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Showing posts from February, 2018

विदग्धा , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगिनी जू

*विदग्धा* "गुन रूप भरी विधिना सँवारी दुहूँ कर कंकन एक एक सोहै। छूटे बार गरैं पोति दिपति मुख की जोति देखि देखि रीझे तोंहि प्रानपति नैन सलौनी मन मोहै।। सब सखीं निरखि थकित भईं आली ज्यौं ज्यौं प्रानप्यारौ तेरौ मुख जोहै। रस बस करि लीने श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तेरी उपमा कौं कहिधौं को है।।" सर्वकला सम्पन्ना...आह... ... ...कैसे कहूँ सखी री...'रोम रोम जो रसना होती'...पर है ना है न सखी री... अहा...प्यारी जू सर्वगुणसम्पन्ना सर्व निधिन की निधि...सर्व रूपलावण्य की सारभूता...सर्व रसों की घनीभूत एकमात्र सर्वसुख प्रदायिनी श्यामसुंदर की सर्वरूप श्रृंगारिका हैं री... सखी...होरि आए रही ना...सर्वरूपेण सर्वसुखकारिणी जे होरि रसरंग की अति गूढ़ रहस्यात्मक उत्सवों की उत्सव री...सर्व रंग घुल एक प्रेम के गहरे रंग में उतर आते ना...तो जे बड़ो ही कलात्मक ढंग होवै री सजरी सजीली रसरंग होरि कौ... और सर्वकलानिपुणा हमारी प्रेम रसरंगभरी प्यारी दुलारी श्यामा जू सौं रंगहोरि खेलनो तो ऐसे...ऐसे जैसे सगरे रंग धुल जावैं और कलात्मक एक प्रेमरंग ही बच रह जावै री... अरी...जे प्यारी जू अनंत कलाओं को खा

आजु कुंजन में होरि*-रंगहुलास , संगिनी जू

* आजु कुंजन में होरि * -रंगहुलास सखी री...देख कुंजन की सोभा...रसरंग हुलास में भीग रह्यौ...चंदन अबीर गुलाल...री निरख कस्तूरी अंगराग घुह्लयौ...चहुं ओर होरि की होर...अहा... निरख सखी...जे रंग भीने महक रहै जुगल सौं नेह जोर...इक इक रंग रस में भींज होय गयो सुघर सुलोल... प्यारी पहिरे नील सारि अंग अनंग झाँकत किसोर...चोवे चंदन चोवे नख सिख चोवे रसकंवल भीगे सुंदर सुडोल...तनसुखसारि लाल अंगिया रिसै भरि भरि रस की नाहिं ठौर...चूनरी श्वेत रंग अनेक...श्यामल श्यामहिं अंग अंग की भोर...मौरसिरि बुलाक टपकै...टपकै कानन कुंडल सौं कपोल...गलहार टूटे...चटकै कंकन...कलाई पकरि अंक धरि चित्तचोर...वेणी भीगी कांधे सौं लपकी...लपक परि भुजंग गठजोर...पीताम्बर घिरा...नीलाम्बर सरका...पियप्यारि सजी रंग घनघोर... अब ना तेरी...ना री मेरी...सघन कुंजन में...लाल सेज पुहुप बरषा चहुं ओर...धरा लाल अंबर लाल...सजिहौ प्यारे कर सौं प्रतिरोम...आह...आह...भीतर चाह...छोरो मोहे...ना रंगो रंगरेज और...प्रीत तोरि गहरी...रसरंग भरी...सरक गई मेरी अंगिया चूनरी...सटक कर तुम हुए अंगरंग अघोर...लाल गुलाब पंखुरी बिछी...सज रही तन तें लोम विलोम...अंग सु

करुणापूर्णा श्रीप्रिया जू , उज्ज्वल श्रीप्रियाजु , संगिनी जू

"प्यारी तेरी महिमा वरनी न जाय जिंहि आलस काम बस कीन। ताकौं दंड हमैं लागत है री भए आधीन।। साढ़े ग्यारह ज्यौं औटि दूजे नवसत साजि सहज ही तामें जवादि कर्पूर कस्तूरी कुमकुम के रंग भीन। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रस बस करि लीन।।" हा प्यारी...हा किशोरी...हा करूणामई...प्रियतमसंगिनी...राधिका रसिकिनी लाड़ली जू... ... ...शुभा पुकार रही प्यारी श्रीश्यामा जू को अनवरत...अहा... जानै है सखी...जे शुभा का जाने पुकारनो...पर याकें हियविराजित पियवाणी कौ रस घोल रही जे...स्वहेतु ना री...जे तो प्रियतम हेतु प्रिय के कहने पर ही पुकार रही करूणामई श्यामा जू को...हा...हा...पुकार रही... अहा...निरख तो जैसे गईयनी कौ बाल होवै...अनवरत मईया कू पुकार पुकार कर पुकार रहा...बस...प्रेम पिपासा हेतु...और सजल करूण नेत्रनि गईयनी भी आतुर हो उठती बछिया की पुकार पर...और तुरंत वक्ष् से लिपटावै है री...जानै है याकों जही प्रेम व्यापै... आलि री...जे शुभा भी कुछ ऐसे ही प्रेम पिपासित पुकार रही प्रिया जू को और प्रिया जू भी इसे निहार निहार सजल नेत्र कर आतुर हो उठतीं... शुभा की प्रेम भरी पुकार में प्रियतम की रसमह

आज कुञ्जन माँहिं होरी , अमिता बाँवरी

*आज कुञ्जन माँहिं होरी* यूँ तो श्यामाश्याम का प्रेम निकुञ्ज सदा ही प्रेम रँग से पूरित रहता है, परन्तु आज तो कुछ विशेष ही रँग हुलास हो रहा है। युगल प्रेम रँग भीनी सखियाँ आज उन्मादित हो रहीं हैं, आह्लादित हो रही हैं, अपने प्राणप्यारे युगल वर को रंगने को उन्मादित हो रही हैं। युगल के ही प्रेम रँग को भर भर युगल पर उडेल रहीं हैं, युगल में प्रेम हुलास देख हुलसित हुई जा रही हैं। इस प्रेम रस की तरँगे प्रत्येक सखी, सहचरी,मञ्जरी, किंकरी को ऐसे रस से सराबोर कर रहा है कि वह अपने युगल को लाड़ लड़ाती हुई पुनःपुनः नाच रही हैं, गा रही हैं, झूम रही हैं। अहा!!प्राण प्यारे श्रीयुगलवर , जहाँ गौरांगी श्रीप्रिया श्यामल प्रियतम के रँग में रँगी हुई है तथा श्यामल प्रियतम गौरांगी प्रियाजु के उज्ज्वल रँग से उज्ज्वल हो हुलस रहे हैं, उमग रहे हैं, आह्लादित हो रहे हैं। सबके मुख पर एक ही गीत आज कुज्जन माहीँ होरी.....    जिस प्रकार सभी रँगों के मिल्वे से श्वेत गौर आभा प्रसारित होती है , उसी प्रकार सभी सखियाँ श्रीप्रिया से प्राप्त प्रेम रँग को श्रीगौरांगी पर उड़ेल उड़ेल और अधिक उज्ज्वल कर रही है। सभी रँगों को अपने में सम

प्यारी पुकार , सँगिनी जू

"प्यारी तेरी महिमा वरनी न जाय जिंहि आलस काम बस कीन। ताकौं दंड हमैं लागत है री भए आधीन।। साढ़े ग्यारह ज्यौं औटि दूजे नवसत साजि सहज ही तामें जवादि कर्पूर कस्तूरी कुमकुम के रंग भीन। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी रस बस करि लीन।।" हा प्यारी...हा किशोरी...हा करूणामई...प्रियतमसंगिनी...राधिका रसिकिनी लाड़ली जू... ... ...शुभा पुकार रही प्यारी श्रीश्यामा जू को अनवरत...अहा... जानै है सखी...जे शुभा का जाने पुकारनो...पर याकें हियविराजित पियवाणी कौ रस घोल रही जे...स्वहेतु ना री...जे तो प्रियतम हेतु प्रिय के कहने पर ही पुकार रही करूणामई श्यामा जू को...हा...हा...पुकार रही... अहा...निरख तो जैसे गईयनी कौ बाल होवै...अनवरत मईया कू पुकार पुकार कर पुकार रहा...बस...प्रेम पिपासा हेतु...और सजल करूण नेत्रनि गईयनी भी आतुर हो उठती बछिया की पुकार पर...और तुरंत वक्ष् से लिपटावै है री...जानै है याकों जही प्रेम लागै... आलि री...जे शुभा भी कुछ ऐसे ही प्रेम पिपासित पुकार रही प्रिया जू को और प्रिया जू भी इसे निहार निहार सजल नेत्र कर आतुर हो उठतीं... शुभा की प्रेम भरी पुकार में प्रियतम की रसमहक

करुणापूर्णा श्रीप्रियाजू 1 , उज्ज्वल श्रीप्रियाजू , संगिनी

"ऐसेई देखत रहौं जनम सुफल करि मानौं। प्यारे की भाँवती भाँवती के प्यारे जुगल किसोरहि जानौं।। छिनु न टरौ पल होहु न इत उत रहौ एक तानौं। श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी मन रानौं।।" सखी...सखी एक बात पूछूं...सच बताना...सखी कभी भीतर निहारी हो...भीतर अंतर्मन में री...तनिक निहार तो और बता क्या निरखती अपनी अंतरंग गहराईयों में...कैसा दृश्य...कैसा भाव उठता...और क्या रस उकेरा जाता अंतर्हित सखी री... नहीं...नहीं ना...ना एक बार से ना सिद्ध हो सके...अनंत बार उतरना पड़े...गहन...गहनतम उतरना पड़े...तब कहीं जा के उस युगों की तपस्या का अंतर्निहित स्वरूप उजागर हो सके और जब एक बार उजागर हो जावे तो स्वतः रसातुर बार बार कई बार उतरना हो जावे...और जब ऐसा अनंत बार हो जावे ना तब जान पड़े कि भीतर तू थी ही ना री...तब कारुण्यरस भरने लगे और करुणा जागे...कैसी करुणा...? सखी...करुणा जिससे तू हिय में अनंत जन्मों के रसपिपासु का बोध कर अपनी अंतरात्मा को नेक रसबुहारन से उसकी क्षुधा हेतु स्वयं को भूल कर कहे... ... ...आह...जे तो मैं थी ही ना...ना थी कबहुं री... अहा...तब रस बरसे...स्नेह से करुणा भर जावै और ब