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भगवान का मित्र होना भी अत्यन्त दुर्लभ है।

भगवान का मित्र होना भी अत्यन्त दुर्लभ है।

सूरदासजी ने एक पद में खेल के प्रसंग का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है जिसमें श्रीकृष्ण हार जाते हैं और श्रीदामा जीत जाते हैं।

पर श्रीकृष्ण दांव देना नहीं चाहते और खेलना भी चाहते हैं तब श्रीदामा कहते हैं कि:- खेलते समय क्यों गुस्सा करते हो, तुम हमसे जाति में तो बड़े नहीं हो न ही हम तुम्हारे घर में रहते हैं।

कान्हा तुम इसीलिए अधिकार जमाते हो क्योंकि तुम्हारे पास ज्यादा गाएं हैं:–

खेलत मैं को काको गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ॥

जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातैं अधिक तुम्हारें गैयाँ॥

रूठहि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियो करि नंद-दुहैयाँ॥ (सूरसागर)

भावार्थ :-- सखाओं ने कहा:- श्याम खेलने में कौन किसका स्वामी है।
तुम व्रजराज के लाड़िले हो तो क्या हो गया, तुम हार गये हो और श्रीदामा जीत गये हैं, फिर झूठ-मूठ झगड़ा करते हो?

जाति-पाँति तुम्हारी हम से बड़ी नहीं है, तुम भी गोप ही हो ओर हम तुम्हारी छाया के नीचे, तुम्हारे अधिकार एवं संरक्षण में बसते भी नहीं हैं।

तुम अत्यन्त अधिकार इसीलिये तो दिखलाते हो कि तुम्हारे घर हम सब से अधिक गाएँ हैं।

जो रूठने-रुठाने का काम करे, उसके साथ कौन खेले।'

यह कहकर सब साथी जहाँ-तहाँ खेल छोड़कर बैठ गये।

सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी तो खेलना ही चाहते थे, इसलिये नन्दबाबा की शपथ खाकर कि "बाबा की शपथ मैं फिर ऐसा झगड़ा नहीं करूँगा" दाव दे दिया।

गोपकुमारों ने श्रीकृष्ण को समान भाव से खूब बरता है।

व्रज के सखाओं और मित्रों को उनके ऐश्वर्य का भान भी नहीं था।
यदि कभी उन्हें ऐश्वर्य का भान होता भी है तो वे स्वयं ही उसे भूल जाते हैं या श्रीकृष्ण उन्हें भुला देते हैं।

आँखमिचौनी, गुल्लीडण्डा, चकई-भौंरा, माखन चोरी, गोचारण, सखाओं के साथ वन भोजन, गेंद खेलना, गोवर्धन-पूजन, वरुणलोक दर्शन, झूला, हास्य-विनोद आदि लीलाएँ श्रीकृष्ण की सख्यभावमयी लीलाएं हैं।

ये सभी लीलाएं सखाओं को परम आनन्द देने वाली हैं।

श्रीदामा आदि सखा खेल-खेल में भगवान को घोड़ा बनाकर उनकी पीठ पर चढ़कर अपना दाँव लेने से नहीं चूकते, इससे और गहरी मित्रता कहां देखने को मिल सकती है।

भगवान के साथ खेलना, भगवान से रूठना, फिर हृदय से लगाना, भगवान की बराबरी करना–यह तभी संभव है जब अपने को मिटाकर उनके सुख में सुखी रहने की लगन लगी रहे।
उनके ईश्वरत्व को भूल जाएँ, उन्हें अपना मित्र और हितैषी समझें और स्वार्थ की तो गंधमात्र भी न हो।

यदि ऐसा न होता तो फटे कपड़ों की चिन्दियों से बनी गेंद को लाने के लिए श्रीकृष्ण कालियदह में नहीं कूद जाते।

अपने परम मित्र मनसुखा का दु:ख उनसे देखा नहीं गया, मित्र की हठ थी कि मुझे वही गेंद चाहिए।

अब वह तो जल में कूद कर ही वापिस लाई जा सकती है, तो मित्र की हठ को पूरा करने के लिए श्रीकृष्ण कालियदह में कूद गए।

श्रीकृष्ण ने अपने सम्पूर्ण लीलाकाल में अपने मित्रों के दु:ख को पहिचाना।
वे जीती हुई बाजी भी मित्र के हित में हार जाते हैं–’हरि हारे जीते श्रीदामा।’

बालसखा सुदामा के दारिद्रय से द्रवित होकर, बिना याचना के ही अपना लोक दे डाला, श्रीकृष्ण का प्रेम सभी के साथ निष्कपट है।

पं. श्रीकृष्णगोपालाचार्यजी के शब्दों में:-

माई री ! अचरज की यह बात।
निर्गुण ब्रह्म सगुन ह्वै आयौ, बृज में ताहि नचात॥

पूरन ब्रह्म अखिल भुवनेश्वर, गति जाकी अज्ञात।
ते बृज गोप-ग्वाल संग खेलत, वन-वन धेनु चरात॥

जाकूँ बेद नेति कहि गावैं, भेद न जान्यौ जात।
सो बृज गोप-बन्धुन्ह गृह नित ही, चोरी कर दधि खात॥

शिव-ब्रह्मादिक, देव, मुनि, नारद, जाकौ ध्यान लगात।
ताकूँ बांधि जसोदा मैया, लै कर छरी डरात॥

जाकी भृकुटि-बिलास सृष्टि-लय, होवै तिहुँ पुर त्रास।
‘कृष्णगुपाल’ ग्वाल डरपावत, हाऊ तें भय खात॥

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