मनुष्य का मुल स्वभाव क्या है ?
-- प्रेम
प्रेम के मूल क्या है ?
--- त्याग
और त्याग के मूल में .... ?
---- इस पर आप विचार करिये , और बताईये ।
आईये पहले त्याग को समझे ,
त्याग है क्या ?
अपनी चीज़ को दे देना । अगर ऐसा है तो दान क्या है ? दान में भी दिया , त्याग में भी तो भेद क्या है ?
वस्तुतः हम सब समझते है परन्तु फिर भी विचार करें हम । दान से मिलता है , पूण्य । और त्याग से प्रेम बढ़ता है । दान में लोभ है , त्याग में वस्तु से सम्बन्ध नहीँ , जिसे वस्तु दी उसके सुख का ख्याल है ।
मान ले मैं 1 रु दान दूँ तो दिया मैंने 1 पर चाहिए 10 रूपये । दी वस्तु से किसी का उपकार तो हुआ पर दान में पुण्य की आस है । यहाँ अन्य का भला इसलिए हुआ कि उससे बेहतर आपका भला होगा , दान इन्वेस्ट है । व्यापार है । और दान उस वस्तु का होता है जो आपकी पूर्ति के अतिरिक्त है , जैसे मैं 1 रोटी दान करुँ तो मेरे पास अपनी रोटियाँ है । अगर यहाँ त्याग हो तो मेरी भी मुझे यहाँ देनी है । तब त्याग होगा । आवश्यक वस्तु की चाह से उठ उसे अपने किसी विशेष या सामान्य को देना त्याग है , जैसे अगर मैं पैन दान करुँ तो मेरे पास अपना पैन होगा और सस्ते से कुछ पैन बाँट दूँगा । अगर पैन का त्याग करुँ तो अपना ही पैन देना है और पैन का उपयोग करना ही नहीँ , क्योंकि त्याग दिया ।
दान में दी वस्तु आपके पास होती है , हो सकती है । त्यागी वस्तु अब आपकी नहीँ , ना ही कभी चाहिए ।
प्रेम में त्याग का प्रारम्भ होता है , संसारिकता से , वस्तु से । फिर आवश्यक वस्तुयें , फिर तन , मन और आत्मा का भी त्याग और फिर भी त्याग ..... दिव्य त्याग ।
प्रेम में होना ही है त्याग का आरम्भ हो जहाँ से किसी भी वस्तु में मेरापन हो , मेरेपन का त्याग । जैसे मेरा घर । मेरा तन । मेरा परिवार । मेरा धन । मेरी गाड़ी । मेरे मित्र । मेरे शत्रु आदि ....
अब हमे मोहन से प्रेम है तो ऐसा नहीँ धन को समेट , गाडी में रख मित्र परीवार को बैठा , सबको बिहारी जी के छोड़ आये कि गाड़ी परिवार सब दिया , ऐसा हो तो भी कुछ भला ही हो । पर त्यागना है मेरापन । प्रत्येक वस्तु ईश्वर की है , मेरा अपना कुछ है ही नहीँ । कुछ नहीँ । ना वैभव , ना धन , ना मन , ना तन । सब आपका ही है । और आपको अर्पण । अब तन , मन को भोगना नहीँ , प्रसाद ही मानना हो । जीवन के हर पल को प्रसाद ही मानना हो । कृपा यहाँ से अनुभूत् होती है । जब वस्तु -साधन -काया -माया कही मेरापन (अहम्) ना हो तब सब जगह कृपा ही मिलती है । पुरुषार्थ में मेरा पन है वही वस्तु प्रेम मय त्याग से कृपा बन जाती है । अपनी प्राप्ति नहीँ , हरि की वस्तु है , और उन्होंने ही सौंपी सो प्रत्येक वस्तु , तन - मन भी अगर उनके ही है तो बड़ा ही सम्भल कर उपयोग हो । कृपा और सेवा मानते हुए यें त्याग का फल है प्रेम । अब त्याग गहराएगा और मेरापन जितना चला जाएगा , भगवान का होना जितना अनुभव होगा । जब देह के नाम के प्रति भी आसक्ति न रहेगी और प्रभु का ही प्रसाद मान उसे सहज कर रख लिया जायेगा , तब प्रेम ही प्रेम है । तब सम्पूर्ण जीवन ऐसा ही जैसे भगवान का मन्दिर या धाम ही हो । और यें कोई कल्पना नहीँ , यें ही सत्य है । वस्तु से मेरा पन हटा कि वस्तु और संसार पीछे भागेगा । तब मिलने वाला यश आदि में भी मेरापन नहीँ।
त्याग के लिए कुछ अपना चाहिए , कहने को हम कहते है तन उनका , मन उनका सब उनका , यहाँ बिना दिए सब उनका ही तो है , फिर भी कहते ही है देते कभी नहीँ । दी वस्तु तो उपहार बन जाएं , प्रेमी अपने पूण्य की चाह नहीँ करते और सब देकर भी पाप नहीँ देते , छिपा लेते है प्रभु से , जबकि प्रभु का सम्बन्ध हुआ तो सब उनका हो गया ही , पर प्रेमी का भाव है पूण्य का कुछ भी करें आप प्रभु परन्तु अपने पाप कर्म आपको नहीँ देने , मेरे अपराध है दण्ड तो चाहिए ही । वैसे इस अवस्था में पाप होते ही नहीँ , सब कर्म और कर्म फल कुछ भी हो पूर्व में दे दिया तो सब कुछ गया ही और तब उनके द्वारा दिए तन - मन से कोई भी पाप कर्म होता ही नही , क्योंकि मेरा कुछ हुआ ही नहीँ ,अपनी इच्छा नहीँ , केवल भगवत् आदेश ही । वो कहे कि मेरा तन प्यासा है तो पानी पिला दिया तन को , देखने में लगेगा अपने ही तन को तो पानी पिलाया , परन्तु तन-मन तो उनके ही है सो उनकी ही वस्तु की सेवा है , यहाँ प्रेम पथ में आत्मा भी उनकी ही है । योग-आदि में आत्मा अपनी रहती है । प्रेम में सब कुछ उनका , अपनी रूह भी । तो फिर विचार करेगें , कि मन में प्यास लगी तो तन उनका तृप्त किया , आत्मा भी उनकी तो आप क्या है यहाँ ..... यहाँ जितना अपना सूक्ष्म एहसास हो उतना भला है , अथवा हो ही नहीँ , यहा वैसे आप केवल "भाव" है ! जो भाव भी उनका ही दिया स्वरूप है । और जितने सूक्ष्म होंगे उतने ही प्रबल भाव होंगे ।
हमने सुना ही है भावो विद्यते देवा , भाव में देवता रहते है अतः केवल भाव हो जाना है । इसके आगे की स्थितियां महाभाव तक जाती है । जो अति दुर्लभ और किशोरी जी का पूर्ण प्रसाद ही है ।
त्याग की मूल बात यहाँ छुट ही गई । लेख बड़ा हो गया । आगे करेंगें , - सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम !!
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