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ब्रज पवन । मंजु गुप्ता दीदी

राधे राधे
ब्रज-पवन

ऐसा कौन संदेश ?
तुम्हारे अंदर निहित रहता है
ब्रज से आती हुई पवन से
भक्त-जन एक ही बात कहता है।

क्यों इतनी सकुचाई सी हो
चंचल किशोर वय-संधि सी
लालिमा लाज से युत मुख हुआ है
क्या कान्हा को स्पर्श करी हो?

मंद सुगंधित अति ही प्रफुल्लित
छू तुम्हें लता वल्लरी पल्लवित हुई
इतराती मोहमस्त अलकें बिखराती
क्या कान्हा से अठलेलि करी हो?

मृदुल हास लजीली सजीली स्मित
नृत्य गान की झंकृत स्वर लहरी
सुन सुन कर खग कुल किल्लोलित
क्या युगल दम्पत्ति संग नृत्य करी हो?

क्या छुपा रही हो हमसे ?
हरि का पीताम्बर संग उड़ा कर
सुधबुध अपनी विस्तृत कर रही
क्या कान्हा-अलकावलियों से खेल करी हो?

सौभाग्यवती तुम,अति बडभागन
मैं भी गहरे अंतस: तक प्यासी
निश्चय ही संग तुम्हारे होगी
दुर्लभ प्रभु पद-रज,करो महादान।

प्रभु का संवाद सुनाओ
अति श्रवनातुर मेरे कान
मुझ संग बाँट कर कान्हा-क्रीड़ा, अति उदार बनोगी?
क्या मुझ पर यह उपकार न करोगी?
(डाॅ.मँजु गुप्ता)

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