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राधा कृष्ण का परस्पर प्रेम

हमलोगों ने यह समझ रखा है कि जैसे हमलोगों में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीराधामें सम्बन्ध है; पर ऐसी बात नहीं है| श्रीकृष्ण और श्रीराधा का जो प्रेम है, वह एक विलक्षण तत्व है| इसमें भी श्रीराधा प्रेम-तत्व है| जिस तरह लोभी मनुष्य के सामने एक तो होता है धन और एक होता है ढंकी तरफ खिंचाव; धन प्रिय लगता है, धनमें खिंचाव होता है और इसको लोभ कहते हैं; इसी तरह एक तो हैं भगवान् और एक है भगवानकी तरफ खिंचाव| भगवान् में जो खिंचाव है वह राधा-तत्व है और जिसमें वह खिंचाव होता है , वह श्रीकृष्ण-तत्व है| लोभ में तो केवल मनुष्य का ही धनमें खिंचाव होता है, धनका मनुष्य में खिंचाव नहीं होता| परन्तु प्रेममें भगवान् श्रीकृष्णका श्रीराधाजीमें और श्रीराधाजीका भगवान् श्रीकृष्णमें परस्पर खिंचाव होता है|
सामान्य स्त्री-पुरुष का जो खिंचाव होता है, उसमें और श्रीराधाकृष्णके खिंचावमें बड़ा अंतर है| स्त्री-पुरुष्का खिंचाव तो अपने सुखके लिए होता है पर श्रीराधाजीका और भगवान् श्रीकृष्णका खिंचाव एक-दूसरेको सुख देने के लिए होता है, निज सुख के लिए
नहीं| जहाँ निज सुख का भाव होता है. वहाँ राग होता है, कामना होती है, जो फँसानेवाली है|
थोड़े अंशमें यह बात ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे माँका बालकमें खिंचाव होता है और बालकका माँमें खिंचाव होता है| बालक तो अपने लिए ही माँ को चाहता है; क्योंकि वह समझता ही नहीं कि माँ का हित किसमें है| परन्तु माँ केवल अपने लिए ही बालक को नहीं चाहती, वह बालकका हित भी चाहती है| परन्तु ऐसा होनेपर भी माँ कि ऐसी इच्छा रहती है कि बालक बड़ा हो जाएगा तो उसका ब्याह करूँगी, बहु आएगी, सेवा करेगी, पोता होगा इत्यादि| ऐसी उसके भीतर भविष्य के सुख कि आशा रहती है, चाहे वह इस बात को अभी स्पष्ट जाने य न जाने| परन्तु भगवान् और श्रीजी में ऐसा भाव नहीं रहता कि भविष्यमें सुख होगा| उनको तो एक-दूसरेको सुखी देखनेमात्रसे सुख होता है| अब उस सुख को कैसे बतायें? संसारमें ऐसा कोई सुख है ही नहीं| संसारमें हमर जो आकर्षण होता है, वह आकर्षण शुद्ध नहीं है, पवित्र नहीं है; क्योंकि वह अपने सुखके लिए, अपने स्वारथके लिए होता है|

किसी भूखे आदमी का अन्न में खींचाव होता है तो इसमें दो बातें होती हैं - एक तो वह भोजन करेगा तो वह भोजन के पदार्थों का नाश करेगा और दूसरे, वह भोजन के अधीन होगा अर्थात परतंत्र होगा; कारण कि वह भोजन कि जरूरत मानेगा, और मनुष्य जिसकी जरूरत मानता है उसकी परतंत्रता हो ही जाती है| धन चाहते हैं तो धन कि परतंत्रता, कुटुम्ब चाहते हैं तो कुटुम्ब की परतंत्रता, शरीर रखना चाहते हैं तो शरीर की परतंत्रता हो जाती है| चाहनेवाला स्वयं तुच्छ हो जाता है, और जिसको चाहता है, उसको बड़ा मान लेता है| संसार को बड़ा मानकर उसका तो पतन करता है और स्वयं उसका गुलाम बन जाता है और अपना पतन कर लेता है|
भगवान् और श्रीजी के सम्बन्ध में उपर्युक्त दोनों ही बातें नहीं है| श्रीजी भगवान् की तरफ खींचती है, जिससे भगवान् को आनंद हो और भगवान् श्रीजी के तरफ खींचते है जिससे श्रीजी को आनंद हो| एक-दूसरेके प्रति ऐसा भाव होने से एक-एकका प्रेम बढ़ता है| जहाँ सुख लेने की इच्छा होती है वहां वैसा प्रेम हो ही नहीं सकता| प्रेम उसे कहते हैं, जो बढ़ता ही रहे, जिसमे मिलने की उत्कंठा बढती ही रहे| श्यामसुंदर और श्रीजी सदा मिले ही रहते हैं पर ऐसा लगता है कि मानो कभी मिले ही नहीं, आज ही नया मिलन हुआ है --
'अरबरात मिलिबे को निसिदिन, मिलेई रहत मनु कबहुँ मिले न |'

भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही दो रूप से हो गए - अपने आधे अंग से श्रीजी बन गए और आधे अंग से श्रीकृष्ण बन गए| इस प्रकार एक भगवान् ही दोनों रूप बने हैं| वे पहले भी एक हैं और पीछे भी एक है; केवल प्रेम का आदान-प्रदान करनेके लिए और दूसरोंको प्रेम का आस्वादन करानेके लिए ही वे दो रूप बने हैं| दो रूप बनकर एक-दूसरेको सुख देनेके लिए एक-एककी तरफ खींचते हैं| वह सुख कैसा है? 'प्रतिक्षणवर्धमानम' प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है| सांसारिक सुख का भोग होता है, वह कभी एकरूप नहीं रहता, घटता ही रहता है और घटते-घटते सर्वथा मिट जाता है| संसार का कोई भी सुख हो, कहीं भी हो, जिस किसी में हमारी रूचि होती है, हम सुख लेते हैं तो सुख की इच्छा प्रबल होती है, फिर कम हो जाती है| उसका सेवन करते-करते फिर सुख की इच्छा नहीं रहती| इतना ही नहीं उस सुख से ग्लानी हो जाती है| पर भगवान् का सुख ऐसा विलक्षण है कि वह निरंतर बढ़ता ही रहता है, उसकी कभी तृप्ति नहीं होती|
संसार का सुख प्रतिक्षण नष्ट होता है पर श्रीजी और भगवान् श्रीकृष्ण का प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है| वह किस रीति से बढ़ता है? इस रीतिसे बढ़ता है की मिले रहते हुए भी मानो कभी मिले ही नहीं| जिसको अत्यन्त भूख होती है, उसको अन्न न मिलनेमें एक उत्कंठा रहती है की अन्न मिल जाय| लोभी व्यक्ति को धन न मिले तो धन मिल जाए - ऐसा एक खींचाव होता है और धन मिलनेपर खिंचाव कम हो जाता है| परन्तु जब श्रीजी और भगवान् श्रीकृष्णका मिलन होता है तो मिलन होनेपर भी खिंचाव बढ़ता रहता है|

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