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भक्ति और भक्त्याभास - 2

भक्ति और भक्त्याभास - 2

जय जय श्यामाश्याम । आज कल कर्ममिश्रा, ज्ञानमिश्रा, योगमिश्रा आदि मिश्राभक्ति नाना दूषित और नए कल्पित मतों के समूह महामारी कीटाणुओं की भाँती यत्र तत्र व्याप्त हो रहे है । इससे हम लगभग सभी ही दूषित और मिश्रित कुमतों को ही भक्ति समझकर यहीँ तक रह जाते है और शुद्ध भक्ति से वंचित रह जाते हैं । किन्हीं स्व घोषित विद्वान ने कहा कि आज कल भक्ति का फैशन है , ज्ञान को कम माना जाने लगा है । ज्ञान का उनके चित् में क्या स्वरूप है पता नहीँ , परन्तु ऐसे लोग गुरु , आचार्य रूप में भी है और अनुसरण भी किया जाने लगता है । भक्ति और प्रेम कोई फैशन नहीँ , अपितु सभी मार्गों से एक समय तो भक्ति की धारा पर आना ही है , ना आया जाये तो प्राप्त लोक-परलोक सञ्चित कर्म पुरे होने पर पुनः मृत्यु लोक तक छोड़ जाते है । अन्य मार्गी से कोई बाधा नहीँ , विषय है कि हम क्या शुद्ध पथ पर है या मिश्रित । भक्ति के पुत्र ज्ञान वैराग्य कहे गए है । भगवत् चरण , श्री जी चरण को भी ज्ञान विज्ञान कहा गया है । भक्ति के बिना विशुद्ध पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वैराग्य जीवन में आना अचरज ही है । ज्ञान उतरता है , पूर्ण भक्ति होने पर , सञ्चित ज्ञान में विभिन्न धारणाएं है , मत है । वास्तविक ज्ञान भीतर स्वतः स्फूर्त होता है । परन्तु भक्त पूर्ण विशुद्ध ज्ञान का प्रदर्शन ना कर , अपने अनुराग में निरन्तर रहते है ।

शुद्धा भक्ति का लक्षण रूप गोस्वामी जी 'श्री भक्ति रसामृत-सिंधु' में कहते है --
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञान-कर्मादिनवृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनम् भक्तिरुत्तमा ।

उत्तमा भक्ति यहाँ आया अर्थात् भक्तिरूपी लता जिस समय पूर्ण शुद्ध और निर्मल अवस्था में हो तब उसे 'उत्तमा भक्ति' कहते हैं । जैसे जल में दूसरा रंग , गन्ध , द्रव्य ना हो । अतः उत्तमा भक्ति से निर्मल, अमिश्र, केवला और अकिंचना भक्ति का बोध होता है ।
'आनुकूल्यमय कृष्णनुशीलन' अनुशीलन शब्द के दो अर्थ है -
1 प्रवृति निवृत्तिस्वरूप शरीर , मन और वाणी को चेष्टा रूप अनुशीलन ।
2 प्रीति-विष्यात्मक मानस भावरूप अनुशीलन ।
दो हो कर भी एक ही भाव है अनुशीलन का । मानस भाव अनुशीलन का चेष्टा अनुशीलन में मिलन हो जाता है ।
शरीर, मन और वाणी की चेष्टाएं भगवान के लिए अनुकूलन होने पर ही भक्ति नाम धारण करती है । कंस और शिशुपाल भी कृष्ण के प्रति सदा -सर्वदा तन-मन और वाणी से चेष्टा करते है । मारीच की राम के लिए भय के कारण तीव्र अनन्यता है , सर्वत्र राम  दर्शन हो रहे है और 'र' से शुरू सभी शब्द सुन राम ही सुनाई दे रहा है और भय बढ़ रहा है । अनन्यता तो आवश्यक है , यहाँ स्मरण तो है किन्तु यहाँ प्रतिकुलता है , अनुकूलता नहीँ । स्मरण होने से मोक्ष सुलभ भी है , फिर भी भक्ति यहाँ नहीँ ।
अतः अनुकूलन हो , अनुग्रह हो । प्रतिकूलता से भी प्राप्ति है , परन्तु इसे भक्ति नहीँ कहते । अतः सेवा-प्रेम भाव ही भगवान के प्रति हो -
भज इत्येष वै धातुः सेवायाम् परिकीर्तितः ।
तस्मात् सेवा बुधै: प्रोक्ता भक्तिः साधन-भूयसी ।।
अतः सेवा ही भक्ति का स्वरूप लक्षण है ।
ब्रह्मतत्व, परमात्मतत्व और भगवतत्त्व में भगवत् तत्व ही भक्ति का विषय है । ......... क्रमशः । सत्यजीत "तृषित" जय जय श्यामाश्याम ।

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