सखी री महारस दायी ये प्रेम वियोग वियोग आहा वियोग .....॥ प्रेम की पराकाष्ठा तक सहज ही पहुंचाने वाला परम वरेण्य है वियोग ॥ संयोग और वियोग प्रेम के दो पात कहे गये हैं पर लागे है कि वियोग अधिक श्रेष्ठ है ॥ कोई कहे कैसै । वियोग तो महा पीड़ादायक न ॥ हां री पर वही पीडा तो प्रेम के सर्वोच्चतम शिखर पर ले जावे ॥ संसार भी प्रेम का अनुभव करता परंतु वह वास्तविक प्रेम नहीं वरन काम है अर्थात् हमारी कामना पूरी हो जावे ॥ प्रत्येक संबंध ही काम जनित है अथवा मोहजनित ॥ संसार में भी प्रिय का वियोग प्राप्त होता है ॥ उस वियोग में इच्छित व्यक्ति या वस्तु का अभाव उत्पन्न होने पर उसे पाने की कामना बढती जाती ॥ दिनोंदिन बढती उसे प्राप्त करने भोगने की इच्छा और इसे ही संसारी ,प्रेम का बढना कहते ॥ परंतु वास्तव में तो यह कामना का प्रगाढ़ होना ही है ॥ इच्छित व्यक्ति या वस्तु के प्राप्त होने पर भोग होने पर बडा आनन्द मिलता परंतु धीरे धीरे वह आनन्द कम होने लगता क्योंकि वास्तव में आनन्द उस व्यक्ति में नहीं वरन हमारे मन में होता जो एक जगह एकाग्र होने पर अनुभूत होने लगता ॥ वही व्यक्ति जो सर्वाधिक इच्छित था अप्रिय हो जाता