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मैं तेरी हो गई

मैं तेरी हो गई .....

स्व के सर्वस्व त्याग के बाद प्राप्य दिव्य रस ! जब सब छुट जाएं , जीवन हो और आप ना हो तब प्रीत है ! दिव्यतम स्थिति ! इतनी दिव्य की ईश्वर प्रीत के आतुर हो सामीप्य आदि चाहने लगते है |यहाँ एक बात समझ लें इस उड़ते पंछी को प्यास है , जो जल से ही बुझेगी अब जल किस पात्र में है कोई फ़र्क नहीँ पड़ता । यहाँ पात्र नहीँ , जल हेतु है , पक्षी के निकट आने का ।
मेरी बात अधिकत्तर समझ नहीँ आती , कई कह भी देते है , अब नहीँ आती तो भी रहस्य है , और यें समझ भी आता है क्यों नहीँ आती ? ..... चलिए और सरल करें ।
प्रीत .... दिव्य प्रेम रस । प्रेम सदा ही दिव्य है , संसार में प्रेम शब्द को कहने से यहाँ दिव्य कहा , संसार में प्रेम है नहीँ , वासना ही है । क्यों ? क्योंकि प्रेम में कोई भी कारण नहीँ , अग़र कारण है तो प्रेम नहीँ । अतः प्रीत यानि दिव्य प्रेम । प्रेम की प्रथम अनुभूति होगी त्याग से , त्याग जितना गहरा होगा प्रीत गहरा जायेगी । ऐसा कैसे हुआ ? जहाँ हम बैठे हो वहाँ कोई और कैसे बैठ सकता है । अतः या तो हट जाएं या सरक जाएं , हटे तो पुरे वें ही बैठेंगे । सरके तो थोड़े हम , थोड़े वें । अब जल्दी से सब से छुटना न हो सके तो सरकना ही होगा । अतः जितने भीतर हम में हम ना होंगे कोई और आता ही जाएगा । किसी रोज पुरे हम ना हुए तो पूरा कोई और भीतर भी होगा । यें सब घटता है त्याग से । मुझे प्रेम है , अथवा i love you . यें वाक्य अशुद्ध है । यहाँ अभी मैं है । प्रेम का अर्थ है , तुम अब तुम नहीँ । यें कहा जाएं कि अब मैं ख़ुद से छुट चूका हूँ , तुम्हे जी रहा हूँ कैसे ? यें कुछ सही है । परन्तु जब तक जीया और जब कहा वहाँ फ़र्क होगा । जब आप प्रेम रस में होंगे तब आप होंगे नहीँ , परन्तु कहते वक़्त आप को ख़ुद को महसूस कर कहना होगा । प्रेम है .....तुम हो जाना । ध्यान , नाम , सुमिरन सब पथ है ईश्वर को भजते भजते वहीँ हो जाना । जी , सर्वत्र यहीँ शाश्वत चाह है , ईश्वर हो जाना । वस्तुतः जो अभी है वहाँ से और श्रेष्ट हो जाना । परन्तु यहाँ सर्वत्र ईश्वर की ही चिंगारियां हो कर भी , भीतर से अपने मूल स्वरूप को लौटने की एक तो पूर्ण चाह का अभाव है । दूसरी सर्वत्र सभी यें भी सोचते है कि जिस घडी मैं राम को भजते भजते राम ही हो जाऊँगा , राममय हो जाऊँगा तब भी मैं भी होऊंगा और वो भी ... ऐसा नहीँ होता । जिस घड़ी मिलन हुआ वहाँ आप होकर भी नहीँ हो सकते , वहीँ होंगे । और यें ही बहना है ..... आज आप किसी से भी पूछे कि सीता का पता लगाने कौन गया ? सब कहेंगे हनुमान जी ! और उनसे ही पूछे तो यें उनके लिए असहज होगा क्योंकि दिखा तो यें ही कि वें गए , परन्तु यहाँ प्रीत गई , राम ही गए भीतर । उतना रामत्व न होता तो असहज ही हो जाता ।
एक और बात हरि तत्व का नशा लेना तो शिव तत्व होना पड़ेगा । शिव प्रेम के बाद की स्थिति ही है । अथवा यहाँ असहज हो तो पूर्ण योग के बाद की स्थिति । जहाँ सर्वत्र त्याग ही दृश्य है । परन्तु जितना त्याग है उतना रस , इतना रस की मस्तिष्क से रस की धारा की गंगा बह रही है । मस्तिष्क से क्यों ? इस का उत्तर योग में है सहस्रार चक्र में रस बनता है ।मस्तिष्क में कुछ बहता अनुभूत् होता है ।कभी बहता दिखता नहीँ कुछ , वहीँ मिलन रस शिव का बह रहा है , युगों से । अतः शिव महायोगी है । इतना रस कहीँ नहीँ । प्रेमियों में भी रस बनता है कुछ बूँद दो बूँद । गंगा भी बह सकती है , स्थिति हो ऐसी ।
गंगा शिव के शीर्ष से बहती नदी है , सहस्रार का रस और यमुना युगल मिलन में बहने वाली नेत्र धारा , जी प्रेमियों में रस नेत्र से बहता है । यहाँ युगल की ही धारा है , दोनों की ।
हरि चरण + शिव तत्व = गंगा
राधा चरण + हरि तत्व = यमुना
यहाँ शिव और राधा में बहुत से भाव मय समानताएं है , जिन्हें अभी क्या कहना । जब तक दृष्टि केवल राधा मय ना हो , भिन्नता हो , नहीँ समझ आ सकता । इस विषय को (शिव और राधा भाव के रहस्य को) भाई (पोद्दार जी) जी सटीक कह सकते थे ,उनके चित् में कहीँ भेद नहीँ था । अब भी इस विषय की जब भी निवृति हुई उन्हीं के स्नेह-कृपा से होगी ।
तो प्रीत की बात कर रहे थे हम ....
तू तू करता तूं भया , मुझ में रही न हूँ ।
वारी तेरे नाम पै, जित देखूं तित तूं  ।।
....... यें है प्रेम । प्रीत । प्रियतम को पुकारते पुकारते प्रियतम रह जाएं , ऐसा नाम सुमिरन हो कि जिसे ध्या रहे है वहीँ हो जाएं और जिधर देखें वहीँ दिखे , और स्व छुट जाएं । यहाँ योग और ज्ञान मार्ग का अधूरा बोध ख़ुद में भी देखता है , हाँ सर्वत्र है तो खुद में भी वही ही है, पर यहाँ अपने में ही पा लेना अधूरापन ही है , वापिस विकृत अहंकार उपजता है और आप अपने ईश्वर होने की घोषणा कर डालते हो । प्रेम पथ में ख़ुद में हो तो भी ख़ुद में पा कर और गहरा मदहोश हो जाना है , आह और उफ़ सब एक साथ । दर्द भी ख़ुशी भी । आनन्द भी , करुणा भी । यहीँ पूर्ण अवस्था है , पर संसारी को रोग लगेगी । पूर्ण का अपूर्ण में समावेश है , परन्तु इसे देख कर सरलता से पीया नहीँ जा सकता ।
यहाँ भी रस बिगड़ सकता है । हाँ सर्वत्र है , वहीँ है , मैं नहीँ यहाँ तक ठीक है , परन्तु रसिक सन्त कहे है .....अपने हृदय में ना ध्याओ , उन्हें उनके धाम में ही ध्याओ अतः हम हरि आतुरों को उन्हें चित् एकाग्र कर उन्हें उनके ही धाम में सुमिरन करना चाहिए । यें क्यों कहा कभी विस्तार से पृथक् बात करेंगे । अति गोपनीय बात है यें , अगर अब तक अपने हृदय में ही पाया , हृदय उनके धाम ना गया और अजीब लगा यें तथ्य तो इसे भूल वहीँ करें जो कर रहे है , सन्देह न करें । सन्देह बड़ी बीमारी बन गया है , इसका शास्त्र में कम ज़िक्र है , परन्तु सन्देह अब गहराता जा रहा है । सन्देह से सब प्रेम महल एक पल में ध्वस्त हो जाते है । इसलिए एक निवेदन और है हम भीतर एक और चीज़ उतारे , स्वीकार्यता । या तितिक्षा । जब तक अपनी रुचियाँ है तो हमारे दायरे है । प्रेम में जब आप हो नहीँ तो पसन्द -नापसन्द कुछ नहीँ , सब स्वीकार्य । कुछ भी अपनी और से निंदनीय ना रह जाये । तब प्रीत रसीली होगी । अब तक हम ख़ुद को जिए , अब अगर प्रियतम् को जीना हो तो स्वागत हो हर बात का क्योंकि अग़र हमारी रुचियों में पूर्णता होती तो हम कबके सटीक निशाना लगा जाते । ईश्वर आप को कोई नवीन रस देना चाहे , परन्तु हम कैद हो तो कैसे , प्रेम यें ही स्वतन्त्रता देता है । सन्देह से सब स्वीकार्य । अगर प्रियतम का होकर अपनी पसन्द ही रही है तो उनकी महक पहुँची नहीँ । उन्हें सलीके से हम जियें नहीँ । और प्रेम इनसे ही (लाल जु) है तो नापसन्द रहेगी ही नहीँ । उन्हें समझने पर , देखने पर , हर ज़र्रे से उनकी महक आने पर कोई कौना ना होगा जहाँ हम थिरके नहीँ ।
खैर , लेख बड़ा हो गया ........ ।।।। कुछ ..... पुरानी बात जोड़ रहा हूँ ......
प्रीत की उत्पति ही बीज के फटने पर है । प्रीत तो शाश्वत है , हाँ पात्र की धारणा से स्वाद भिन्न हो सकता है । परन्तु प्रीत सनातन है । और प्रीत है तो मेरा पन भी नहीँ । मैं बावरी हो गयी कहना चलता है । प्रीत को कहना कुछ असहज है । हाँ कोई ध्यान ना देगा , सब को सुंदर भी लगेगा , परन्तु वस्तुतः प्रीत का ही साकार रूप तो ...
अतः प्रीत उपास्य भी है साध्य भी । प्रीत का स्वरूप नहीँ बदलता , जल वही,  पात्र विशेष बदल सकते है और धातुय गुण जल में आ सकते है । फिर भी जल वही है और जल जितने सरल पात्र में होगा तृप्ति भली होगी जैसे रज-पात्र ।
सत्यजीत तृषित ।। जय जय श्यामाश्याम

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