"दीजो मोहि वास वृन्दावन माही जुगल नाम को भजन निरंतर,और कदंबन छाही।। बृज वासिनः के झूठन टूका,अरु जमुना को पानी। रसिकन को सत्संगति दीजे,सुनिवो रस भरी वाणी। कुंजन को नित डोलिबो दीजे,दीजो भोर बुहारी। मिलवे को हिये माहि चटपटी,प्रीती होये अति भारी । कोटि प्राण नित बरिबो दीजे,देखत चरण छठा री।" रस गाढ़ता में डूबे श्यामा श्यामसुंदर जु एक दूसरे के रोम रोम का रसपान करने लगते हैं।उनके रोमकूपों से अनवरत रस बह रहा है और प्रियाप्रियतम जु उसे अतृप्ति से पीते जा रहे हैं।श्यामा जु की व्याकुलता प्रतिपल बढ़ती चली जा रही है और श्यामसुंदर जु भी अधीरता वश श्यामा जु को अंक में लिए जैसे सब स्वयं में सहेज लेना चाहते हैं।कभी वे नेत्र पान करते अधररसपान के लिए तो कभी अधररसपान करते हुए आलिंगन में ले लेने के लिए अति उत्छृंकल्त हो रहे हैं। सखी श्यामा श्यामसुंदर जु की अद्भुत निराली रूप माधुरी को हृदयांकित करते हुए उनके श्रीअंगों का समार्दन बार बार करती रहती है।श्यामा जु की बिखरी अलकों को और श्यामसुंदर जु की घुंघराली लटों को आपस में उलझा देती है।उनकी आँखों का काजल अधरों पर और माथे का सिंदूर कपोलों प