नहीं ... । यें उनकी ही कृपा से सहज है ।
जब तक राधा समझ आने लगती है ,
बडी देर हो जाती है | राधा को समझने से पहले
सत रज तम को समझे फिर त्रिगुणों से ऊपर उठ
जायें ... सात्विकता से भी वही राधा है ...
सोने की ,लोहे की ,चांदी की जंजीर हो | जंजीर
बंधन ही है ... धातुओं में ना उलझे ... मुक्त होना
फिर ब्रह्म यानी कृष्ण सुख को जीवंत करना ही
राधा है | भौतिक दुखडे कहने के लिये बहुत द्वार
है यहाँ आत्मा को सजीव कर प्रकृति के मर्म को
समझ ब्रह्म की सिद्धि का निर्वहन मात्र करना है | जिसका हेतु मात्र है , प्रेम ।
प्रकृति में ध्यान लगायें गुणातीत तत्व समझ आयेगा
फिर राधा पद चरण में समर्पित हो जायें ...

त्रिगुणात्म शक्ति
सत् रज तम | नाम से हम परिचित ही है
पर रहस्य से नहीं ...
सत रज तम स्वरुप हमारे उद्देश्य निवृति
हेतु ही होता है ... वरन् ईश्वर निर्गुणात्मक
ही पुर्ण है |
अपने सुख हेतु दूसरे की भावना का मर्दन यें तमोगुण
है । आज धर्म इस हेतु बहुत होता है । जहाँ अपनी
कार्य सिद्धि और किसी का अहित हो । येन केन प्रकारेण
अपनी भावना और कार्य की सिद्धि , तम् गुण है ।
महाकाली स्वरूप तामसिक है हमारे रक्षण को |
तामसिक विकारों के लिये महाकाली की
शरण आवश्यक है | तामसिक विकार ना
हो यें सहज नहीं | शरीर में ही सत रज तम
व्याप्त है | अहंकार - द्वेष - क्रोध तमोगुणी है |
शरीर की विष्टा तमोगुणी है ... तम विकार को
तामस से ही निवृति मिलती है | आप सात्विक
हो सकते है कह सकते है तमोगुण स्वरुप को नमन
ना ही करुं परन्तु निर्विकल्प आद्यशक्ति जिसका
मूल स्वरुप निराकार प्रकृति ही है वह तामसिक हुई
है तो जगत्-हेतु | संहार हेतु | माँ अपनी ही सन्तान
का संहार करें , सहज सम्भव नहीं | माँ को तामसिक होना ही होगा |
विकार और दैत्य भी उन्हीं की सृष्टी है ...
जैसे  शरीर की विष्टा और मन में
विकार जिसके त्याग के लिये तमस
होना ही होता है | सो भेद मिटा दें ... 
जैसे किसी माँ का अपने ही पुत्र का पर दण्ड
स्वरुप हाथ उठाने में जो शक्ति
निहित है , उसका ही भीष्म रुप काली है |
काली भक्त क्रोधी हो सकते है पर यहाँ
तो राधा भक्त भी क्रोधी मिलते है | वहाँ
बोध ना होना ही भाव है ... वो व्यक्ति
तामसिक ही है |

लौकिक और भौतिक सुख राजस गुण , रजो गुण में आते है ।
काम , कामना । यहाँ परहित नहीँ स्व हित की भावना होती है ।
महालक्ष्मी राजसिक शक्ति है हमारे प्रसार विस्तार को |
जब तक शरीर में विष्टा है तमोगुण है | जब तक
रक्त है रजोगुण है | यही रजोगुण शुद्ध होकर विर्य
होगा | जब तक कामना है काम है चाह है संकल्प है
रजोत्मक ही वृति है सात्विक नहीं | यहाँ महामाया
महालक्ष्मी का ही स्वरुप है वहीं भक्ति स्वरुपा है |
प्रसारण- व्याप्त का जो भी कार्य है इनका है |
माँ बनने पर अपने ही शरीर में पुत्र के लिये
पोषण की व्यवस्था यानी दुध में लक्ष्मी शक्ति निहित
है | प्रकृति भी स्वयं को पोषित कर जीवन हेतु पोषण
तैयार करती है | भौतिकता का निर्वहन यहीं से होता है |
रक्त की उपादयत्ता जितनी है वही रज गुण की | रक्त बिन
रहा जा सकता तो रजोगुण बिन भी ...

सात्विक
पारलौकिक सुख की चाह सत् गुण के निहित है । इस चाह से
भी ऊपर उठ राधा भाव अनुभूत् किया जा सकता है ।
यहाँ स्व हित के संग पर हित की चाह पारलौकिक वांछा हेतु होती है ।
महा सरस्वति सात्विक शक्ति है | सात्विकता  , धर्म-परायणता ,
नैतिकता , सतो गुण है | भक्ति सात्विकता से ही शुरु होती है |
ज्ञान और कला भी सात्विकता से ही तमो गुण तक या निर्गुण तक
जाती है | विद्या तत्व सत गुण के निहित है | संतों में महापुरुषों में
सतगुण प्रधानता होती ही है ...
केवल कृपा से ही सत गुण निर्गुण हो सकता है |

सीता माँ लक्ष्मी स्वरुप है पर सात्विक और निर्गुण दोनों है |
नील सरस्वति और महाविद्यायें - सत रज तम तीनों के अनुरुप
प्रभावी होती है |
किसी भी स्वरुप में आप आरधना करें आराध्या की
परन्तु समता का भाव हो ... श्रेष्ठता का नहीं |
आद्यशक्ति का कोई भी स्वरुप हो | है प्रकृति हेतु |
जीवन हेतु | राधा प्रेमियों में सद्भाव ना हो और
तांत्रिक में हो तो वो तांत्रिक ही श्रेष्ठ है | अत: वैचारिक
बंधे नहीं खुलें | नमन करने मात्र से आपका प्रेम नहीं चला
जाता | वरन् आप अन्यत्र प्रेम के हेतु विकारों से सुरक्षा का
आवरण चाह सकते है ... राधा स्वयं विनम्र की पराकाष्ठा से
परे है |
स्वामी विवेकानन्द से सौम्य काली भक्त हुये है |
राधा प्रेमियों सजीव सौम्यता आवश्यक है | तीनों गुणों का
जीवंत छुट जाना ही राधा का हो पाना है | प्रेम निर्गुण है ,
वहाँ स्व सुख नहीँ , पर और परम् का ही सुख है । किसी
कार्य से स्व सुख हो भी तो उसका त्याग है । जो भी किया
जाए पर और परम् हेतु स्व की धारणा रहती ही नहीँ , यहीँ
से भक्ति जीवन में आती है और परम् स्थितियों में राधामहाभाव ।
तब राधा अनुगत होना कहा जा सकता है ।
चाह रही तो तीन में से कोई एक पथ है आपका , राधा के पथ में
चाह है ही नहीं | सत्यजीत "तृषित" !!! विस्तार से कभी आपके प्रत्यक्ष मिलन होने पर !!!

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात