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वृंदावन मकरन्द ..... मधुकर गोकुलचन्द

व्रज समुद्र मथुरा कमल , वृन्दावन मकरन्द ।
व्रजबनिता सब पुष्प है , मधुकर गोकुलचन्द । ।

- व्रज मण्डल प्रेम रूपी समुद्र है , सहज रूप से अमृत वहाँ सर्वत्र है । जैसे समुद्रजीव ना चाहे तो भी समुद्र का जल पीता ही है । ऐसे ही बिना प्रयास ब्रज मंडल प्रेम रस देता ही है । स्वतः ब्रज क्षेत्र में दैहिक शरीर का आभास कम और भीतर के सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा की जागृति हो कर वह प्रियतम के लिए लालायित रहती है । कभी ब्रज में स्थूल देह (शरीर) तो थक जाता है परन्तु आत्मा की तृप्ति ना होने से रस और रसराज की आस में व्याकुलता बनी ही रहती है और यात्रा में थकने पर भी थकान को विस्मृत कर चेतनता बनी रहती है ।
ब्रज में भी मथुरा कमल है , जैसे समुद्र की सुंदरता कमल में समा जाती है । दृष्टि सब और से केवल कमल की कोमलता , सौन्दर्यता से वहाँ आ कर टिक जाती है ।
और कमल में भी सार मकरन्द है जिसमें मूल रूप में रस निहित है ऐसे ही वृन्दावन है । प्रेम समुद्र के कमल का मकरन्द । वहीँ है दिव्य , अद्भुत प्रेम रस । अहा शब्द संसार से परे है ऐसे वृन्दावन का प्रेम रस ।
और समस्त व्रज रमणियां , गोप-गोपी पुष्प है और श्यामसुन्दर भँवरे है । जो पुष्पों का , कमल का और मकरन्द का रस पीने को सदा उन्मत्त ही है , तीव्र व्याकुल भ्रमर । परम् व्याकुलता , ऐसी प्रेम रस पीने की पिपासा अन्य किसी में ही नहीँ । भ्रमर रस पी कर भी नित प्यासा सा भँवराता रहता है सो नाम ही भंवरा हो गया है । ऐसे ही श्याम है आनन्द रूप हो कर भी नित्य प्रेम लोलुप्ता कोई इनसे सीखें । इनकी ऐसी झाँकि सहज कहते बनती ही नहीँ । जय जय प्रियाप्रियतम श्यामाश्याम जु। सत्यजीत तृषित ।।

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