उत्साह और व्याकुलता
यदि कोई कहे की प्रेम में उत्साह और व्याकुलता दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैँ?तो कहना होगा कि जिसके पाने की तीव्र अभिलाषा होती है उसके मिल्न में ज्यों ज्यों देरी होती है,त्यों ही त्यों व्याकुलता बढ़ती है इस कारण उत्साह बढ़ता रहता है।जैसे किसी को किसी महात्मा से मिलने या किसी देव विग्रह का दर्शन करने के लिए किसी नियत स्थान पर जाना है और किसी विघ्न के कारन उसे विलम्ब हो रहा है,उस समय विलम्ब के कारण उसकी व्याकुलता बढ़ती रहती है और वहां जाने से अभिलाषा पूर्ण होने की उमंग में उत्साह बढ़ता रहता है।अतः वह सब प्रकार की कठिनायिओं का सामना करता हुए भी अपने अभीष्ट की और बढ़ता रहता है।उत्साह के कारन चलने का परिश्रम और कठिनाइ दुखदाई नही प्रतीत होते किन्तु अपने अभीष्ट की प्राप्ति में देर असहय होने के कारण व्याकुलता बढ़ती रहती है।इस प्रकार साधक के जीवन में भी उत्साह और व्याकुलता बढ़ते रहना भी परम् अवश्यक है।
जब तक मनुष्य वासनाओं की पूर्ती में रस लेता है,अपने मन की बात पूरी होने में सन्तुष्ट हो जाता है या जो आलस्य और अनिंद्रा के कारण जड़ता में रस लेता है।उसके जीवन में प्रेम की लालसा जाग्रत नही होती।इस कारण न तो साधन में उत्साह होता है और न ही लक्ष्य प्राप्ति के कारण व्याकुलता आती है।
आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध चिंतन से है।इसमें कर्म की अपेक्षा नही है;क्योंकि जो वस्तु चिंतन से मिलती है,वह कर्म से नही मिलती,और जो कर्म से मिलती है वह चिंतन से नही मिलती।।इसलिए बुद्धि को विवाद में न लगाकर सत्य की खोज में लगाना चाहिए।बल को उपभोग में ना लगाकर दूसरों के दुःख मिटाने में लगाना चाहिए।समय को व्यर्थ चिंता में नहीँ बल्कि चिंतन में लगाना चाहिए
(एक महात्मा का प्रसाद)
भाई हनुमान प्रसाद पोद्धार जी की पुस्तक से
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