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आप क्या जाने । भाव

आप क्या जाने
आप किस क़द्र हो हम में समाये
आप से मिल कर भी
हम कुछ कह न पाये
आप ही दिल में समायें
तो दिल की बातों को जुबाँ
कैसे फिर बनाएं
हर ज़ज़्बात सीधे आपके
लिए ही तो सजाये
दिल की लगी को
आप ज़रा सुकूँ से सुन तो जाएं
आप बसे हो दिल में
फिर भी क्यों बेहाल यें मुझे सताये
दिल की बातें जुबाँ तक न होगी
लाख की है कोशिशें
पर यूँ अब तलब की राह
कैसे बेपर्दा होगी ।
आप यूँ अपनी अदाओं से
भरी महफ़िल में असर
छोड़ जाते है
उफ़ ना मर पाते है
और ना जाने कैसे
तब भी जीये जाते है
यूँ बहुत कुछ कहना भी है ....
मगर आँखों का दीदार बाक़ी भी है
कभी वो शामें होगी
जब आप हमें सुनने आया करोगे
छत पर तन्हाई में ...
कभी वो रातेँ होगी
जब आप ही आँखों के
रूबरू भी होंगे
और ..... .....
सत्यजीत "तृषित"

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