अष्टदल और महाभाव --
जय जय राधेश्याम जी ।
आप सब जानते ही है , भक्ति जीव की शक्ति नहीँ , ह्लादिनी शक्ति की एक विशेष वृति है । ह्लादिनी शक्ति महाभावस्वरूपा है ( श्री किशोरी जु) । इसलिये शुद्ध भक्ति स्वरूप से महाभाव का अंश है । भावरूपा भक्ति (भाव जगत हेतु) साधन या कृपा , कैसे भी मिलें वस्तुतः महाभाव से ही स्फुरित होती है । साधन मूल में शरण होने पर भी ,स्वप्रयास से भी होने पर भक्ति जीव का स्वभाव धर्म नहीँ है, ह्लादिनी शक्ति की वृति होने के कारण स्वरूप शक्ति के विलास तथा भगवत्स्वरूप के साथ सन्शिलष्ट है । जीव कर्म से भाव नहीँ पा सकता ,क्योंकि स्वरूप से भावमय नहीँ है । कर्म करते करते भाव जगत से उसमें भाव का अनुप्रवेश हुआ करता है । भाव का विस्तार फिर कभी ,
दो भाव होते है स्थायी और संचारी । संचारी भाव आविर्भूत होकर कार्य करके तिरोहित हो जाता है । अर्थात् किसी विशेष समय आया और चला गया , कुछ देर पहले भाव जगत में रो लिए , फिर संसार में हो गए , यें संचारी है । संचारी भाव रसास्वादन नहीँ हो सकता , रस पीया नहीँ जाता । परन्तु स्थायी भाव में रसास्वादन करना सम्भव है । संचारी भाव भावदेह प्राप्त करने के पहले भी जीव हृदय में कार्य करता रहता है , परन्तु वह बिजशक्तिसम्पन्न नहीँ होता , इसलिए उसमें फलोद्गम की सम्भावना नहीँ होती ।
वास्तविक भक्त वही है , जो भाव की संचारी अवस्था से स्थायी अवस्था में पहुँच सकता है । और स्थायी भाव के लिए ही भक्तगण नाम और मन्त्रसाधन करते है ।
स्थायी भाव ही भावदेह का दुसरा नाम है । भाव के विकास के साथ साथ हृदय में प्रवेश प्राप्त होता है । यह अन्तरंग हृदयकमल में अष्टदल से विभूषित है , अष्ट दल ही हम अष्ट सखियाँ कहते है । और अष्ट दल का सार मूल बिन्दु है वहीँ महाभाव है । मूल बिंदु से ही आठ कलिकाएँ खिली है । प्रत्येक भाव का पूर्ण विकास महाभाव है । प्रत्येक कलिका का स्रोत्र महाभाव है । हृदय के अष्टदल कमल के स्फुटन में ज्ञानस्वरूप सूर्य मण्डल की और रस स्वरूप सरोवर की आवश्यकता है । इसे कामसरोवर भी कहते है , अष्टकमल पहले कलि की तरह है एक भाव है , फिर ज्ञान की किरण से कमल खिलता है और आठों भाव प्रगट होते है । काम सरोवर(कीचड़) में से रस लेकर धीरे धीरे पूर्ण विकसित हो अपनी नाल से भी छिन्न हो जाता है , तब भावजगत में प्रवेश पाता है , (तेज एक ही है , वही जगत में काम और प्रेम तथा योग तक जाता है , काम में ऊर्जा अधोगामी होती है , प्रेम में हृदय में पूर्ण और योग में सहस्रार चक्र तक उर्ध्वगामी)
वैसे हम स्थायी भाव की स्थिति पर नहीँ , परन्तु जितना सरल राधा रस को समझते है उस पर गौर कर ले , बस । सम्भवतः अधिक रसमय संचारी भाव पर है । मूल अष्ट दल से दूर वहाँ तक जाने के लिए समस्त अन्य भाव कलिकाओं से जाया जाएं ।
स्थायी भाव के दो क्रम है । हालांकि हम इतनी भी योग्यता नहीँ रखते हो , परन्तु मार्ग हमारे भी दो है , आवर्त क्रम और साक्षात् ।
आवर्त क्रम में सहस्र दल से सर्वोत्तम अष्ट दल तक एक एक भाव में होते होते महाभाव तक जाया जाता है । इस विधि से पूर्ण महाभाव प्राप्त होता है , पूर्णतम रस । सम्भवतः यें ही श्री कृष्ण की विधि है ,जिससे वह समस्त के प्रेमभावरस को स्वीकार करते हुए अपने भाव को गहरा करते हुए श्री जी तक जाते है । उनका लक्ष्य श्री जी ही है परन्तु श्री से सभी भाव मार्गियों में प्रेम प्रगट है अतः अपनी स्थिति से अष्ट दल की एक एक भाव को चढ़ते हुए महाभाव तक ।
दूसरा तरीका है अपनी स्थिति से सीधा महाभाव तक , सम्भवतः हमारा अब अधिक यें ही तरीका है । जहाँ है वही श्री जी प्रगट हो जाएं , कृपा कर दे ।
अग़र यें श्रीकृष्ण की भी विधि होती तो अन्य सखियों तक गोपियों तक वह रस वर्धन की भावना ना रख सब का त्याग कर सीधे श्रीजी तक जाते । परन्तु जिस मूल बिन्दु से सभी अष्ट दल और उनके भी अनुगामी दलों में रस है उस की पूर्णता जब ही समझी जायेगी जब प्रति दल (कणिका) का भाव अनुभूत् किया जाये ।
इस बात को सरल करते है , माता और उसकी आठ सन्तान है , माता प्रत्येक सन्तान की जननी है । इसलिए माँ की ममता तो सब में समान ही है , पर वह एक है सन्तान आठ । इस तरह उसका स्नेह प्रेम सभी को पूर्ण मिलते हुए भी आठ भागों में बँट गया । सन्तान की तो एक ही माँ है । सन्तान आठ में एक मानकर माँ के प्रेम को प्राप्त करना चाहे तो पूर्ण मातृप्रेम को नहीँ दर्शन कर सकेगा , इसके लिए आठ में एक मान कर एक एक सन्तान के भाव में स्वयं को पाना होगा । क्रमशः आठ भावन्तर कर स्वयं को पूर्ण अष्टम सन्तान में सभी और के रस को प्रस्फुटित करेगा । इस तरह पूर्ण माँ को पा सकेगा ।
दूसरे तरीके से सरल मार्ग से सीधा योगमाया आदि के द्वारा सीधे साक्षात् अपने स्थान से भी माँ को पा सकता है ।
योगमाया के इस पथ में स्वयं को अकेली सन्तान मान , माँ को भी अपने हेतु समझ पूर्ण प्रेम पा सकता है । इस धारा में माँ के स्नेह और प्यार में अन्य का भी भाव है ऐसा नहीँ लगता , अन्य सन्तान इस बात को नहीँ जानती । योगमाया के आच्छादन और सन्तान का यहाँ विचित्र सम्बन्ध और अनुषांगिक लीला प्रकाशित होती है । प्रत्येक सन्तान की व्यवस्था एक ही तरह की होती है और योगमाया के प्रभाव से अन्य को जानकारी नहीँ रहती । इस का विकास में समय लगता है ।
यहाँ और भी रहस्य है , जैसे क्रम गत मार्ग में अन्यभाव को अपने भाव पर चढ़ाया या स्वयं घुल कर नवीन रस बन गए ।
अपने ही भाव वृद्धि का क्रम है , महाभाव से सदा प्रेम रस प्रकाशित रहा , सभी के भाव मार्ग समान होने पर भी व्यक्तित्व की भिन्नता से रस का स्वाद अलग हुआ , इसमें अधिकतम रस स्वाद का समावेश होता जाएं तो नवीनता और नया रूप लेती रहती है । लेख यही अधूरा छोड़ रहे है , कभी श्री कृपा से प्रत्यक्ष , जितना लिखना सहज नहीँ उससे अधिक कहा जा सकता है । पूर्ण नहीँ , केवल कुछ सरल करते हुए अधिक । हाँ मूक स्थिति ना हो श्री कृपासे , वस्तुतः वह मौन लाख संवादों से प्रबल रस मय आवरण से आभूषित होने से , स्वतः सञ्चार करने लगता है ।
हम अष्ट सखियों से पूर्व कथित दासानुदास भाव को स्वीकार कर आगे सभी के भाव सागर में नमन कर आगे बढ़े तो रस में नवीनता होगी और श्री जी से सामीप्य भी । श्री कृष्ण के विषय में ऐसा ही है अतः वह खेंचते है ,और नव नव संग से स्वयं को और रसमय मानने का भान रखते है । वस्तुतः वह स्वयं रस मय है , उन्हें किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीँ , परन्तु वह सभी के सार स्वरूप को एकत्र कर एक पात्र में पीते है , इसकी पुष्टि उनके दुग्ध पान की विधि से है , जहाँ वह दस हज़ार गौ माँ का हज़ार को , हज़ार गौ का दूध 100 को , उन 100 का 10 को और 10 का 1 को पिलाने पर पिते थे । फिल्टर सिस्टम है यहाँ । ऐसा ही रस सिद्धान्त है , अतः भक्त हृदय की उपेक्षा किये जाने पर हम अपने ही रस के वर्धन को संकुचित करते है । महाभाव के विकास क्रम जारी है नित नव कलिकायें नव रस से जुड़ती है और महाभाव गहराता जाता है । अतः जगत को प्रेममय करने वाली महाभाव श्री राधा जु का कोई वर्णन नहीँ कर सकता , क्योंकि नित्य नव रस वर्धिनी , कृष्णाकर्षिणी , उज्ज्वल रस की विस्तार है । इस विषय की गम्भीरता पर और रसमयता पर कभी श्री जी कृपा से सत्संग रूप में भी प्रत्यक्ष करेंगे । कुछ सहज होगा , पूर्ण तो असम्भव है और अन्य अन्य भाव दर्शन से तृषित कुछ सामर्थ्य जुटा सकें , श्री जी के प्रेम कृपा कोर उज्ज्वल नेत्रों का । सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।
द्र. अथर्ववेदः सूक्तं ७.१००( https://sa.wikisource.org/s/2kbc )
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