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प्रश्नोत्तरी-सत्संग 1

भगवान मीठे कैसे लगे ?
- भगवान मीठे लगेंगे संसार खारा लगने से ।

भगवान में प्रेम कैसे बढ़े ?
- हम केवल भगवान के ही अंश हैं , अतः वे ही अपने है । उनके सिवाय और कोई भी अपना नहीँ है । इस प्रकार भगवान में अपनापन होने से प्रेम स्वतः बढेगा । इसके सिवाय भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए कि " हे नाथ ! आप मीठे लगो , प्यारे लगो । " भगवान का गुणगान करने से उनका चरित्र पढ़ने से , उनके नाम का कीर्तन करने से उनमें प्रेम हो जाता है । भगवान के चरित्र से भी भक्त-चरित्र पढ़ने का अधिक माहात्म्य है ।

यदि हम निष्काम भाव से किसी व्यक्ति से प्रेम करें तो उसका क्या परिणाम होगा ?
- कामना के कारण ही संसार है । कामना न हो तो सब कुछ परमात्मा ही है ,  संसार है ही नहीँ । निष्काम प्रेम होने पर संसार नहीँ रहेगा । कामना गयी तो संसार गया । इसलिए निष्काम भाव से किसी के भी साथ प्रेम करें तो वह भगवान् में ही हो जायेगा ।

भगवान में प्रेम की भूख क्यों है ?
भगवान में अपार प्रेम है इसलिए उनमें प्रेम की भूख है , जैसे मनुष्य के पास जितना ज्यादा धन होता है , उतनी ही ज्यादा धन की भूख होती है । भगवान में प्रेम की कोई कमी नहीँ है , पर प्रेम की भूख है ।

भक्ति और भक्तियोग में क्या अंतर है ?
- सकाम भाव होने पर भक्ति होती है और निष्कामभाव होने पर भक्तियोग होता है । योग निष्कामभाव होने पर ही होता है ।
- स्वामी रामसुखदास जी ।

शारीरिक कष्टों को कैसे भूला जाये ?
- भुला न जाएं  , सहा जाए , चिंता-विलाप से रहित होकर । यह तप है । तप से शक्ति बढ़ती है । भूलने से तो जड़ता आवेगी । शरीर से तितिक्षा होनी चाहिए । तितिक्षा का अर्थ है हर्ष पूर्वक कष्ट को सहन करना ।

आसक्ति रहित होकर कार्य करने से क्या तात्पर्य है ?
- जिस कार्य को करने में अपना सुख निहित नहीँ होता , जो सर्वहितकारी दृष्टि से किया जाता है , वह आसक्ति रहित कार्य कहलाता है ।

भगवत्प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
- संसार को पसन्द करना ही सबसे बड़ा विघ्न है ।

भगवान छिपा क्यों रहता है ?
- भगवान के प्रति आस्था, श्रद्धा, विश्वापूर्वक आत्मीयता और प्रियता जाग्रत नहीँ हुई ।

मन में गहरे विकार पैदा होते रहते हैं, क्या करुँ ?
- गहरी वेदना होनी चाहिये ।

होली का क्या महत्व है ?
- राग-द्वेष को अग्नि में जला दो , देहाभिमान को मिट्टी में मिला दो और प्रेम के रंग में रंग जाओ ।

मोह निवृति का उपाय बताईये ?
- मोह की निवृत्ति तो कई प्रकार से होती है -
१ आस्था के आधार पर - केवल प्रभु मेरे अपने हैं ।
२ ज्ञान के आधार पर - आसक्ति छोड़ने से ।
३ सेवा के आधार पर - सेवा करें, कुछ न चाहे ।

सम्मान के सुख से नुकसान क्या है ?
- सम्मान के सुख इतना भयंकर विष है कि विष खाने से तो मनुष्य एक ही बार मरता है , परन्तु सम्मान के सुख भोगने से कई बार जीता-मरता है ।

बन्धन क्या है ?
- लेना बन्धन है । लेना बन्द करके , देना शुरू करने पर बन्धन जैसी चीज़ नहीँ रहती ।

लेने में क्या बुराई है ?
- लेने की रूचि ही नए राग की जननी है , जो पूरी न होने पर क्रोधित कर देती है । क्रोधित होने पर कर्तव्य की , निज स्वरूप की एवम् प्रभु की विस्मृति हो जाती है ।

मन भटकता रहता है ?
- मन कहीँ नहीँ भटकता । तुम संसार को चाहते हो , उसकी याद आती है । यह दोष अपना है ।

सुख और आनन्द में क्या अंतर है ?
- सुख से दुःख दब जाता है , दुःख मिटता नहीँ , केवल दबता है । आनन्द से दुःख मिट ही जाता है ।

जड़ क्या है ?
- जो दूसरों की सत्ता से प्रकाशित हो , जो स्वाधीन न हो , और जो पराधीन हो वह जड़ है ।

चेतना क्या है ?
- चेतना सूर्य के समान है जो स्वयं प्रकाशित है और जिससे जड़ पदार्थ प्रकाशित होते हैं ।

आनन्द क्या है ?
- जो होकर कभी भी नहीँ मिटे , जिसके मिलने पर फिर और कुछ पाने की इच्छा न रहे , जहाँ सदा बहती रस धारा हो । जिसका विराम न दीखता हो , वहीँ आनन्द है ।
- शरणानन्द जी ।।

सत्संगी ने संत से पूछा -- ' महात्मन् ! यदि हमारे अंदर भगवान के लिए व्याकुलता नहीँ हो , तो क्या वें हमें नहीँ मिलेगें ?
महात्मा - क्यों नहीँ मिलेंगे ! अवश्य मिलेंगे ! मिलना ही उनका जीवन है  , मिलना ही उनका जीवन मत है । बिना मिले वें रह ही नहीँ सकते । ऐसा क्यों , वें तो प्रतिदिन हज़ारो रूपों में हमसे मिलते भी है । हम उन्हें पहचानते नहीँ, इसी से उनके मिलने के आनन्द से वंचित रह जाते है । परन्तु हमारे न पहचानने से उनकी छिपने की लीला तो पूरी होती ही है , वें हमारे इस भोलेपन का आनन्द भी लेते है ।

सत्संगी - ' तब कटा हमें ही पहचानना पड़ेगा । यदि उनके मिलने पर भी हम उन्हें नहीँ पहचान सकते तो हमारे जीवन में इससे महत्वपूर्ण कौनसी घटना घटेगी कि हम उनको पहचानकर उनके आलिंगन का सुख प्राप्त कर सकेंगे ?
-- यह तो उनकी एक लीला है । जब तक वें आँख मिचौनी खेल रहे हैं , उनकी इच्छा अपने को पहचान में लाने की नहीँ हैं , तब तक किसका सामर्थ्य है कि उन्हें पहचान सकें ! परन्तु वें कब तक छिपेगे ? वे जैसे नचावैं, नाचते जाओ । कभी तो रीझेंगे ही । यदि रिंझकर उन्होंने अपना पर्दा-बनावटी वेश दूर कर दिया , तब तो कहना ही क्या है ? और यदि छिपे ही रहे तो भी हम उनके सामने ही तो नाच रहे हैं । हम चाहे उन्हें न देंखें, वे तो हमे देख रहे है न ? बस, वें हमें और हमारी प्रत्येक चेष्टा को देख रहे है और उनकी प्रसन्नता के लिए मैं रंगमंच में नाच रहा हूँ -इतना भाव रखकर, जैसे रखें, रहो । अभिनय सुंदर रहे और भीतर उनसे आत्मसात करें तो वें अवश्य तुम्हें अपनी पहचान बताएंगे, मिलेंगें ।  सत्यजीत तृषित -- 
*** जयजय श्यामाश्याम ***

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