राधे राधे..
"गीताप्रेस गोरखपुर परिवार" के ओर से आज का सत्संग :
🌷🌷 भगवान् जल्दी-से-जल्दी कैसे मिलें—यह भाव जाग्रत रहनेपर ही भगवान् मिलते हैं | यह लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती चले | ऐसी उत्कट इच्छा ही प्रेममय के मिलने का कारण है और प्रेम से ही प्रभु मिलते हैं | प्रभु का रहस्य और प्रभाव जानने से ही प्रेम होता है । थोड़ा-सा भी प्रभु का रहस्य जाननेपर हम उसके बिना एक क्षणभर भी नहीं रह सकते |
पपीहा मेघ को देखकर आतुर होकर विव्हल हो उठता है | ठीक उसी प्रकार हमें प्रभु के लिए पागल हो जाना चाहिए | हमें एक-एक पल उसके बिना असह्म हो जाना चाहिये ।
'तत्त्वचिन्तामणि' पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
↪ परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी
🌷🌷 भक्त इसीलिये भगवान् को अधिक प्यारा होता है की वह अपनी ममता सब जगह से हटा कर केवल भगवान् में कर लेता है, इसी से उसका अनन्यानुराग और मुख्यबुद्धि भी भगवान् में ही हो जाती है । वह भगवान् के लिए सब कुछ त्याग देता है ।
तुलसीदास जी ने इस सम्बन्ध में भगवान् श्रीराम के शब्द इस प्रकार गाये है-
जननी जनक बंधू सुत दारा । तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ।।
सब के ममता ताग बटोरी । मम पद मनही बाँध बरी डोरी ।।
अस सज्जन मम उर बस कैसे । लोभी ह्रदय बसई धनु जैसे ।।
'भगवच्चर्चा' पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
↪ श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी
🌷🌷 आप इस परिवर्तनशील संसार से ऊँचे उठ जाओगे, इसमें फँसे नहीं रहोगे तो आपको मुक्ति का आनन्द मिलेगा । अगर संसार से विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख हो जाओगे तो आपको परम आनन्द मिलेगा । इस प्रकार दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति और परम आनन्द की प्राप्ति होना मनुष्यमात्र के लिये सुगम है । अगर आप सुगम नहीं मानते हो तो सम्भव तो अवश्य ही है । पशु, पक्षी, वृक्ष आदि के लिये इसकी सम्भावना नहीं है । क्या भूत, प्रेत, पिशाच आदि के लिये इसकी सम्भावना है ? क्या गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि के लिये इसकी सम्भावना है ? वास्तव में मनुष्य के लिये इसकी सम्भावना है‒इतनी ही बात नहीं है, प्रत्युत यह बहुत सुगम है । आपको विश्वास नहीं होता तो उसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है । आप कुछ-न-कुछ कल्पना करके मेरे लिये ऐसा मान लेते हो कि यह तो ऐसे ही कहता है ! मैंने कोई भाँग नहीं पी है । कोई नशे में आकर मैं नहीं कहता हूँ । फिर भी आपका विश्वास नहीं बैठता तो उसका कोई इलाज नहीं है ।
भगवत्प्राप्ति बहुत सुगम है, बहुत सरल है । संसार में इतना सुगम काम कोई है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । भगवान् ने कृपा करके अपनी प्राप्ति के लिये ही मानव-शरीर दिया है, अतः उनकी प्राप्ति में सुगमता नहीं होगी तो फिर सुगमता किस में होगी ? भगवत्प्राप्ति के सिवाय मनुष्य का क्या प्रयोजन है ? दुःख भोगना हो तो नरकों में जाओ, सुख भोगना हो तो स्वर्ग में जाओ और दोनों से ऊँचा उठकर असली तत्त्व को प्राप्त करना हो तो मनुष्य-शरीर में आओ । ऐसी विलक्षण स्थिति मनुष्य-शरीर में ही हो सकती है और बहुत जल्दी हो सकती है । इसमें आपको केवल इतना ही काम करना है कि आप इसकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् करो कि हमें तो इसीको लेना है । इतनी जोरदार अभिलाषा जाग्रत् हो कि आपको धन और भोग अपनी तरफ खींच न सकें । सुख-सुविधा, सम्मान, आदर‒ये आपको न खींच सकें । जैसे बचपन में खिलौने बड़े अच्छे लगते थे, पी-पी सीटी बजाना बड़ा अच्छा लगता था, पर अब आप उनसे ऊँचे उठ गये । अब वे अच्छे नहीं लगते । अब मिट्टी का घोड़ा, सीटी आदि अच्छे लगते हैं क्या ? क्या मनमें यह बात आती है कि हाथमें झुनझुना ले लें और बजायें ? जैसे इनसे ऊँचे उठ गये, इस तरहसे पदार्थों से, भोगों से, रुपयों से, सुख से, आराम से, मानसे, बड़ाई से, प्रतिष्ठा से, वाह-वाह से ऊँचे उठ जाओ, तो उस तत्त्व की प्राप्ति स्वतः हो जायगी । न सम्मान रहेगा, न प्रतिष्ठा रहेगी, न पदार्थ रहेंगे, न रुपये रहेंगे, न कुटुम्ब रहेगा, न शरीर रहेगा, न यह परिस्थिति रहेगी । ये तो रहेंगे नहीं । इनके रहते हुए इनसे ऊँचे उठ जाओ तो तत्त्व की प्राप्ति तत्काल हो जाय; क्योंकि वह तो नित्यप्राप्त है । केवल इधर उलझे रहने के कारण उसकी अनुभूति नहीं हो रही है ।
‘स्वाधीन कैसे बनें ?’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
↪ स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज
जय श्री कृष्ण
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