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Showing posts from March, 2018

काल क्रिया क्रम नायं, उमगि । कहत कह्यौ नहि जाय, उमगि

[3/23, 19:31] Yugalkripa sangini ju: *काल क्रिया क्रम नायं, उमगि।कहत कह्यौ नहिं जाय, उमगि।* श्रीहरिदास !! अरी सखी...भोरी सखी जु तनिक किवड़िया पर बंधे सुंदर बंदनवारों की ओट से भीतर निकुंज में नयनाभिराम रसझाँकी का दरस कर कहतीं हैं कि प्रियालाल जू ऐसे रसीले रंगीले हुए रूपमाधुरी में डूबे रसपान कर रहे हैं कि उन्हें स्वदेह रंग रूप का तनिक बोध नहीं...और तो और...अब परस्पर सुखद रसानुभूति कराने हेतु दोनों ऐसे परस्पर में डूबे उतरे उमगि रहे हैं कि जैसे इन्हें देस काल...किसी क्रिया क्रम तक का कोई भान ना रहा... बस एक ही तृषा...एक ही उमँग...कि क्या कर...कैसे वे परस्पर को सुख प्रदान करें... इनके रूपसौंदर्य में प्रतिक्षण जो विस्तार हो रहा है उससे ये अत्यधिक प्रगाढ़ रसतरंगों में उतरते बहकते समाते जा रहे हैं...अन्यत्र भी कोई क्रिया या कुछ भिन्न घटित हो रहा होगा...युगल अबोध शिशुवत रसक्रीड़ा करते ही जा रहे हैं जिसके नित नव नित नूतन रस संचार से उनमें रसीली उन्मगता भरना स्वाभाविक है...निमेशभर की भी कोई उलझन उन्हें परस्पर से सुलझने नहीं दे रही और गहन...गहन...गहनतम रसीले रसबांवरे होते ना अघाते प्रियालाल जू..

प्यारी प्रियतम रूप, उमगि , संगिनी जू

*प्यारी प्रियतम रूप, उमगि।प्यारौ प्रिया स्वरूप, उमगि।* श्रीहरिदास !! रसीली रंगीली प्यारी जू उमगि उमगि प्रियतम के रूप माधुर्य पर बलिहार जाती है...जैसे बालपन में भोलाभाला शिशु माँ के दुग्धपान से ही संवरता निखरता है और माँ अपने ही माधुरी रूपसुधा का पान कराती बालक को सम्पूर्ण विश्व में रूपवान अत्यंत सुंदरतम जानती मानती है ऐसे ही प्यारी जू अह्लादिनी शक्ति स्वरूपिणी प्रियतम के स्वपुष्ट होते रूपमाधुर्य लावण्य को निरख निरख उन्मादित हुल्लसित होती हैं और उन्हें रसपिपासु जान उनके करों की मधुर रसतरंगिनी बांसुरी सी हो उठी हैं...अहा... ... ... प्यारी जू रसललायित प्रियतम के अधरों से ऐसे रससुधा का पान करा रहीं हैं कि स्वयं स्वामिनी प्यारे जू के रूप पर आसक्त हुईं उन्हें प्राणाराधिका कैंकरत्व प्रदान कर रहीं हैं...प्रियतम रससुधा का पान करते ना अघाते और रोम रोम प्रतिरव बांसुरी में डूबते जा रहे हैं और प्यारी बांसुरी बनी प्यारे जू को अनन्तरस की समुद्र रसतरंगों में निमज्जन करातीं उनके ही रसिक शिरोमणि रूप पर बलि बलि जातीं प्रतिरव सुघड़ सुंदरतम रूपसुधा का पान करातीं हैं...प्रियतम जैसे बांसुरी में बढ़ते रससंच

लज्जाशीला श्रीप्रिया जू भाव 2 , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगिनी जू

*लज्जाशीला श्रीप्रिया* "बूँदें सुहावनी री लागति मति भींजै तेरी चूनरी। मोहिं दै उतारि धरि राखौं बगल में तू न री।। लागि लपटाइ रहैं छाती सौं छाती जो न आवै तोहिं बौछार की फूनरी। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कहत बिजुरी कौंधे करि हाँ हूँ न री।।" अधर धर जब वेणु बजाई...प्राणसंगिनी श्रीप्रिया वेणु वेणु रूप रोम रोम रव रव बन अंगसंगिनी सुवास सुवास होकर समाई...अहा... ... ... सखी री...लज्जा प्रेम में एक ऐसा भाव जो तनिक सा भी भरे पुरे तो लज्जा लज्जा से लिपट सिमट कर लज्जा में ही समावे री... मधुर मंथर मंद मंद पवन के सान्निध्य में कमलिनी लजा जावै...जैसे पवन इसे सुवासित देख सुवासित हो रही और कमलिनी पवन की मंद मंद रसीली छुअन से लजाती इत उत डोलती...तब यह पवन किंचित गहन स्वरूप धर घन हो जाती कमलिनी की लज्जित सुवासों की गहनता से...ब्यार जब घनरूप हो तनिक सरसीली अपनी नन्ही नन्ही ओस की बूँद मात्र कमलिनी पर गिराती तो महक चहक कर ये और लजा जाती और भीगती सिमटती सी पवन के रस से सनी किंचित झुक जातीं...प्रतिपंखुड़ी जैसे पलक पर श्रमजलकण सजती ये कमलिनी...भीतर ही भीतर लज्जा से भरी रसब्यार के आगोश में पूर्णत

पदकमल नूपुर राजति

*पदकमल नूपुर राजति* हे वृषभानुनन्दिनी! हे कीर्तिदा ! आपके सुकोमल पादपदमों में सुशोभित नूपुर की मैं वन्दना करती हूँ । हे निकुंजेश्वरी !इस दासी की कोई योग्यता नहीं कि आपके चरण कमलों का भी गुणानुवाद कर सकूँ, परन्तु स्वामिनी आपके चरणों की सुशीतल छाया को छोड़ इस दासी की कोई और ठौर भी तो नहीं है। आपके चरण कमलों की कोर ही इस दासी के हृदय का वास्तविक धन है। जिस प्रकार एक धनिक को अपने धन का अभिमान रहता है , हे किशोरी जु !आपकी इस दासी के हृदय में भी अपनी स्वामिनी के चरणों के गुणगान का लोभ उदय हुआ है। हे कोमालंगी!कब अपने कोमल चरण कमलों की सेवा इस दासी को प्रदान करोगी।कब आपके कोमल जावक सुसज्जित चरण कमलों की शोभा नेत्र भर निहार पाऊँगी , जिसकी सेवा को त्रिभुवन नायक श्रीकृष्ण भी सदा लालायित रहते हैं।    हे स्वामिनी!आपके जावक रचे चरणों का लालित्य जो श्रीप्रियतम के अनुराग से नित्य नित्य रंजित, नित्य वर्धित है , कब उसके सौरभ में डूब यह दासी स्वयम को भाग्यशाली अनुभव करेगी।    आपके चरणों मे सुशोभित नूपुर जिसके एक एक रव से  कोटिन कोटि वेद मन्त्र निकलते हैं , कब उसका दर्शह्न कर अपने व्याकुल हृदय को शांत क

लज्जाशीला श्रीप्रिया , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगीनि

*लज्जाशीला* श्रीप्रिया "तेरो मग जोवत लाल बिहारी। तेरी समाधि अजहूं नहीं छूटत चाहत नाहिंने नेंकु निहारी।। औचक आइ द्वै कर सौं मूँदे नैन अरबराइ उठी चिहारी। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा ढूँढत वन में पाई प्रिया दिहारी।।" लज्जा...ए री लज्जा...रस छलछलाती रसपुतरियों को किंचित ढुरकने तो दे...तनिक नयन तो उठा...झुकी पलक तो उघार री...देख स्यामल श्याम ढल आई री...निरख तो चंद्र रात्रि की काली चादर पर चाँदनी बिखेर रहा री...और...और सखी री...तनिक मुँदे नयनों पर धरे सुकोमल पत्रों की किवड़िया से झाँकी निहार तो...सितारे जगमगाने को...चंदा आला के घेराव से तेरी महक पर भ्रमरवत झुक आया पर जैसे ये उसे रोक रहा कि अभी नहीं...तनिक महक को गहराने दो...और तुम अपनी ही शीलता में डूबी लजाई सिमटी निखरती गहराती जा रही...अहा... ... ... रात की रानी गौर रंगीली सी किंचित संध्या की ललिमा में नहाई महकी हुई झुकी झुकी लजा रही है...रात्रि की गोद में जो भोर सुषुप्त सी...और लज्जा ऐसी कि घुंघराली काली अलकों पर कंठ तक घूँघट और घूँघट पर भी निशाकालीन रसलिप्त गहन क्षुधित अंधियारा...लताजाल मुख पर ऐसे कि लज्जाशीला रात की रानी क