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Showing posts from February, 2016

प्रेम और तुमसे किसने कहा , सत्यजीत

प्रेम और तुमसे किसने कहा तुम्हें नहीँ , नहीँ ऐसा नहीँ .... तुमसे तो नहीँ देखा है हाल तुम्हारे आशिक़ों का मोहन !! कोई अधूरा तो कोई बिखरा क्या हाल कर देते हो ज़िन्दगी तबाह भी नहीँ होती तलाश पूरी भी नहीँ होती बेकरारी तो सोने भी नहीँ देती मरने को भी तो आशिक़ी राज़ी नहीँ होती सब होता भी है और कुछ होता भी नहीँ चिलमन बुझे तो साये जाते नहीँ नहीँ , तुमसे नहीँ तुम ने फ़क़त कहाँ किसी को सलामत भी छोड़ा जिसको देखा नज़रों से मार कर ही छोड़ा हम जी नहीँ रहे मर रहे है ... तुम मरने नहीँ दोंगे और जीने भी कहाँ दोंगे ग़र किसी बार सच में भी मन हो मुहब्बत का तुम्हें तो ज़रा पलकों से पूछना फ़क़त वह तब तक जान जाएं हमें हम आते है और लौट जाते है -- सत्यजीत तृषित क्यों तुम उतरते हो और अधूरे उतरते हो किसी रोज कुछ यूँ भी उतरो मुझमेँ तुम ही तुम रहो हम गुम भी ना रहे ना बख्शो कोई सितारों की ज़न्नत बस एक पल गुज़रे तुम बिन तो हम भी हम क्यों रहे

श्रीवृषभानुनन्दिनी से प्रार्थना

श्रीवृषभानुनन्दिनी से प्रार्थना सच्चिदानन्दघन दिव्यसुधा-रस-सिन्धु व्रजेन्द्रनन्दन राधावल्लभ श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र का नित्य निवास है प्रेमधाम व्रज में और उनका चलना-फिरना भी है व्रज के मार्ग में ही। यह मार्ग चित्तवृत्ति-निरोध-सिद्ध महाज्ञानी योगीन्द्र-मुनीन्द्रों के लिये अत्यन्त दुर्गम है। व्रज का मार्ग तो उन्हीं के लिये प्रकट होता है, जिनकी चित्तवृत्ति प्रेमघन-रस-सुधा-सागर आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्दों की ओर नित्य निर्बाध प्रवाहित रहती है, जहाँ न निरा निरोध है और न उन्मेष ही, बल्कि दोनों की चरम सीमा का अपूर्व मिलन है। इस पथ पर अबाध विहरण करती हुई वृषभानुनन्दिनी रासेश्वरी श्रीश्रीराधारानी का दिव्य वसनाञ्चल विश्व की विशिष्ट चिन्मय सत्ता को कृतकृत्य करता हुआ नित्य खेलता रहता है, किसी समय उस वसनाञ्चल के द्वारा स्पर्शित धन्यातिधन्य पवन-लहरियो का अपने श्रीअग्ड़ से स्पर्श पाकर योगीन्द्र-मुनीन्द्र-दुर्लभ-गति श्रीमधुसूदनपर्यन्त अपने को परम कृतार्थ मानते हैं, उन श्रीराधारानी के प्रति हमारे मन, प्राण, आत्मा - सबका नमस्कार !— यस्याः कदापि वसनाञ्चलखेलनोत्थ- धन्यातिधन्यपवनेन कृता

हरि रोवत विरूझावत उबटन लगवावत , मंजु दीदी

जय श्री राधेकृष्ण हरि रोवत विरूझावत उबटन लगवावत। जसुदा स्नेह-गोद गहि दुलार पुचकार, मृदु कर फेरि-फेरि मनावत। हरि नीलकमल सम, पीरौ उबटन, सोभा बरनि न जाई। सुघड़ नीलमणि, पीत-दिव्य-मुक्ता सम राजत, मैया रीझ-रीझ लपटाई। अद्भुत रूप-लावण्य, अपलक निमिमेष निरखति मैया, बरौनी जनि झपकाई। नील दैदिप्य कोटि चंद्रोदय, पीत आभा-बिंदु उबटनौ अंग-अंग सिंगारत लखि सुत-गात-कान्ति,बेसुध मैया-उर सुखामृत-सिंधु, लै लै हिलोर बाढ़त। कलप-कलप तप करि मुनि'मँजु'इहिं सुख हरि संग कबहुँ जनि पावत। (डाॅ.मँजु गुप्ता)

राधा जी का स्वरूप

🙏🙏🚩श्री राधा का स्वरुप 🚩🙏🙏 जहाँ कोई आकांक्षा नहीं, जहाँ कोई वासना नहीं, जहाँ अहम् का सर्वथा विस्मरण - समर्पण है, जहाँ केवल प्रेमास्पद के सुख की स्मृति है और कुछ भी नहीं - यह एक विचित्र धारा है और इस धारा का मूर्तिमान रूप ही श्री राधा है. जितनी और सखियाँ है, जितनी और गोपांगनाएं हैं, वे सब राधाव्युह के अंतर्गत आती हैं और राधा इस भाव धारा की मूर्ति मति सजीव प्रतिमा हैं. राधा का आदर्श - राधा का जीवन इसीलिए ब्रह्मविद्या के लिए भी आकांक्षित है. यह कथा आती है पद्मपुराण के पतालखंड में - ब्रह्मविद्या स्वयं तप कर रही हैं. उनको तप करते देखकर ऋषि पूछते हैं कि आप कौन हैं ? आप क्यों इतना कठिन तप कर रही हैं ? ब्रह्म विद्या ने कहा-- में ब्रह्मविद्या हूँ . ऋषियों ने पूछा आपका कार्य ? ब्रह्मविद्या ने कहा - कि सारे जगत को अज्ञान से मुक्त करके ब्रह्म में प्रतिष्ठित कर देना - यह मेरा कार्य है. सारे जगत के अज्ञान तिमिर को सर्वदा के लिए हर लेना और ज्ञान को प्रकाशित करना यह उनका स्वाभाविक कार्य है. ऋषियों ने पूछा - तो फिर आप तपस्या क्यों कर रही हैं ? वे यह तो न कह सकीं कि राधा भाव की प्राप्ति के लिए

बेगम ताज का पद

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है। माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान, कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है। दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज, चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है। नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा, वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।। सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम, दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं। देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी, तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं।। नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै, हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं। बेगम ताज

शरणागति

शरणागति । यहाँ क्या चाहिए , कैसी स्थिति चाहिए ? सच में तो यहाँ कुछ प्रयास नहीँ । यहाँ अपनी प्यास और सच्ची असमर्थता चाहिए । जो उनसे होगा , वो हमसे नहीं । अपने दर पर किसी को यूँ आये क्या मैंने सम्भाला । कौन हूँ मैं , कितनी सूक्ष्मतायें है ? क्या अपने घर के कीट-मच्छर आदि , चींटियों से मेरा कोई परिचय है ? क्या कभी अपने से लघुतर जीवों पर मेरी दृष्टि गई ? क्या कभी अपने तन पर चढ़ती चींटी की मैंने सहायता की ? या उसे जाने अन्जाने मार डाला ? जब मुझे किन्हीं सूक्ष्म दिखते जीवों से कोई सम्बन्ध नहीँ तो कैसे कोई मुझसे परम् मेरा सम्बन्धी हो ? जब मुझमेँ प्रभुता तो है अपने से छोटे जीवों के प्रति पर करुणा और प्रेम नही । कितने परम् ईश्वर की करोड़ों सृष्टियों में असंख्य जीवों में कोई एक जीव । बस यें हूँ उनके आगे । क्या किसी दस पाँच फेक्टरी वाले धनी को अपने सभी कर्मचारियों से अपनत्व होता है । या पता भी होता है सबका , तो यहाँ तो सृष्टियों की संख्या भी अज्ञात है । जीवों की क्या कहीँ जाएं ? कैसा साधन हो असीमित व्यापक परम् के समक्ष , उनकी प्राप्ति का । विचार करिये । बूँद रेगिस्तान में जो गिरी हो कैसी उछाल लग

नारद कृत स्तवन

नारदकृत राधा-स्तवन एक समय नारदजी यह जानकर कि ‘भगवान श्रीकृष्ण व्रज में प्रकट हुए हैं’ वीणा बजाते हुए गोकुल पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होनें नन्दजी के गृह में बालक का स्वाँग बनाये हुए महायोगीश्वर दिव्य-दर्शन भगवान अच्युत के दर्शन किये। वे स्वर्ण के पलंग पर, जिस पर कोमल श्वेत वस्त्र बिछे थे, सो रहे थे और प्रसन्नता के साथ प्रेमविह्वल हुई गोपबालिकाएँ उन्हें निहार रही थीं। उनका शरीर सुकुमार था; जैसे वे स्वयं भोले थे। वैसी ही उनकी चितवन भी बड़ी भोली-भाली थी। काली-काली घुँघराली अलकें भूमि को छू रही थीं। वे बीच-बीच में थोड़ा-सा हँस देते थे, जिससे दो-एक दाँत झलक पड़ते थे। उनकी छवि से गृह का मध्यभाग सब ओर से उद्भासित हो रहा था। उन्हें नग्न बालरूप में देखकर नारदजी को बहुत ही हर्ष हुआ। उन्होंने नन्दजी से कहा - ‘तुम्हारे पुत्र के अतुलनीय प्रभाव को, जो नारायण के भक्तों का परम दुर्लभ जीवन है, इस जगत में कोई नहीं जानता। शिव, ब्रह्मा आदि देवता भी इस विचित्र बालक में निरन्तर अनुराग रखना चाहते हैं। इसका चरित्र सभी के लिये आनन्ददायी है। अचिन्त्य प्रभावशाली तुम्हारे शिशु में स्नेह रखते हुए जो लोग इसके पुण्य-चर