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राधा शरण दास जी , जिन पर लाडिली जी की कृपा

जिस पर श्रीकिशोरीजी की कृपा हो जाये; उसके लिये अब जगत के आकर्षण कहाँ? अब इन नेत्रों में जो भी सौन्दर्य-बोध है, वह उन्हीं को सब में तदरुप देखने में ही है। देह-बुद्धि न रही। कौन स्त्री, कौन पुरुष? कैसा दैहिक साउन्दर्य? कैसी भूल कि पैकिंग के कारण पृथक मान लिया। देह मुख्य कहाँ, मुख्य तो है आत्मा ! और आत्मा न स्त्री, न पुरुष। अपनी देह के प्रभु-प्रदत्त सौन्दर्य और ज्ञान का यदि हम जगत को भरमाने के लिये प्रयोग कर रहे हैं तो इससे अधिक पतन की बात क्या हो सकती है? हम उन्हें श्रीहरि की ओर ले चलने का दिखावा करते-करते अपने से जोड़ लेते हैं और अनुयायियों के लिये तो यह स्वाभाविक ही है।
संत सदैव कहते हैं कि मुझ से न जुड़ो, श्रीहरि से जुड़ो ! वेश यदि वेश तक ही सीमित रहा तो कैसे कल्याण हो? यह वेश, तिलक-छाप, माला यदि भीतर गहरे तक न उतरी तो क्या लाभ? जो वेश है, चित्त भी वैसा हो जाये। यह चिंतन/ यही प्रार्थना कि हे प्रियाजू ! हे नाथ ! आपके भक्त मुझे इस वेश के कारण जो समझते हैं, हे श्यामा-श्याम ! वास्तव में मुझे वह हो जाने में सहायता करो; अन्यथा यह कपट रुपी पाप ही मेरे पतन के लिये पर्याप्त है। माला द्वारा नाम-जप का ऐसा अभ्यास हो जाये कि यह भी कर में रहे न रहे किन्तु प्रत्येक श्वाँस के साथ-साथ तुम्हारा नाम अंतर में चले। और एक समय ऐसा आवे कि यह प्रतीक रहें वा न रहें किन्तु मैं तुम्हारा हो जाऊँ। इस वेश की मर्यादा का पालन कर सकूँ; मुझे इस योग्य बनने की क्षमता प्रदान कीजिये। यश, मान-प्रतिष्ठा और आपकी माया के अन्य रुप मुझे न लुभावें। मुझे तो एक ही चिंतन लुभावे कि यह दास पड़ा है अपनी स्वामिनी-स्वामी के श्रीचरणों में। इन श्रीचरणों के अतिरिक्त कहीं कोई आश्रय नहीं। कोई कामना नहीं। जिसे आपका आश्रय मिल जाये; वह और कोई कामना करे भी तो क्या? रसराज ! रस !! पिपासु/तृषित दास !!!
जय जय श्री राधे !

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