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Showing posts from May, 2019

कृष्णकर्णिका सन्गिनी जू

*अजहूँ कहा कहति है री.....* *.....तू ही जीवन तू ही भूषन तू ही प्रान धन......* *कृष्णकर्णिका* 'कृष्ण तन कृष्ण मन कृष्ण ही है प्रान धन ' ,,,, यही शब्द गुंजायमान थे हृदयस्थ .....तन मन धन ....तन मन से तो भलीभाँति गहरी आत्मियता है हमारी....सो इनके प्रति कुछ ना कहूँ तो बेहतर....परंतु धन...यहाँ उस धन की वार्ता ना हो रही जिस हेतु हम अपने तन और मन के भगवदाह्लादित हार्दिक हर्षित नित्य स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं । यहाँ बात हो रही उस अति सघनतम दिव्य धन की जो रससुधा स्वरूप हमारे तन मन में निरंतर नवरसीला नवरंगीला हमारी चेतना होकर समन्वय हेतु संचरित पुलकित हो रहा....जिसे हम बुद्धिजीवी यंत्रवत् मान रहे वह वैसा जड़ है नहीं सखी...सहज द्रवित वह भावित भीतर बह रहा !! आत्मीय होते हुए भी हम उससे मुख मोड़े हुए देहरूपी बीहड़ वन के अनुरूप विचर रहे....अपितु हमारा बहाव अंतर्मुखी होना चाहता....उस बेलगाम बिहरन से बीहड़ वन में सुखसेज होने को नित्य उत्सुक...उत्फलित...परंतु हमारी आत्मियता हमें बहिर्मुख कर रही विपरीत परिस्थिति में.... !! तो आवश्यकता है मात्र भीतर उस मौन संग मौन होकर निहारने की ...संभवतः प्री

श्रम जल कन नाहीं होत मोती ... सन्गिनी जू

*श्रम जल कन नाहीं होत मोती* *प्रीति वल्लरिका* पुष्पों को निहारो सखी ....अनंत काल से अनंत तक यूँ ही सुरभित कृपावर्षा में भीगे भीगे सौरभ से भरे सौरभ ही बिखेर रहे ...भावसुमन...अहा ...रसिक वाणियों में भर भर कर ज्यों बिखर रहे...वही बिखरा दो ना सखी जू...मुस्कराते देती हूँ हिय की इस मधुर कामना पर जो सखी जू से कहने कुछ और चलती है पर माँग मधुरता की ही करती है ...समझ रहीं ना आप मेरी पथप्रदर्शिका और हियपत्रिका पर भावसुमनों की सींचिका प्यारी दुलारी सखी जू !! तो मैं कह रही थी कि यह माला रूपी देह...इस पर सजे ये श्रम जल कन...अर्थ स्पष्टतः युगल हेतु है परंतु हम इन श्रम जल कन की भावस्थिति को अन्यत्र ले जाते ...श्वेदकन ही कहूँगी ...ये अति उज्ज्वल अति निश्चल प्रतिबिंबित श्रम जल कन जो पियप्यारी जू के रसवर्धक होते ...रसाधिके का अद्भुत सुंदर श्रृंगार जो सुरभित सौरभित पियहिय की दिव्य मनि ही है ....सुसज्जित लज्जित संकुचित भावित युगल के परस्पर रसश्रृंगार .... नहीं समझी ना...तो इन लघु परंतु अति गहन मधुर वचनों को किंचित सैद्धांतिक होकर निहारती हुई विश्लेषण करने का प्रयास मात्र करती हूँ ....अत्यधिक भाषाओं का

तू रिस छाँड़ि री राधे राधे ...वाणी पाठ क्यों

*तू रिस छाँड़ि री राधे राधे* *वाणी पाठ क्यों ???* भक्ति महारानी जू मानिनी भई सखी जू ,,,, उसे मनाना है उसे पाना है,,,, उसे ,,, जिसके लिए ये सगरे खेल सजे हैं  ,,, लीलाएँ सजी हैं ।। हम अक्सर चाहते उसी परमानंद को पाना जिसका अंश हममें आनंद होकर जी रहा ,,, जिस आनंद की अगर स्थिति प्रगाढ़तम गाढ़ न हो तो हम विचलित रहते ,,,कामनाएँ पीछा नहीं छोड़तीं ,,, आनंद की खोज तो स्वतः खेल रही परंतु उस तृषा की सुधि हम बिसर चुके और अन्यत्र तलाश रहे ।। तो आखिर वाणी पाठ या शरणागति निज मंत्र ही सहायक क्यों सखी  ?? लगता ना कि पाठ करने से मन को शांति मिलती ,,,,पर क्या मन पाठ के दौरान शांत होता क्या  ?? नहीं ना !! तो प्रश्न उठता पाठ क्यों  ?? सखी ,,, साँप के डसे को भी सिद्ध पुरुष मंत्रोच्चारण से नवीन जीवन प्रदान कर सकते परंतु अगर वो जीव जीने की कामना ही खो चुका हो तो मंत्रोच्चारण भी काम नहीं आते क्यों कि उसके जीवन में तृषा का अभाव था । कामना का खो जाना जहाँ हम वरदान मानते ,, वहीं अगर परमानंद की खोज हेतु भीतर भाव ना हो तो ऐसे जीवन को पुनः पाने की लालसा ही कहाँ शेष रहती ?? सखी सत्य मानो !समस्त लालसाएँ पूर्ण होकर

राधे दुलारी मान तजि.. *मधुर प्रतिकूल आनुकुल्य* सन्गिनी जू

*राधे दुलारी मान तजि.....* *मधुर प्रतिकूल आनुकुल्य* Do not share अद्भुत वैचित्य भरा जीव के हिय में परंतु उसे ज्ञात नहीं यह वैचित्य जो नित्य रसानंद पाना चाहता है वह इधर उधर दौड़ लगाए हुए उस विचित्र आनंद को खोजते खोजते खो रहा है ....सत्य यह कि हम आनंद से नहीं अपितु प्रतिकूलताओं से भाग रहे ,,,, उनसे निजात पाना चाह रहे.... आनंद तो सदैव सहज प्राप्य ही है....हमारा अपना है....सदैव मिला हुआ हमें !! यह प्रतिकूल परिस्थिति  से निजात पाना जहाँ आनुकुल्य में भरा जा सकता वहीं हमारी रसानंद की खोज को कठिन करता जा रहा ।। पथिक को यह आभास होता कि रस की अपेक्षा जीवन में कठिनाइयाँ बढ़ रहीं तो वह रसपथ से विपरीत दौड़ लगाकर स्वयं को स्वयं ही पीछे धकेल रहा होता है । सहज बुद्धि जीव जटिल प्रश्नोत्तरी में उलझने लगता है....सत्य है कि अधिकतम जटिलताएँ जो उपज हमारे हृदय की ही होती हैं वे अक्सर हमारे व्यवहार को कटु करती ही हैं परंतु अगर इसी कटुता को रसपथ पर बाध्य ना मान अपितु सघन रस की खान समझा जाए तो विरक्ति के पथ पर हम अग्रसर हो रहे होते हैं ....परंतु यह बुद्धिजीवी की समझ से परे होता जब तक उसे सद्गुरुदेव कर पकड़ उलझ

इत उत काहे कौ सिधारति आँखिन आगे , सँगिनी जू

*इत उत काहे कौ सिधारति आँखिन आगे.....* DO NOT SHARE कितना चंचल , कितना भोलापन , कोमल  है ना यह मन.... कितने ही एकाग्रता के मंत्र पढ़ाए सिखाए जावें इस अति कोमल मन को.... कितना ही बहलाया फुसलाया । परंतु अत्यधिक एकांत पर भी इसका चैन कहीं खोया सा रहता ना... गहन सघन प्रयास , गाम्भीर्य से बाँधने के , परंतु चंचलता को गाम्भीर्य भी बेड़ियाँ पहनादे , यह कैसे सम्भव ना.... अरी सखी...जे ना बहले , ना समझे , मुद्रा में बाधित कर एकाग्र करना चाहा तो मुस्करा दिया ... अब हंसेगा ही ना , गोपीचंद ध्यान की विधि तो कभी ना सुहावै ! तो आखिर क्या कर हिय कुंज सजाऊँ..... का कह इस चंचल मन को बहलाऊँ....कौन उपाय ते जे शांत मौन होकर बिराजे....कितनो भी प्रयास कर हारि....ना गई चंचलता , ना खोजा और पाया गाम्भीर्य.... .... आह !! आह !सिहर उठती...कम्पित कर जाती ....काहे इत उत डोले रे !! सजल नयन मुँद जाएँ इतना भी ना एकाग्र हो पाता.... , स्वतः बह जाते...तब किंचित मात्र इस मन को पिघलाना चाहा...जाना कितना सहज सरल है....चंचल मन जैसे कृष्ण है....अहा !! समक्ष होते ही जैसे मैनन सैनन तें इस भ्रमर मन की दृष्टि पुष्पराग पर गिरी