!!!~~~ श्री वृन्दावन महिमा ~~~!!!
तीन लोक चौदह भुवन, प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं।
जगमग रह्यो जराव सौ, श्री वृन्दावन माहिं।।
श्री ध्रुवदास कहते हैं कि तीन लोक और चौदह भुवनों में सहज प्रेम के दर्शन कहीं नही होते। यह तो एकमात्र श्री वृन्दावन में कञ्चन में जड़ी मणि की भाँति जगमगा रहा है।
प्रेमी बिछुरत नाहिं कहुँ, मिल्यौ न सो पुनि आहि।
कौन एक रस प्रेम कौ, कहि न सकत ध्रुव ताहि।।
ढूँढ फिरै त्रैलोक जो, बसत कहूँ ध्रुव नाहिं।
प्रेम रूप दोऊ एक रस, बसत निकुञ्जन माहिं।
श्री ध्रुवदास कहते हैं कि कोई तीनो लोकों में अच्छी तरह से ढूँढ ले फिर भी इन दोनों का निवास कहीं नही मिलेगा। प्रेम और रूप दोनो एक रस रहकर केवल श्री वृन्दावन की निकुञ्जों में निवास करते हैं।
नित्य भूमि मण्डल सहज, श्री वृन्दावन ऐन।
रतन जटित जगमग रह्यो, रसिकन मन सुख दैन।।
श्री राधा मोहन के निवास स्थल श्री वृन्दावन की भूमि नित्य और सहज रूप से मण्डलाकार है। रसिकों के मन को सुख देने वाला श्री वृन्दावन रत्न जटित होने के कारण सर्वदा जगमगाता रहता है।
तरनिसुता चहुँदिशि बहै, शोभा लिए अथाह।
मानो ढरयौ सिंगार रस, कुण्डल बॉधि प्रवाह।।
श्री वृन्दावन के चारों ओर श्री यमुना जी शोभा लिए प्रवाहित होती रहती है। उनको देखकर ऐसा मालूम होता है कि स्वयं श्रृंगार रस कुंडल बाँध कर श्री वृन्दावन के चारो ओर बह रहा है।
आवत उपमा और उर, अद्भुत परम रसाल।
वृन्दावन पहिरी मनो, नील मनिन की माल।।
श्री यमुना जी को देखकर मेरे मन में एक परम सरस एवं अद्भुत उपमा और आ रही है। श्री यमुना जी ऐसी लग रही हैं मानो श्री वृन्दावन ने नील मणियों की माला धारण की है।
हेम बरन अद्भुत धरनि, मनिनु खचित बहु रंग।
बिच-बिच हीरन की झलक, मानो उठत तरंग।।
श्री वृन्दावन की भूमि अद्भुत हेम वर्ण की है जिसमें अनेक रंग की मणियाँ खचित हो रही हैँ।उनके बीच में जड़े हुए हीरों की झलक को देखकर ऐसा लगता है मानों तरंगे उठ रही हों।
मृगी-मयूरी-हंसिनी, भरी प्रेम आनन्द।
मत्त मुदित पीवत रहैं, जुगल कमल मकरन्द।।
श्री वृन्दावन की मृगी, मयूरी और हंसिनी प्रेमानन्द से भरी हुई मोद मत्त होकर श्री श्यामाश्याम रूपी युगल कमलों के रूप-मकरन्द का पान करती रहती हैं।
कुञ्ज-कुञ्ज अति झलमलै, आसन सेज सुदेश।
सहज सौंज छिन छिन नई, कहि न सकत छवि लेश।।
श्री वृन्दावन की प्रत्येक कुञ्ज में सुन्दर शैया रूपी आसन झलमलाते रहते हैं। वहाँ की सम्पूर्ण सामग्री सहज होने के कारण क्षण-क्षण में नवीन बनती रहती है। उनकी छवि के लेश मात्र का वर्णन मुझसे नहीं बन रहा है।
आनन्द बन बरसत कुँवरि, कुञ्जन में जहाँ नित्त।
सुरँग लता द्रुम-फूल-फल, झूम रहे जित-कित्त।
श्री वृन्दावन की कुञ्जों में कुँवरि श्री राधा नित्य आनंद जल का वर्षण करती रहती हैं, जिससे सुन्दर रंग पूर्ण लता-द्रुम एवं फूल फल जहाँ-तहाँ झूमते रहते हैं।
.........जय रसिकन धन, जय वृन्दावन।
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