*विदग्धा* "गुन रूप भरी विधिना सँवारी दुहूँ कर कंकन एक एक सोहै। छूटे बार गरैं पोति दिपति मुख की जोति देखि देखि रीझे तोंहि प्रानपति नैन सलौनी मन मोहै।। सब सखीं निरखि थकित भईं आली ज्यौं ज्यौं प्रानप्यारौ तेरौ मुख जोहै। रस बस करि लीने श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तेरी उपमा कौं कहिधौं को है।।" सर्वकला सम्पन्ना...आह... ... ...कैसे कहूँ सखी री...'रोम रोम जो रसना होती'...पर है ना है न सखी री... अहा...प्यारी जू सर्वगुणसम्पन्ना सर्व निधिन की निधि...सर्व रूपलावण्य की सारभूता...सर्व रसों की घनीभूत एकमात्र सर्वसुख प्रदायिनी श्यामसुंदर की सर्वरूप श्रृंगारिका हैं री... सखी...होरि आए रही ना...सर्वरूपेण सर्वसुखकारिणी जे होरि रसरंग की अति गूढ़ रहस्यात्मक उत्सवों की उत्सव री...सर्व रंग घुल एक प्रेम के गहरे रंग में उतर आते ना...तो जे बड़ो ही कलात्मक ढंग होवै री सजरी सजीली रसरंग होरि कौ... और सर्वकलानिपुणा हमारी प्रेम रसरंगभरी प्यारी दुलारी श्यामा जू सौं रंगहोरि खेलनो तो ऐसे...ऐसे जैसे सगरे रंग धुल जावैं और कलात्मक एक प्रेमरंग ही बच रह जावै री... अरी...जे प्यारी जू अनंत कलाओं को खा