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पुष्प का समर्पण या मेरा

कुछ प्रेरणा . कृपा प्रसाद
अधिक्तर हम सभी पूजन कर गर्वित है कि सुन्दर पुष्प - सुन्दर नाना द्रव्य - सुन्दर नैवेद्य अर्पण किये है .
... चढे पुष्प को निहारते निहारते विचार आया ... चढाया कौन .. मैं ... चढा कौन यें पुष्प ...  पुष्प ..??
मैं तो स्वयं ही प्रसन्न था कि सुन्दर से सुन्दर माला - पुष्प - श्रृंगार ...
पर एक पुष्प ने मुझे मात्र निमित्त बना कर स्वयं को  न्योछावर कर दिया . मुझमें कामना जगा कर स्वयं निष्काम अर्पण .
... पुष्प - फल अपने वृक्ष का  कर्म  फल ही है ... अर्थात् प्रतिफल ... जों कर्म के प्रभाव से रस सुगन्ध सौन्दर्य सार  युक्त हो गया है ... जिस तरह संसार में जीव अपने प्रतिफल के लिये ही जाना जाता है ... वैसे ही लता - वृक्ष . पर अपने प्रतिफल को त्याग देना कोई यहाँ से सिखे ...
मैंनें वृक्ष को कहा कर्म तप तेरा और अर्पण हो कर यें पुष्प परम् पद गामी होगा ... उसने कहा उसमें मेरी कुछ सांसे कुछ प्राण है ... वह मेरा रुप - संग्रह - सार है त्यागना सहज नहीं पर प्रकृति की कृपा से
सहज हो गया है ...
वृक्ष से पुष्प या फल तोडने पर अग़र लगे की ये तो त्यागा नहीं गया ...
तोडा गया है तो सही नहीं होगा . यहाँ ठीक वैसे उसमें प्राण छोडे गये है जैसे कुछ जीव शरीर को विभक्त कर प्राण त्यागते है  . उसमें जीव है ... और जब तक है जब तक उसकी उत्कंठा है . पुष्प को देखे प्रभु को अर्पण हो कर ही शिथिल होता है ... अगर प्राण नहीं तो वृक्ष से तोडते ही निर्जीव हो जायें ... प्रतिफल का त्याग सहज नहीं है ... पाप - पुण्य का त्याग ... कर्म का फल सभी को चाहिये . पर जो न्यौछावर हो जाये . शरणागत हो जाये ... वह बडी सहजता से कर सकता है ...  ... ध्यान से देखने पर हर कण हर क्षण अध्यात्म में डुबा नज़र आता है ...
एक उत्कंठित जीव - सत्यजीत

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