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Showing posts from 2016

मोरकुटी युगल लीला रस 14 , संगिनी जु

मोरकुटी युगल लीला-14 जय जय श्यामाश्याम  !! अप्राकृत लीला राज्य का असर प्राकृत राज्य पर होना स्वाभाविक ही है।मधुर राग छिड़ते ही जैसे प्रकृति नाच उठी और जैसे जैसे मधुर राग गहराता है वैसे ही प्रकृति की मधुरिमा में श्यामा श्यामसुंदर जु रसरंग बहना गहराता है।मधुर राग धीरे धीरे नाद का रूप ले लेता है और यह नाद फिर बाहरी यंत्र से ना सुनाई देकर अपने भीतर से ही सुनाई आने लगता है।गहराईयों में उतरे इस अनहद नाद से हृदय में जो प्रियतम मिलन की उत्कण्ठा बढ़ती है वह भीतर देह विस्मरण कराती जाती है और स्वरूप से विच्छेद।         ललिता सखी जु ने ज्यों ही पूर्वराग हेतु वीणा उठा उस पर प्रेमराग छेड़ा वैसे ही श्यामा श्यामसुंदर जु रस प्रतीति से स्व को भूलकर परस्पर रससुख प्रदान करने लगे।वहाँ मयूर मयूरी नृत्य कलाक्रीड़ाओं में डूबी इस भ्रमरी के नयन से बहा हिमकण नयन से गिरते हुए सूर्य का ताप पा जाता है।पहले तो भीतर से सुनाई देने वाला ये नाद और फिर बाहरी ताप।बाहरी आवरण का एहसास होते ही रस जड़ता क्षीण होने लगती है।भीतर नाद से हलचल और फिर बाहर से तापरूपी मिलन परिधियों से महक जाना भ्रमरी को अपने ही गुंथे जाल से खींच लाता

मोरकुटी युगल रसलीला 13 , संगिनी जु

मोरकुटी युगल रसलीला -13 जय जय श्यामाश्याम  !! परस्पर श्यामा श्यामसुंदर जु के सुखरूप रसिक भ्रमर रस लालसा हेतु भाव बन युगल में प्रवेश पाकर स्वयं रस जड़ता को प्राप्त होते हैं।भ्रमरी के हृदय में जो भाव सफुर्ति है वह जड़ रूप होने के उपरांत हिम रूप हो चुकी थी।बाहर भीतर से कोई ताप महसूस नहीं हो रहा।मोरकुटी में अंतर्मुखता की गहन परिधियों में डूबी भ्रमरी को आज ललिता सखी जु के वीणा के तारों की ध्वनि छेड़ दिया है।          प्रियालाल जु के मयूर मयूरी स्वरूप को अपने अंतर्मन में निहारती यह भ्रमरी जैसे ही नेत्र खोलती है इसके नेत्र से एक हिमकण बह निकलता है।यह हिमकण जैसे युगों की प्रतीक्षा कर आज ही बह पाया तो इसकी गहनता गम्भीरता इसे आवरित किए हुए है जिसे छुड़ाने के लिए ताप के साथ साथ थिरकन भी अनिवार्य और प्रकट ही है इस पावन भजन स्थली पर।       श्यामा श्यामसुंदर जु अपलक एक दूसरे को निहार रहे हैं।उनको इस नृत्य श्रृंख्ला में गहन नेत्र सुख मिल रहा है।सखियों के निहारने में भी गहन नेत्र सुख है अपने प्रियालाल जु के सुख अनुरूप।परस्पर निहारते युगल के नेत्रों से करूणा व प्रेम के प्याले रस रूप भर भर छलक रहे हैं

प्रेम डगर चल दी पगली , संगिनी जु

प्रेम डगर चल दी पगली नेम कर्म ना जानू कुछ इश्क इश्क में बह गई रीत बिपरीत पहचानु ना राह फुलवारी पद पथरीले उलझ उलझ थक जाऊँ सरस सुराही में दो रंग जैसे जल जल घुल जाती हूँ प्रेम के पाले पड़ कर सखी मैं श्याम रंग बन जाती हूँ प्रेम कौ कहो कैसे तोलोगे कितना गहरा कितना भीतर आंक सको तो आंको प्यारे बहती असुवन धार को पुष्प तारे सब सजे चरणों में हूँ काबिल तो अर्पित करूँ नेह लगाया प्रेम भी पाया देह को सजाया हिय ना बसाया रोती रही निहार तुम्हें मुस्करा कर तनिक सुख ना दिया तुम निहार रहे कभी तो सहज रहूँ दे दे कर सदा तुमने ही गहराया है जीवन भर माँगा तुमसे तुमको माँगा नहीं तुमसे तुम देने को प्रेम आतुर रहे मैं झोली कामनाओं की भरती रही अब रोऊं क्यों लोक से नाता अलोक तुमसे नहीं निभाया चाहती तुमको तो नेह जग से क्यों लगाया

मोरकुटी युगल रसलीला-12 , संगिनी जु

मोरकुटी रसलीला-12 जय जय श्यामाश्याम  !! अनवरत रस प्रवाह मोरकुटी की पावन भजन स्थली पर।समय जैसे ठहर सा गया है।सखियों के लिए ये पल हृदयांकित होकर स्थिर हो गए हैं ।श्यामा श्यामसुंदर जु अपलक एक दूसरे को निहार रहे हैं।मधु भरे नयन ऐसे चार हुए हैं कि स्वयं रस बरसाते स्वयं रसमग्न हुए दो अधीर मन व्याकुलतावश एकरस हुए हैं।परस्पर निहारते कानों से अनकहा सुनते नासिका से स्वगंध लेते मदमाए हुए और किंचित लहराते मोरपंख से मोरपंख की हल्की छुअन से रससार हुए मयूरी श्यामा जु और मयूर श्यामसुंदर।अद्भुत ठहराव गहन नृत्य क्रीड़ा में।      आसमान धरा जैसे एक हो जाने को आतुर।मोरों की चहचहाहट कोकिलों की कुहू कुहू पपीहे की पीयू पीयू जलमग्न विहंगमों का मंद मधुर संगीत।मंद मंद बहती शीतल ब्यार बेलों का प्रेमालिंगन हरितिमा में नाचते झूमते पत्तों की सरसराहट सर्वत्र रस ही रस की दिव्य अनुभूति।पुष्प पेड़ों से झर झर गिरते प्रियाप्रियतम जु की चरण रज हो जाने के लिए पूरी धरा पर कालीन से बिछ रहे हैं।सम्पूर्ण निकुंज में सरोज खिले हुए यमुना जु की श्यामल जल तरंगों पर महकते बिखरते जैसे नीलजलतरंगों को पीतवस्त्र पहनाया हो।        ऐसे

मोरकुटी युगल रसलीला-11 , संगिनी जु

मोरकुटी युगल रसलीला-11 जय जय श्यामाश्याम  !! पूर्वार्द्ध शरद ऋतु में याद सजन की इतनी बढ़ती जाती है ऊपर से शीतल हवा झौंकों संग विरह की अग्न जलाती है याद करके पूर्व स्मृतियाँ मैं खुद को बहलाती हूँ हो परवश उनकी याद में आँखें भर भर जाती हूँ लेकिन शायद पिया तक यह हवा पहुँच नहीं पाती मैं विरहन हिमकण बन बन बह जाती हूँ        ऋतु कोई भी पर नित्य लीला धाम श्री निकुंज की मोरकुटी व रसिकों की भजन स्थली पर श्यामा श्यामसुंदर जु पुरूष प्रकृति स्वरूप नित्य नवसींचन हेतु नित्य नव रसक्रीड़ाओं में सदा संलग्न रहते हैं।        अत्यधिक अद्भुत नृत्य कला दर्शाते श्यामा श्यामसुंदर जु की छवि निराली है।गहनतम भावों को छूती ये नृत्य क्रीड़ा नव नव मुद्राओं में गहन रस में परिवर्तित हो रही है।यहाँ प्रियाप्रियतम जु की यह रसक्रीड़ा और वहाँ भ्रमरों की गुंजार सुन तो जैसे प्रकृति ने श्वास लेना छोड़ रसरूप नवपंकज खिलाना आरंभ कर दिया है।रस ही जैसे रस को पी कर रस ही बरसा रहा हो चहुं ओर।             यूँ तो बिन सूर्य सरोज खिलना प्रकृति के विपरीत है पर यहाँ अप्राकृत भावराज्य में सूर्य तो क्या बाँस की रसीली वंशी और ऋतुराज

प्यारी जू के नैन

प्यारी जू के नैन ~~~~~~~~ श्यामा श्यामसुन्दर का मुख कमल अपने करों से स्पर्श करती हैं । आहा ! प्रियतम आपकी ये मुख छवि दिन प्रतिदिन नई नई लगती है। जैसे आपको निहारती ही रहूँ। मेरा हृदय इस छवि को निहार निहार तृप्त ही नहीं हो रहा है। श्यामा अपने नैन मूँद लेती है। अपने प्रियतम की इस छवि को अपने नैनों में सदैव भरे रखना चाहती है।     कान्हा अब प्रियतमा के मुख कमल को निहारने लगते। प्यारी जू नैन खोलो न देखो मैं तो तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष हूँ । ये छवि इतनी मधुर है कि यदि मैंने नैन खोल लिए तो विलुप्त नहीं हो जाये। यही तो मेरे प्रियतम हैँ। प्यारी जू ! नैन खोलिए देखिये मैं इधर हूँ । नहीं नहीं तुम मुझे भर्मित नहीं करो। देखो मेरे श्यामसुन्दर तो मेरे संग हैँ। अपने नैनों से मैं हर पल उन्हें निहारती रहती हूँ। मेरा उनके संग और उनका मेरे संग एसप्रेम है हमारा वियोग सम्भव ही नहीं है। कहती हुई श्यामा जू बन्द नैनों से उसी छवि को निहारती रहती है। कान्हा प्यारी जू को स्पर्श करते हैँ प्यारी जू कम्पकपा जाती हैँ और कान्हा उन्हें अपने आलिंगन में भर लेते हैँ। श्यामा निहारत मुख प्यारे को कर सों कियो स्पर्स । नवल

मोर कुटि नृत्य उत्सव हौवे , पद भाव

मोर कुटि नृत्य उत्सव हौवे। युगल ढुरै एक होहि बैठे,श्यामा मोर श्याम श्यामा जौहवै। श्यामा मगन अनमने मोहन,सखि ललिता उपाय किन्ही। सुंदर सुगढ कर लैवत वीणा,राग सरस छेड दीन्ही। बाढत मोद मगन भयौ ऐसौ,उठ आप निरत करिहै। मोर पंख बनी सब सखियन,दुई युगल सज गहिहै। श्याम मोर मोरनी भयी श्यामा,लै लचक निरत करतौ। अद्भुद बसन भूषण बनी शोभा,एक दूसर मन हरतौ। श्वेद कण झलकत मुख माही,जौरी रस नाय छकियै। उन चरणन गहै युगल प्यारी,जिन ऐसौ दरसन करियै।

मोरकुटी युगलरस लीला-10 , संगिनी जु

मोरकुटी युगलरस लीला-10 जय जय श्यामाश्याम  !! नित्य निकुंज श्री मोरकुटी की पावन धरा पर मयूर मयूरी स्वरूप नृत्य क्रीड़ा करते युगल अप्राकृत कमल पुष्प पर पराग कणों की सेज पर सखी रूप कोमल पंखुड़ियों से घिरे प्रेम रस पिपासा हेतु परस्पर सुख अनुदान करते नव नव रसलीला में डूबे विचर रहे हैं।      श्यामा श्यामसुंदर जु जो अनंत कोटि पूर्णकाम हैं तत्सुख भाव से देह धारण कर स्वयंचित्त रूपमाधुरी का अमृतत्व पान कर रहे हैं।परस्पर नेत्रों से व कर्णप्रिय मधुर नूपुरों की ध्वनि रसपान करते श्यामा श्यामसुंदर जु रसक्रीड़ा में मंत्रमुग्ध हैं।श्यामा जु के अंगों पर लगा चंदन केसर उबटन लेप श्यामसुंदर जु को आकर्षित करता उन्हें नासिका से भी रसपान करने का आमंत्रण देता है।       अद्भुत महक जो श्यामा जु और श्यामसुंदर जु के रोम रोम से उठ कर रसप्रवाह कर रही है उससे श्यामसुंदर जु भ्रमर रूप होकर श्यामा जु की रसपरागरूपी देह पर मंडराने लगे हैं।सखीरूप मोरपंखों से रस पिपासु भंवरा रस चुराता अपनी तृषा को पल पल बढ़ा रहा है।मयूरी बनी श्यामा जु की सुघड़ सुनहरी देह पर मयूर बने श्यामसुंदर जु पीतवर्ण आवरण डाले भ्रमरों को आकर्षित कर रहे

मोर कुटी युगल लीला रस - 9 , संगिनी जु

मोरकुटी युगल लीलारस-9 जय जय श्यामाश्याम  !! श्री किशोरी जु मयूर मयूरी नृत्य दर्शन करतीं भाव विभोर हुईं स्वयं उनके रंग में रंगी नृत्य करने लगीं और श्यामा जु की भाव दशा पर श्यामसुंदर जु भी अद्भुत नृत्य भाव प्रदर्शन में बहने से खुद को रोक ना सके।सब सखियाँ अत्यधिक विचित्र भाव चित्रण करतीं युगल की रसक्रीड़ा में रसवर्धन हेतु हृदयातुर हो उतरने विचरने लगतीं हैं।      श्यामा जु की देह पर सजा श्रृंगार उनके भावों का आईना ही हो आया है और गहराते गहराते उनकी कटि किंकणियों ने मयूर पिच्छ का स्वरूप भी धारण कर लिया है।गौरवर्णा श्यामा जु की सुंदर सुकोमल लचीली कमरिया पर सखियों ने मोरपिच्छ का रूप धर लिया है।एक एक सखी एक एक मोर पंख हो आई है।श्यामा जु की देह का सुनहरी नीला वस्त्र श्रृंगार सब मयूर रूप हो गया है।उनकी करधनी पायल चूड़ी नूपुर गलहार बेसर इत्यादि पर लगे सब घुंघरू अब मोरपंख बन उनकी कटि पर आ सजे हैं।श्यामा जु के भाव रस में बहते उनकी खनक इन मोरपंखों से भी आने लगी है।      श्यामल घण के पीछे छुपे सूर्य बीच बीच में अपनी शीतल किरणों की चमक से लहराते मोरपंखों को चमकाती चटकाती है।ये रौशनी मोरपंखों से छन छ