प्रतीक्षा ,
प्रतीक्षा तप है , प्रेम पथ पर । जीवन में अनुभूत् नहीँ होती । शहर की सड़कों को देख साफ समझा जा सकता है , कहीँ प्रतीक्षा नहीँ । सब को जल्दी है । प्रेम में एक आनन्दमयी प्रतीक्षा है । वहाँ इस प्रतीक्षा में आप पीछे भी रह जाएं तो भी धैर्य को पीड़ा तो होती ही नहीँ । अग़र हम भगवत् पथ पर है , तो विवेचन करियें क्या हमें धैर्य है , प्रतीक्षा है । या हम भगवत् धाम में भी अन्य दर्शणार्थी को धक्के ही दे रहे है । प्रतीक्षा में भीतर व्याकुलता बढ़े , परन्तु बाहरी शीघ्रता न हो , भौतिक जीवन में कही भी प्रतीक्षा का , पंक्ति का अवसर मिलें तो अपने धैर्य को तलाशे , क्योंकि युगों तक , मन्वन्तरों तक कठिन तप कर जिन भगवान को पाया जाएं और जो सहज मिलें , उनमें दर्शन का भेद होगा । सहजता में वें प्राप्त ही तो है । और तप से उनके प्रति रस बढ़ता है , व्याकुलता बढ़ती है । अतः अग़र मार्कण्डेय जी 6 मन्वन्तर तक तप करते रहे तब प्राप्त भगवत दर्शन के प्रति उनकी भावना भी विराट रहने से अति अकथनिय झाँकि को उन्होंने पाया होगा । प्रतीक्षा को तप मान उसे जिए , जिससे साधना बढ़े । हम करना कुछ भी नहीं चाहते और पाना उन्हें चाहते है , तो मिलन हुआ भी तो मिलन में रस न हो सकेगा । जीवन के हर पल को जब तक एक युग की तरह भीषण वेदना के समान ना जिया जाएं , मिलन का रस ना बढ़ेगा । अपने तप से भगवत् दर्शन को और अधिक माधुर्य प्रकाश से किया जाता है । साधना सही दिशा में हो तो व्यर्थ नहीँ है , व्याकुलता प्रदायिनी ही है । भजन , तप , सुमिरन , साधना कुछ भी कह लें , यें रस वर्धक औषधियां है , वें तो मिलते ही है आप के अन्तः नेत्रों की क्षमता कितनी है , उस आधार पर । नेत्र अगर सूर्य से हो तो अति विशेष स्वरूप प्रगट होता है । अतः हनुमान जी बाल समय सूर्य निगल ही गए , इतनी तीव्र उत्कंठा । जहाँ आज हम दर्शन ही न कर सकते है सूर्य के वें निगल गए । अतः उन्हें प्राप्त राम का आलौक पूर्ण है , और हमें मिले राम हमारी साधना अनुरूप । नेत्र में सूर्य सा ओजस्व हो अतः हनुमान जी के गुरु ही सूर्य है । हमारी साधना , प्यास सूर्य के इतनी दुरी पर दर्शन नही कर पाती , भगवत् रस स्वरूप कैसे ?
उनकी तो पूर्ण करुणा ही है , वें साधारण हो हमारे हेतु तो उनका अनुग्रह और हम उन्हें और माधुर्य से निहारने की चाह भी न करें तो फिर कैसा प्रेम । जितना परम् माधुर्य स्वरूप उनका श्री जी को अनुभूत् है , वहाँ उस समय उपस्थित हो कर भी हमारे चक्षु को वो माधुर्य प्रकाश दर्शन ना होगा जो श्री रसास्वादन कर रही है । अतः दर्शन से वें एक होकर भी अनेक है । यें ही उपनिषद के सूत्र का भाव है । बहुत हो कर एक और एक होकर बहुत में होने का ।
अगर हमारे सामने युगल प्रियाप्रियतम हो , और शुक देव जी , चैतन्य महाप्रभु , मीरा बाईं सां और सूरदास जी आदि रसिकाचार्य भी हो , तो हमें होने वाले दर्शन और सभी को होने वाले दर्शन में , रंग रूप एक लगने पर भी युगल का रसास्वादन भिन्न होगा । कारण अनुराग पद्धति , व्याकुलता , पिपासा , भजन , तप आदि का भेद । जहाँ परम् रसिक सहज युगलछबि का रस पान ना कर व्याकुल हो उठेंगे , वहीँ हम देख तो सकेंगे परन्तु रस को भजन तप आदि के अभाव में उतना अनुभूत् ना कर सकेंगे । अतः भजन का हर स्थिति में महत्व है । तप और तप रूपी प्रतीक्षा से बचे नहीँ , भीतर को गहराने के लिए प्यास तो चाहिए ही । बिना गहराई के उथले दर्शन कर सदा की तरह मुर्ख मानव जाति भगवान पर ही सन्देह कर जाती है , सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...
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