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Showing posts from September, 2017

श्यामा जु के श्रृंगार में श्यामासुन्दर का माधुर्य , भाग 2 , संगिनी जु

मधुर मधुर नर्म कर कमलों से सखी प्रिया जु का श्रृंगार कर रही है और उस श्रृंगार में छुपे माधुर्य का रहस्य जो प्रिया जु ही जानतीं हैं वह प्रियतम श्यामसुंदर ही हैं। अधरों और नयनों के श्रृंगार से प्रिया जु के समक्ष श्यामसुंदर जु की प्रेमभरी चंचल मुस्कान और चपल शरारत झलक जाती है।उनके गौरवदन पर प्यासे अधरों की थिरकन और चंचल नयनों की देखन ऐसे दौड़ती है कि प्रिया जु मंद हंसती हुईं जैसे ही कंठ से खिलखिलाती सी हंसी की मंद ध्वनि को रोकने का प्रयास करतीं हैं तो उनकी दृष्टि श्यामसुंदर जु की अति माधुर्यमयी नयनों की चाल से उनकी बोलन पर जाती है जो और भी अधिक मधुर है।वो बोलन जो प्रिया जु को अति कर्णप्रिय है और प्रिय श्यामसुंदर जु का पीताम्बर और वसन उनके नयनों के समक्ष झलकता उड़ता उन्हें मोहित करने लगता है। श्यामा जु आरसी में अपने रूप लावण्य को नहीं अपितु स्वयं से अभिन्न श्यामसुंदर जु के माधुर्य को निहार रहीं हैं और उनकी मधुर चितवन प्रिय की अद्भुत मनमोहक त्रिभंगी मुद्रा से सहज लटकन मटकन और उनके पल पल  भ्रम में डाल देने वाले हाव भावों पर पड़ती है जहाँ उनके स्वयं के रूप श्रृंगार में भरेपुरे श्यामसुंदर ही दृ

श्यामा जु के श्रृंगार में श्यामसुंदर जु का माधुर्य , संगिनी जु

श्यामा जु के श्रृंगार में श्यामसुंदर जु का माधुर्य प्रकृति आज अप्राकृतिक श्रृंगार करने बैठी है.....कैसा श्रृंगार और कहाँ....  अद्भुत अभिन्न युगल प्रेम की अद्भुत अभिनव अभिव्यक्ति। अहा !!आसान नहीं पर एक प्रयास मात्र ..... सखी.....प्रकृति जो केवल प्रकृति नहीं है .....प्रियतमा है प्रेमिका है रस है माधुर्य रूप रव लावण्य संगीत रागिनी ....सब सब कुछ जो श्रृंगार रूपवान नितनव दुल्हिन करती है अपने प्रियतम के लिए।ऐसा अद्भुत श्रृंगार जो केवल और केवल प्रेम में सम्भव होता है जहाँ अप्राकृतिक श्रृंगार की पूर्ण सामग्री भी प्राकृतिक नहीं सजनी। आ देखें ...कैसा है यह श्रृंगार प्रकृति का सखी.... अति ही सुंदर पुष्पों से सुसज्जित एक आरसी जिसमें नख से शिख तक का प्रतिबिंब स्पष्ट झलक रहा है। गौरांगी श्यामा जु के समक्ष रखी है श्रृंगार हेतु।सुंदर सुकोमल वदनी श्यामा जु चौंकी पर विराजित अपनी नीली झीनी साड़ी को निहार रहीं हैं।साड़ी के पल्लू से झलकती उनकी प्रेम रंगसनी लाल कंचुकी..... अहा !!बदन को ढंके हुए अभी यह दो ही वस्त्र प्रिया जु ने धारण किए हैं और उनके नयनों में एक ही प्रियझाँकी जो संकेत कर रही है कि नीली

सेवा विकास , मृदुला जु

श्री युगल के हृदय की मन की परस्पर के सुखार्थ की अनन्त वृत्तियाँ ही सखियाँ है ॥जैसे सागर की लहरें सागर से अभिन्न ।वे रस आधिक्य में रस जडता में रहते हैं तब यही वृत्तियाँ लीला संपादक रस संचरण हित क्रियाशील रहतीं हैं ॥ वास्तव में सखि तो परमोच्च परम गहनतम् परम प्रेम अनन्त स्थितियाँ कहिये , तरंगें या लहरें कुछ भी कह सकते वे हैं युगल हृदय की ॥ प्रथम सोपान पर पग बिना धरे परम उच्च सोपान पर कैसे पहुँचा जा सकेगा ॥श्री युगल से अभिन्नत्व के ही अनेकों स्तर हैं निकुंज सेवारत समस्त परिकर ॥ जैसे श्यामसुन्दर के हृदय की एक भावना है कि मैं श्री प्रिया को चंवर डुलाऊँ तो यह भावना किंकरी रूप साकार हो नित्य श्री प्यारी को चंवर डुलावे है ॥ उसके अतरिक्त वह कछु और न जाने है ना चाहवे है ॥क्योंकि उसका स्वरूप ही चंवर डुलाना है ॥ प्रियतम के हृदय में उसका यही स्वरूप था या कहिये कि वह वृत्ति ऐसे ही प्रकट हुयी तो वह नित्य वही रहेगी ॥अब जब संसार में किसी प्रेम भावित हृदय में वही सेवा भावना गाढ़ होवेगी तो वह चेतना उसी किंकरी से एकत्व प्राप्त कर लेगी सिद्ध अवस्था में । यह बाह्य सेवा की वृत्ति हुयी ऐसे ही आंतरिक सेवा लालसा

अनन्त सखियाँ ... अनन्त सेवा , तृषित

अनन्त सखियाँ ... अनन्त सेवा अनन्त सखियाँ है ... अनन्त कुँज है । अनन्त सेवा । भावगत पृथकता से कभी सम्पूर्ण अभिन्न स्थिति परस्पर एक ही पथ पर , एक ही समय चल रहे पथिक में होती नहीं । एक ही कक्षा में सामूहिक अध्ययन पर भी सभी के पथ भिन्न हो जाते है ... नित नई पृथकता यहाँ । सखी युगल सुखार्थ प्रकट भाव सिद्ध हेतु स्थिति है । युगल सुख हेतु स्थित । स्थित होना ही असहज है । यहाँ मनगत-भावगत पृथकता होती नहीं युगल प्राणमूर्ति से । सखी में युगल से पूर्व युगल सुख प्रकट होता है ... वह इच्छा-शक्ति है युगल की । ऐसा होता नहीं कि सभी सखियाँ मनोकल्पित सेवा की इच्छा करती और प्यारी जु उन सब सेवाओ की सिद्धि करती हो ... ऐसा यहाँ प्राकृत लोक में हो ही रहा है । यह सेवा मूल में प्यारी जु की हुई ... ... मान लीजिये एक सखी को प्यारी जु के चरणों मे जावक रचना करनी हो , अन्य सखी को भी करनी हो । सेवार्थ प्यारी जु के पास दो चरण है अतः इच्छा सिद्ध हो सकती है ... परन्तु यह सेवा मूल में की गई प्यारी जु द्वारा है । युगल सुख और तत्भाव-तत्काल सेवा ही सेवा होती है । द्वारपाल यदि शयन कक्ष में सेवा चाहें तो वह सेवक हुआ कहाँ ? आ

सेवातुर युगल प्रीति , संगिनी जु

सेवातुर युगल प्रीति अर्धरात्रि उपरांत प्रेम श्य्या पर परस्पर निहारते श्रीयुगल .... निंदिया नहीं.... नयनों में परस्पर रूप माधुरी भरी हुई ....ऐसे जैसे अद्भुत प्रीति के पांवड़े में प्रीति ही शोभायमान है। रसमगी रसप्रीति की रसरीति से सनी मिलन निशा की रसमद शीतल रश्मियाँ जैसे अभी ही जगी हों। यह रश्मियाँ प्राकृत नहीं ....अपितु अप्राकृत प्रेम की श्य्या सजाने वाली और उस श्य्या पर खिलित नव पल्लवों के अति गहन पर सहज सरस प्रेम की साक्षी..... उन दो पुष्पों की प्रिय कणिकाएँ हैं जिनका मन जैसे मिलन से और और और तरोताज़ा हो गया है.... रसदेहों का मिलन और अब रसभावों का अति गहन मिश्रण ही जैसे.... श्यामा श्यामसुंदर जु अर्धमिलित सी अवस्था में सुमन सेज पर लिपटे हुए रसभीनी रसातुर निगाहों से परस्पर निहार रहे हैं।एक तरफ श्यामा जु श्यामसुंदर जु को ललितत्रिभंगी मुद्रा में रसातुर वेणु बजाते हुए अपने हृदय कमल पर आसीन कर रहीं हैं और वहीं दूसरी ओर श्यामसुंदर रसस्कित पिपासित नयनों से श्यामा जु की अति प्रगाढ़ करूणामयी छवि को जिसमें वे सदैव प्रियतम रसानुरूप उन्हें अपल्क निहारती रसपान करातीं हैं उस करूण प्रेम छवि को अ

युगल मंगला छब दर्शन , संगिनी जु

आज भोर में सखियन ने स्यामा स्यामसुंदर जु की मंगला छबिन कू कछु भिन्न निरख्यौ और धीर अधीर हुईं जब दृगन भर छबि कौ अबलोकन करन धांई तो याकै मुखन तैं हांसि कै फुह्बारे और अखियन सौं नेह छूटि रह्यौ। हुओ कुछ यों कि आज स्यामसुंदर राधेरानी सौं मुख फेरै बैठौ है ज्यूं अतिहि मान करौ हौं राधै सौं और राधै याकी यो रंगभरि भोरि छब तें बलिहारि जाए रही !सम्पूर्ण रात्रि यानै छिनहु की नांई रसभींजि बिताए दी और भोर भई ते मुखन यों फुलाए लियो जित भोर तें कोए बैर भयो कि काहे भोर तनिक सी जल्दी भई। स्यामा जु अद्भुत रसपगी रसभीनि अट्ठकेलि करतीं प्यारे स्यामसुंदर नै मनाए रहीं पर यापै तौ यों ब्यापै ज्यूं प्रीत कौ रंग गहरो चढ़यौ। सखियन या छबि अबलोकि तें जानि यो स्यामसुंदर तनिक राधारूप रसरंग में आज ऐसो रंग्यौ ज्यूं स्यामसुंदर ना है !स्वै कू राधा ही समुझै री ! अब राधेरानी कब सौं मनाए री पर यो राधा पै तो कोए असर ही ना होय ! सखियन यौ छबि निरख निरख हांसि और उधर राधेरानी मोहिनिप्रिया कू या छबिन तें बलि बलि जाए यातै सहचरनि बन सेबासुख चाहै !ऐसी बाँकि चितबन तै बलिहारि बारि ! सांचि कहूँ  !दोऊ सुंदर स्याम स्यामा परस्पर सुख ह

प्रियमन-भाविनी ममस्वामिनी , संगिनी जु

प्रियमन-भाविनी ममस्वामिनी वंशी ध्वनि अनंत अनंत युगों से जैसे हिय में नाद बन समाई है।सुनती हूँ और तलाशती भी हूँ कहाँ से किधर से निर्झरित यह मधुरिम ध्वनि सुनाई आती पर ना जान पाई सखी और अब यह नाद बन रूह से उठती माधुर्य रसतरंगों से और भी गहन सुनाई आने लगी।वेणु रव जैसे रग रग से उठती सुगंधी बन पल पल झकझोरता कि आखिर क्या है यह और क्यों रह रह कर भावमकरंद बन झरता रहता। यहाँ वहाँ कहाँ कहाँ रूह तड़पी और भागी सखी री इस नाद को सुनने पर ना जान पाई री।कैसे जान पाती यह मृगी जो मृगतृष्णा सी यहाँ वहाँ कूदती रही पर जानी ना यह भेद। तब सखी री किन्हीं युगल रसिक सिरमौर भावभावित उछाल तरंगों ने आ झकझोरा और उन नादतरंगों में बहती सरगम का पता बताया। जानती थी कि यह मधुर स्वरतरंगिनी उन ललितत्रिभंगी के अधरों की छुअन से बहती हुई आई है तो अन्यत्र तलाशती एक पल के लिए भीतर उतर बैठी तब जानी यह रस श्यामसुंदर के अधरों से होते हुए हिय में आ समाया है और तब सखी री तब से अब तक इन रसतरंगों को भाव से संजोती एक रूप देने का प्रयास मात्र करती इन्हें निहारने लगी। सखी री यह रसलहरियाँ सच में अति रूपवान हुईं भावों के अनुरूप एक अति