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भगवत्नाम चिंतन

नाम भगवत् पथ की साधना की आत्मा है जो निखरती जाती है । साधना या भगवत् लालसा का उदय होने पर नाम की भागीरथी का उदय होता है । पहली अवस्था जिसे प्रवर्त्तक अवस्था कहते है नाम साधना वहाँ बीज रूप में है , पहली साधना । नाम और नामी का नित्य सम्बन्ध ही है । वाचक और वाच्य अर्थ में जिस प्रकार सम्बन्ध होता है , राम का नाम अग़र जिह्वा पर है तो भगवान राम ही वहाँ है । नाम से भगवत् प्राप्ति की आशा में अर्थ होता है नाम के स्वरूप का बोध ना होना , भगवान का नाम ही भगवान है । हाँ नाम , भजन ना होता हो तो वियोग बनता है , और नाम लिया जावें तो ज़रा भी वियोग नहीँ , भगवान और नाम में तनिक भेद नहीँ बल्कि नाम का विशेष महत्व है क्योंकि नाम तो जब भी संग है जब जीव पापात्मा हो , भगवान के स्वरूप के लिए तो अन्तः शुद्धि करनी होती है , परन्तु नाम किसी तरह की अपेक्षा नहीँ रखता । बल्कि वही चित् की शुद्धि करता है । और नाम के प्रति जितनी भावना है वैसा ही नाम स्वरूप ले भी लेता है । अतः नाम ही भगवान है और सर्वत्र संग ही है , जहाँ नाम है वहीँ भगवान निश्चित अपने नाम में है ।
वृक्ष के बीज के साथ जिस तरह फल का सम्बन्ध है , उसी प्रकार भगवान के नाम का भगवत् स्वरूप का सम्बन्ध है ।
भगवान का नाम प्राकृतिक वस्तु नहीँ , यह अप्राकृत है और अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न है अर्थात् सोचा नहीँ जा सकता नाम की शक्ति को । भगवान जिस तरह चिदानन्दमय है उनका नाम भी उसी तरह चिदानन्दमय है । परन्तु नाम में चिद् और आनन्द की अभिव्यक्ति नहीँ रहती , साधना के प्रभाव से क्रमशः यें अभिव्यक्त होते है । परन्तु चिद् और आनन्द नाम में सदा ही अवक्तभाव से रहते है । नाम अनन्त शक्तियों का भण्डार है । जाग्रत महापुरुष के श्री मुख से निकले हुए नाम की तो बात ही क्या , मेरे सरीखे अज्ञानी जीव साधारणतः उच्चारित नाम में भी पूर्ण निज शक्ति विद्यमान रहती है ।
नामदाता (गुरूवर) की शक्ति के साथ योग होने पर नाम की निजशक्ति आवरण मुक्त हो फुट पड़ती है । वैसा न हो तो वह नाम यथार्थ नाम नहीँ होता , नामाभास रूप में ही प्रकटित होता है । नाम की महिमा अनन्त है , नामाभास भी व्यर्थ नहीँ जाता , उसका भी सुफल होना अनिवार्य है ।
वस्तुतः भगवान का नाम यानि जाग्रत नाम कोई अपने बल से कर्तृत्वाभिमानपूर्वक नहीँ उच्चारण कर सकता । जिसके ऊपर नाम की कृपा होती है नाम स्वयं ही उसके कण्ठ की अवलम्बन करके ध्वनित हो उठता है । यहाँ कुछ स्पष्ट कर ने हेतु एक स्मरण बता देना चाहता हूँ , मेरी बहन के पूजनीय गुरु जी के गुरदेव सरकार यानी बहन के दादा गुरु देव प्रातःस्मरणीय अवध बिहारी जु के परम् रसिक श्री सियाजु के लाडले रसिक महाराज श्री रामहर्षणदास जी (अयोध्या) जब सभा में आते और आसन लेकर तीन बार नाम लेते , राम राम राम तो वहाँ उपस्थित सभी जन विलाप करने लगते , सब के नेत्र झर जाते । यें है नाम , जाग्रत नाम । बहन को देख आश्चर्य होता , कि वहीँ नाम हम कहे तो हमें ही व्याकुलता नहीँ और वही ही नाम सरकार कहे तो , वास्तविक नाम पूर्ण है , उच्चारण में साक्षात् अनुभूति होगी ही ।
जो स्वतः चैतन्यमय है , उसके लिए बाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीँ होती , परन्तु नामाभास में उच्चारण कर्ता का कर्तृत्वाभिमान रहता है (मैं नाम ले रहा हूँ , जबकि नाम हम पर कृपा कर रहे है ) । तब भी लम्बे समय तक गुरुपदेश और आंतरिक शुद्धता के अनुसार उच्चारण करते करते नामाभास  भी किसी-किसी भाग्यवान प्रेमी जन के कन्ठ में नामरूप में परिणत हो कर अपने आप को ध्वनित करता है ।
नाम के जाग्रत होने पर उसके प्रभाव से सद्गुरु की प्राप्ति और उसके बाद सद्गुरु से इष्ट मन्त्ररूपी विशुद्ध बीज की प्राप्ति हो सकती है । बीज के क्रमविकास से चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है और देह एवम् मन की सारी मलिनता दूर होकर सिद्धावस्था का उदय होता है । मन्त्रसिद्धि वस्तुतः भूतशुद्धि और चित्तशुद्धि के फलस्वरूप होती है । इस अवस्था में स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है इसलिये समस्त अभावों की निवृत्ति हो जाती है । यद्यपि यह अवस्था सिद्धावस्था के अन्तर्गत मानी जाती है , परन्तु यह भगवत्भजन की प्रारम्भिक अवस्था है । माता के गर्भ से उत्पन्न मलिन देह से यथार्थ भगवत्भजन नहीँ होता । इतनी बात इसलिए कही की प्रारम्भिक अवस्था तो यें है तो हम कितने दम्भ में स्वयं को क्या क्या समझने लगते है । क्रमशः .... -- संकलन और भगवत्कृपा से सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

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