Skip to main content

Posts

Showing posts from November, 2016

वृन्दावन सखी , संगिनी जु 10

"दीजो मोहि वास वृन्दावन माही जुगल नाम को भजन निरंतर,और कदंबन छाही।। बृज वासिनः के झूठन टूका,अरु जमुना को पानी। रसिकन को सत्संगति दीजे,सुनिवो रस भरी वाणी। कुंजन को नित डोलिबो दीजे,दीजो भोर बुहारी। मिलवे को हिये माहि चटपटी,प्रीती होये अति भारी । कोटि प्राण नित बरिबो दीजे,देखत चरण छठा री।" रस गाढ़ता में डूबे श्यामा श्यामसुंदर जु एक दूसरे के रोम रोम का रसपान करने लगते हैं।उनके रोमकूपों से अनवरत रस बह रहा है और प्रियाप्रियतम जु उसे अतृप्ति से पीते जा रहे हैं।श्यामा जु की व्याकुलता प्रतिपल बढ़ती चली जा रही है और श्यामसुंदर जु भी अधीरता वश श्यामा जु को अंक में लिए जैसे सब स्वयं में सहेज लेना चाहते हैं।कभी वे नेत्र पान करते अधररसपान के लिए तो कभी अधररसपान करते हुए आलिंगन में ले लेने के लिए अति उत्छृंकल्त हो रहे हैं। सखी श्यामा श्यामसुंदर जु की अद्भुत निराली रूप माधुरी को हृदयांकित करते हुए उनके श्रीअंगों का समार्दन बार बार करती रहती है।श्यामा जु की बिखरी अलकों को और श्यामसुंदर जु की घुंघराली लटों को आपस में उलझा देती है।उनकी आँखों का काजल अधरों पर और माथे का सिंदूर कपोलों प

वृन्दावन सखी , संगिनी जु 7

युगल सखी-7 "ढूँढ फिरै त्रैलोक जो, बसत कहूँ ध्रुव नाहिं। प्रेम रूप दोऊ एक रस, बसत निकुञ्जन माहिं। तीन लोक चौदह भुवन, प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं। जगमग रह्यो जराव सौ, श्री वृन्दावन माहिं।।" विशुद्ध प्रेम का स्वरूप अत्यधिक सुंदर है।इसमें अपनत्व तो है पर अपना सुख नहीं।श्यामा श्यामसुंदर जु प्रेम क्रीड़ाओं में निमग्न परस्पर एक दूसरे को सुख देने में संलग्न हैं और सखी इन युगलवर को।सखी का भी युगल मिलन में अपना कोई स्वार्थ या सुख नहीं है।सखी को तो युगल को परस्पर सदा मिले हुए प्रेम रस एकरूप अपने प्रियाप्रियतम जु को निहारते रहने में ही सुख है।उसके ये प्राण प्रियाप्रियतम कभी एक दूसरे भिन्न ना हो यही सुख सखी को प्रीतिकर है। उसके मन मंदिर में श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर मिलते कभी एक दूसरे को स्नेहवश आलिंगन करते हैं तो कभी प्रेम के उच्छलन से अधरामृत पान कराते हैं। श्यामा जु अपने प्राणप्रियतम को स्वयं से इतना प्रेम करते पातीं हैं तो कभी बीच में ही ये आभास होते ही अति व्याकुल हो उठतीं हैं।ऐसे ही कभी प्रियतम श्यामसुंदर कोमलांगी प्राणप्रियतमा अपनी प्रिया को श्रमित देख अघातग्रस्त होते हैं।दोन

वृन्दावन सखी , संगिनी जु 9

युगल सखी-9 "लाड़ लड़ावति सखियन मनभाविनि निहारत नित नव बिनोद बनावति सुशील अति लड़ैंती नेत्र भरि सकुचावै सुंदर श्यामसुंदर टेरि टेरि अकुलावै" अश्रुपुल्क से सखी के नेत्रों से श्यामाश्याम जु की छवि औझल हो इससे पहले ही वह नेत्रों को झपका कर श्यामा श्यामसुंदर जु को फिर से निहारने लगती है।तभी श्यामा जु भी प्रेम रस भरे नेत्रों से प्रेम बूँद छलका देतीं हैं और उनके पलकों के झपकते ही श्यामसुंदर जु के हृदय से सटी श्यामा जु के काले मोटे मोटे नेत्रबाण श्यामसुंदर जु को चेता देते हैं।श्यामसुंदर जु श्यामा जु की बड़ी बड़ी आँखों पर लगी पतली सी काजल की रेख पर फिर अटक जाते हैं।अनवरत प्रिया जु के नेत्रों को निहारते उनके नेत्रों से अश्रु बह जाते हैं जिसे देख प्रिया जु अधीरतावश उन्हें अपने हृदय से सटा लेतीं हैं। व्याकुलित हृदय श्यामसुंदर जु को रसपान के लिए आमंत्रण दे रहा हो जैसे वे कई कई युगों के प्यासे हों ऐसे अनवरत रसपान करते रहते हैं। सखी ये भावउच्छलन देख भावों की तीव्रता से श्यामा जु के वक्ष् में समा जाती है।श्यामसुंदर जु लम्बे अंतराल के बाद श्यामा जु को श्रमित जान जबरन स्वयं को उनके हृदय से

वृन्दावन सखी , संगिनी जु 7

युगल सखी-7 "ढूँढ फिरै त्रैलोक जो, बसत कहूँ ध्रुव नाहिं। प्रेम रूप दोऊ एक रस, बसत निकुञ्जन माहिं। तीन लोक चौदह भुवन, प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं। जगमग रह्यो जराव सौ, श्री वृन्दावन माहिं।।" विशुद्ध प्रेम का स्वरूप अत्यधिक सुंदर है।इसमें अपनत्व तो है पर अपना सुख नहीं।श्यामा श्यामसुंदर जु प्रेम क्रीड़ाओं में निमग्न परस्पर एक दूसरे को सुख देने में संलग्न हैं और सखी इन युगलवर को।सखी का भी युगल मिलन में अपना कोई स्वार्थ या सुख नहीं है।सखी को तो युगल को परस्पर सदा मिले हुए प्रेम रस एकरूप अपने प्रियाप्रियतम जु को निहारते रहने में ही सुख है।उसके ये प्राण प्रियाप्रियतम कभी एक दूसरे भिन्न ना हो यही सुख सखी को प्रीतिकर है। उसके मन मंदिर में श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर मिलते कभी एक दूसरे को स्नेहवश आलिंगन करते हैं तो कभी प्रेम के उच्छलन से अधरामृत पान कराते हैं। श्यामा जु अपने प्राणप्रियतम को स्वयं से इतना प्रेम करते पातीं हैं तो कभी बीच में ही ये आभास होते ही अति व्याकुल हो उठतीं हैं।ऐसे ही कभी प्रियतम श्यामसुंदर कोमलांगी प्राणप्रियतमा अपनी प्रिया को श्रमित देख अघातग्रस्त होते हैं।दोन

वृन्दावन सखी , संगिनी जु 8

युगल सखी-8 "देखि मनावत मुरली बजावत इक पग मोहन ठाढे।  करत मनावन जतन रिझावन त्यौं तुव अनखनि बाढे।१। अद्भुत सेज रचि हौं इन संग सब सुख तुव रुचि माढे। आकुल तन ये व्याकुल मन तुव एकै इक बिन साढे।२। मान लाज शोभा रस रंग लीजै सुरति न आढे। कृष्ण चन्द्र राधा चरणदासि सुनि भरि भुज भेंटे गाढे।३।" श्यामसुंदर जु प्यारी जु की देह से आभूषण अलग कर रहे हैं पर ये जैसे उनके लिए एक घड़ी नहीं कई युगों का काम हो।सखी प्रियाप्रियतम मिलन की घड़ियों को कभी थमने ना वाली एक युग जितनी लम्बी रात्रि कर देना चाहती है।उसे युगल के इन्हीं रसरूप क्षणों में जीना हो जैसे आनवरत और सम्पूर्ण जीवन। श्यामसुंदर जु श्यामा जु के अंगों से एक एक कर आभूषण उतार रहे हैं और प्रिया जु की अद्भुत सौंदर्य से सराबोर अंगकांति का रसपान अपने पिपासु नेत्रों से करते हुए खोए से हैं।उनके हस्तकमलों की सिहरन उनकी पूरी देह को कम्पायमान हो रही है।उनकी चितवन के बाण श्यामा जु के प्रत्येक अंग को बींधते हुए अति अधीर करते जा रहे हैं और वे जैसे मीन जल में समा जाने के लिए तड़प रही हो ऐसे अत्यंत व्याकुल होतीं जा रहीं हैं।सखी ना जाने कब तक इन रस भरप