राधा राधा राधा जै जै जै श्री राधा
राधा राधा राधा जै जै जै श्री राधा
श्याम का श्यामा होना
प्रकृति का पुरुष होना
जीव का शिव
और शिव का जीव होना
प्रेम रंग में मैं का तुम होना
उनके रंग में रँगना
उनका मेरे रंग में होना
यह जीवन्त स्वप्न विवर्त है
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प्रेम को ना होय
राधा बिन प्रकासा
राधा पद भ्रमरी अलिन सब
राधा अधर भ्रमर
अति व्याकुल नित मोहिनिबिहारी
आवत है जावें ना कबहुँ
रस पिबत रसीली को
रसीली रूप रस गन्ध बढ़ावे
कृष्ण भ्रमर ।।।
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जो हरिदास होते सन्मुख तो
विरह राग में मिलन ही खिलता !
हरिवंश सन्मुख होती तो
नाम ब्रह्म संग नाद स्वरित होता !!
रूप की अश्रुधारा में
बिम्ब गौर का महकता !!
निम्बार्क की प्रीत पगडण्डी पर
राधासर्वेश्वर कहीँ खडा भी होता !!!
वल्लभ संग गोवर्धन पर
श्री नाथ संग विट्ठल चतुर्भुज
लीला निरख तनिक न
और कुछ शेष भी होता !!
जो वृंदावन में करती विलापमय
हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण ....
निताई गौर नवद्वीप की
सुगन्ध का रोमांच न छूटता ।
जो होती संग म् ..म् ...म् .....मीरा
प्रेम पीर का औषधालय
संग संग ही होता !!!!
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कौन हो तुम
क्यों हो तुम
कहीँ वर्षा तो नहीँ ....
रूखे सूखे कूप पर गिरती
करुणा बन बन कर ...
कौन हो तुम !!
बुझते दीपक की
आज्या हो तुम ?
जीवन यज्ञ में कभी
स्वधा कभी स्वाहा हो तुम
कौन हो तुम
कहीँ तुम विवर्त तो नहीँ
कहीँ किसी का
श्यामल बिम्ब तो नहीँ ....
कौन हो तुम !!!
क्या चरण धोवनि मन्दाकिनी हो
या चरण छुवन प्यासी कालिन्दी हो
कहीँ अद्वैत सरस्वती की साकार धार तो नहीँ हो तुम ...
कौन हो तुम ???
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क्यों खेलते तुम संग मेरे
छिपी लुका ।।
क्या तुम घायल हो
या मैं हु पगली
तुम चाहते हो
सुध भूलूँ
तुम सोचते हो
कुछ न सोचूँ
तुम ठिठौली
नहीँ , नहीँ करते मोहन
कहीँ तुम रोगी हो
तुमसे ही कुछ
भीतर मेरे उतरा
क्या तुम्हें प्रेम है
या हम भ्रम स्वप्न में है
स्वप्न है तो
क्यों हूँ अब भी शेष
विवाह के गीत
सुनती हूँ !
हर वधु अब
मैं और वर तुम पाती हूँ
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कहाँ थे तुम मोहन
अधूरी सी व्यथित सी
कितनी वस्तुएं है तुम्हारी
सम्भवतः सूर्य रश्मियों सी
वरन् तुम्हे मेरा भान ना होता
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स्वर खोजती धारा में
मुझे मौन अब सुनाई देता है
जागृति कही खो गई है
सुषुप्ति है नन्हीं हो अंक में
स्वप्न सब लें गए तुम
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क्यों खेलते तुम संग मेरे
छिपी लुका ।।
क्या तुम घायल हो
या मैं हु पगली
तुम चाहते हो
सुध भूलूँ
तुम सोचते हो
कुछ न सोचूँ
तुम ठिठौली
नहीँ , नहीँ करते मोहन
कहीँ तुम रोगी हो
तुमसे ही कुछ
भीतर मेरे उतरा
क्या तुम्हें प्रेम है
या हम भ्रम स्वप्न में है
स्वप्न है तो
क्यों हूँ अब भी शेष
विवाह के गीत
सुनती हूँ !
हर वधु अब
मैं और वर तुम पाती हूँ
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