[3/23, 19:31] Yugalkripa sangini ju: *काल क्रिया क्रम नायं, उमगि।कहत कह्यौ नहिं जाय, उमगि।* श्रीहरिदास !! अरी सखी...भोरी सखी जु तनिक किवड़िया पर बंधे सुंदर बंदनवारों की ओट से भीतर निकुंज में नयनाभिराम रसझाँकी का दरस कर कहतीं हैं कि प्रियालाल जू ऐसे रसीले रंगीले हुए रूपमाधुरी में डूबे रसपान कर रहे हैं कि उन्हें स्वदेह रंग रूप का तनिक बोध नहीं...और तो और...अब परस्पर सुखद रसानुभूति कराने हेतु दोनों ऐसे परस्पर में डूबे उतरे उमगि रहे हैं कि जैसे इन्हें देस काल...किसी क्रिया क्रम तक का कोई भान ना रहा... बस एक ही तृषा...एक ही उमँग...कि क्या कर...कैसे वे परस्पर को सुख प्रदान करें... इनके रूपसौंदर्य में प्रतिक्षण जो विस्तार हो रहा है उससे ये अत्यधिक प्रगाढ़ रसतरंगों में उतरते बहकते समाते जा रहे हैं...अन्यत्र भी कोई क्रिया या कुछ भिन्न घटित हो रहा होगा...युगल अबोध शिशुवत रसक्रीड़ा करते ही जा रहे हैं जिसके नित नव नित नूतन रस संचार से उनमें रसीली उन्मगता भरना स्वाभाविक है...निमेशभर की भी कोई उलझन उन्हें परस्पर से सुलझने नहीं दे रही और गहन...गहन...गहनतम रसीले रसबांवरे होते ना अघाते प्रियालाल जू..