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Showing posts from August, 2016

हीरक हीरक रोवत राधे , आँचल सखी जु

हिरक हिरक रोवत राधे,आवत श्याम न दिखे। बैठत लगत हिय सो वा को ही,काहे लगत नाहि नीके। हा! माधव मोहन मौरे प्रीतम,कहत ढुरी भूमि पै। सुनिहौ हिय धुनि प्रिया मौरी,टेरत नाम तुम्हीके। नेक नैनन खोलत देखिहौ प्यारी,तुव बैठिहो गोद पी कै। सुनि चकित हुई नैनन कौर देखी,अति निकट होही जी के। प्रीत को रंग अनोखेही होहै,कबहु भरै कबहु रीतै। कबहु बैठिकै अंक पुकारै,कबहु पावत जी मै। ऐसौ करिहौ मौही पर किरपा,रहू चरणन प्रेम जौरी कै।

उलझे दुई चंद्र चकोर नैना , आँचल सखी जु

उलझे दुई चंद्र चकोर नैना। छकत नाही प्रेम सुधा पीबत,पीबत पीबत थकै ना। भरयौ रहवै प्रेममद सो,बहवत प्रेम सु नैना। ढूरत पडत अंग लगत,हँसत छुवत बोलत प्रेम बैना। अधर सु अधर मिलावत,नयनन सो दुई नैना। जानत नाहि दिवस कब आवत,कबहु जावत रैना। बिसरत सबहि सुध बुध तन की,कबहु संग बिसरत दैना। कहत बनै न दुई देख्यौ,बसत एक हिय दुई देही। एकहु नैन बैन सब एकैहु,एकहु प्रेम को लौना। -- आँचल सखी जु

एक दिना मणि-खम्भ माहिं मनमोहन ने निज रूप निहारो ,श्रिया दीदी

🌼🌾🌼🌾🌼🌾🌼🌾🌼🌾🌼🌾🌼🌾 एक दिना मणि-खम्भ माहिं मनमोहन ने निज रूप निहारो। आपुहि मुग्ध भये निज छबि पै, को यह कोटि कामसों न्यारो॥ कबहुँ न ऐसो रूप हम देख्यौ जीवन माहिं। कोटि काम की कान्ति हूँ याके पटतर नाहिं॥ याकी रूपरासि में फँसिके होत न मो मनको निस्तारो॥ कहा करों कैसे करों, मो मन अति अकुलात। याकी छबि में उरझिके सुरझन पुनि न सुहात॥ निरखत ही नित रहों निरन्तर, कबहुँ न अन्तर होय हमारो॥ प्रिया-भाव निज में भयो, निजता भूले स्याम। ‘हा प्रीतम! हा प्रानधन! कहि-कहि टेरहिं नाम॥ ‘आपुहिं निरखि आपुकों भूले अहो! प्रीति को पंथहि न्यारो॥ यह रति-रस अति ही अमल, कापै वरन्यौ जाय। जाहि मिलै सोई छकै, ताहि न और सुहाय॥ याही रस में मगन होत सो प्रीतम को प्रानहुँ ते प्यारो॥ 🍁मणि-खम्भ में निज रूप निरखते बाल-गोपाल, ख़ुद पर यक़ीं नहीं कर रहे की क्या, कोई हमसे भी सुंदर हो सकता है भला??? कोटि-कोटि चंद्र-सूर्य के प्रकाश को अपने प्रकाश में समाने वाला, जैसे आज प्रथम बार अपनी छवि देखा हो। सत्य ही तो है। समस्त ब्रह्मांड को निरखने वाला, क्या कभी अपनी ओर देखा होगा, की वो कैसा दिखता है? और जब निहारा स्वयं

केश संवरन लीला , आँचल सखी जु

कुंज मे श्यामसुन्दर कंघी कर रहे राधे कू। केश नीचे भूमि तक बिखरे हुए। जाने कब से लगे हुए। बहुत धीरे धीरे करते एक हाथ उपर रखे,कंघी धीरे से नीचे लाते। फिर श्यामाजु का मुख देखते पुनः कंघी करते पुनः मुख देखते। कितना समय लगा दिये वो। यू तो साँझ हो जायेगी न। मानते ही नही किसी की न सुन रहे मै ही करूगा। मुझे आती है। हाँ बौराय गये। एक कंघी कर झुककर मुख देखने लगते। यू तो कर लई या ने कंघी। ललिताजु वो स्वयं करना चाह रही उनको लग रहा कही दोनो श्रमित न हो। इनको तो सुध नही। पर राधे भी तो नही मानती। ये सब देख कैसे मुस्कुरा रही। उनकी खिलती मुस्कान ललिता जु को रोक रही। सब यू ही बैठी है। ललिता जु  उपाय सोच रही। संकेत किया एक सखी कू। सब समझ गयी। शरबत बनाने को कही ललिताजु। ये तो गयी। देखू तो। कितनी सखिया जुट गयी। लो बन भी गया। पहुची ललिता जु पास। बहाना मिल गया राधे देखो न कितनी उष्णता है पहले तुम दोनो शरबत पी लो। चलो श्यामसुन्दर तुम भी। लो राधे को तो तुम स्वयं ही पिला दो। देखो तो सखिजु ये प्यारी की सेवा लोभी फस गये ललिता जु के जाल मे। कंघी भूल चले शश्यामसुन्

अनमनी सी नाही मानै राधिके , आँचल सखी जु

अनमनी सी नाही मानै राधिके। सखियन मिल सबै घेर लयी,श्यामसुन्दरआवै निकट नाही। सुनत नाही बैन पिय के,अकुलावत अतिहि हिय सो राही। बिनती करै दुई कर जौरे,मान तजौ लली वृषभानु दुलारी। मानै न एकौ बात सुनै न,बंशी चरणन प्यारी धराही। दास जान निज करूणा करिहौ,मोहन देवत प्रेम दुहाई। प्रितीबश अकुलात न देखिहौ,झट हिय सो दुलारी लगाई।

ऐ जी मै तो दरसन को प्यासी। आँचल सखी जु

ऐ जी मै तो दरसन को प्यासी। हसूँ ,रोवू पिय बुलावू कबहु पपिहरा चुप करावू पपिहा करत मौरी हाँसी। ऐ जी मै तो...... टेरत टेरत हार गयौ मै रोवत रोवत मौन भयौ मै आयौ न मौरा ब्रजवासी ऐ जी मै तो ..... देश कौन सो जाय बसौ पिय प्रीत देय काहै छोडि गयौ पिय बनाय राखो वा ही देसवासी ऐ जी मै तो..... देखू उठ उठ द्वार बार मै कहू पिय से हार हार मै बना लेयो चरणन को दासी ऐ जी मे तो....

मोहि हरि! एक तिहारी आस ।

मोहि हरि! एक तिहारी आस। और काहु को कहा भरोसो, जिनहिं लगी जम-त्रास। जनम-जनम बहु भाँति बिगोयो, आयो चैन न पास। जब-जब आस करी काहू की तब-तब भयो निरास। तुमही सबके सब कुछ प्यारे! पूजहु सबकी आस। पामर जीव भूलि धन-जन में करहिं वृथा विश्वास। परम उदार दयालु दीन-हित सबके दाता खास। सबकों सब कुछ देहु, तदपि तुम करहु न कबहुँ प्रकास। ऐसे प्रभुको छाँड़ि करे क्यों जन काहूकी आस। यासों सबकों त्यागि प्रानधन! आयो मैं तुव पास। चहों न जोग-भोग कोउ दूजो, करों न दूजी आस। तुमसों तुमहिं चहों नँदनन्दन! करो आपुनो दास। प्रीति-पगार चहों मनमोहन! रहे हिये रति-रास। यही मजूरी, यही हजूरी, निरखों जुगल-विलास।

मुस्लिम भक्तों के भाव

कमल-दल नैननि की उनमानि। बिसरत नाहिं मदमोहन की मंद-मंद मुसुकानि।। दसनन की दुति चपलाहू ते चारु चपल चमकानि। बसुधा की बस करी मधुरता, सुधा-पगी बतरानि।। चढ़ी रहै चित हिय बिसाल की मुक्तमाल लहरानि। नृर्तय समय पीतांबर की वह फहरि-फहरि फहरानि।। अनुदिन श्रबृंदाबन ब्रज में आवन-जावन जानि। छवि रहीम चित ते न टरति है, सकल स्याम की बानि।। वहिद नन्द नन्दन पर निरन्तर लगन रहने की शुभकामना करते हैं— सुंदर सुजान पर, मंद मुसुकान पर, बाँसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहै। मूरति बिसाल पर, कंचन की माल पर, खंजन-सी चाल पर खौरन खगी रहै।। भौहैं धनु मैन पर, लौने युग-नैन पर, सुद्धरस बैन पर वाहिद पगी रहै। चंचल से तन पर, साँवरे बदन पर, नंद के नँदन पर लगन लगी रहै।। रसिक रसखान जी तो पशु-पक्षी-पत्थर बनकर भी कन्हैया के दास रहना चाहते है— सुनो दिलजानी, मेरे दिल की कहानी, तुम दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूँगी मैं। देव पूजा ठानी, और निवाज हूँ भुलानी, तजे कलमा-कुरान सारे, गुनन गहूँगी मैं।। साँवला, सलोना, सिरताज सर कुल्लेदार; तेरे नेह-दाघ में निदाघ ही दहूँगी मैं। नंद के कुमार, कुरबान ताँड़ी सूरत पर ताँडे नाल प्य

चाँदनी रातों में ... आँचल सखी जु

बडी आए पिया तेरी याद तेरे जाने के बाद चाँदनी रातो मे.... तन्हा तन्हा रहती हू दर्द जुदाई का सहती हू हर पल होती बरसात चाँदनी रातो मे.... जब घिर अाते बादल बनकर चंदा या तारे पवन बनकर सब बह जाते जज्बात चाँदनी रातो मे.... डरती हू अब मै रोने से बिन पाये तुझे क्यू खोने से टूटे टूटे से ख्वाब चाँदनी रातो मे..... भूली चेहरा या देखी नही तेरी हू ही नही या थी ही नही जाउ मै कहाँ तेरे बाद चाँदनी रातो मे..... उलझन है ये जो सुलझा दो कुछ अपना पता तो बतला दो मुझे रहना वही तेरे साथ चाँदनी रातो मे..... कितने मिल मिलकर गये तुम्है कितनो से ही बाते की तुमने मेरी बारी हुयी क्या बात चाँदनी रातो मे.... जल जाउ कही न खुद से ही तेरे चुपचुप यू रहने से ही तोडो खामोशी आज चाँदनी रातो मे..... आ जाओ पिया इक बार चाँदनी रातो मे..... बस आ जाओ इक बार चाँदनी रातो मे.....

बरसो रे मेघा मेघा , संगिनी सखी जु

बरसो रे मेघा मेघा बरसो रे मेघा बरसो बन कर तुम प्रेम बरखा बरसो रे मेघा विरहन की अखियों से होकर हृदय में बरसो रे मेघा बरसो बरस कर तुम प्रेम प्रियतम प्रभु रंग दो तन मन को ऐसा तुम में तुम्हारी होकर बूँद से सागर बन कर मिल कर प्रियवर तुम में तुम में तुम लो बसा पा जाऊँ तुमको खुद को खो कर सखा बरसो रे मेघा बरसो हे प्रेम प्रभु प्रियतम मेरे अंतर में स्थित करो ऐसा द्वार जो खुल जाएं अंतस के बाहर का मुख करें ना भीतर की भीतर समा कर पा जाऊँ खुद को तुम में आओ मेरे प्रियवर प्रीत में रंग कर आसमान इंद्रधनुषी हुआ जैसा तु बरखा में भरने आजा बरसो रे मेघा बरसो यूँ तो तुम बिछुड़े कभी ना रहे संग सदा सर्वदा बन कर कभी पवन छुआ तो कभी विरहअग्नि से देह ये तप्त हुआ कभी आए तुम संगीत बनकर हृदय का तार वीणा हुआ बरसो रे मेघा बरसो कभी तुम महक बन महके नाचने लगा चित्त मोर हुआ श्वासों की रवानगी में सपंदन सिहरन का सिलसिला चला रोम रोम में बसे तुम तनप्राण ये कंपित हुआ बरसो रे मेघा बरसो कभी तुम बरखा से बरसे भीग भीग कर खारे से अश्रु पीकर तेरी प्रीत में मनमोहन विरही ये मन रो रो कर धु

मैं हूं इक टुटा सा घुँघरु , अमिता दीदी

मैं हूँ इक टूटा सा घुंघरू जाने कब बिखर गया जो करीब रहे तेरे उनका ही जीवन निखर गया नहीं अब तुम मुझको ढूंढना बर्बाद ही रहने दो यूँ ही फिरूँ मैं बेपता आज़ाद ही रहने दो क्योंकि फिर पड़ेगा ढूंढना जाने किधर गया मैं हूँ इक टूटा सा घुंघरू जाने कब बिखर गया जो करीब रहे तेरे उनका ही जीवन निखर गया मेरा तुझसे दूर रहना ही नसीब हो गया जो कोई था तेरा अपना वो करीब हो गया और बदनसीब कोई जिंदगी बेकार कर गया मैं हूँ इक टूटा सा घुंघरू जाने कब बिखर गया जो करीब रहे तेरे उनका ही जीवन निखर गया चलो जो भी है कुबूल है मेरा काम दर्द देना अच्छा हो तन्हाई रहे किसकी का दर्द बने ना था नशा और गुरूर भी कबसे उतर गया मैं हूँ इक टूटा सा घुंघरू जाने कब बिखर गया जो करीब रहे तेरे उनका ही जीवन निखर गया

साँसों के मनके राधा ने मन्जू दीदी

मोर मुकट पीताम्बर पहने,जबसे घनश्याम दिखा साँसों के मनके राधा ने,बस कान्हा नाम लिखा राधा से जब पूँछी सखियाँ, कान्हा क्यों न आता मैं उनमें वो मुझमे रहते,दूर कोई न जाता द्वेत कहाँ राधा मोहन में, यों ह्रदय में समाया जग क्या मैं खुद को भी भूली, तब ही उसको पाया। वो पहनावे चूड़ी मोहे,बेंदी भाल लगावे रोज श्याम अपनी राधा से ,निधिवन मिलवे आवे धन्य हुईं सखियाँ सुन बतियाँ, जाकी दुनिया सारी उंगली पे नचे राधा की, वश में है  गिरधारी चंचल चितवन मीठी वाणी, बंशी होठ पे टिका रीझा ही कब धन दौलत पे, श्याम प्रेम दाम बिका नेत्र सजल राधा से बोले भाव विभोर मुरारी अब मोहन से पहले राधा,पूजे दुनिया सारी।

कृष्ण जन्म के पद

जसुमति कक्ष सोहर-सुगंध महक रही। पारलौकिक-दीप्तीमय, शुभ्र-कान्ति-दिव्य सुवासमयी। सुषमा प्रस्फुटित 'मँजु' नैसर्गिक ज्योति, कण-कण छिटक रही। मानों सुरलोक दामिनी अवनि-तिमिर हरनि, हर्षित दमक रही। चकित,चितव सगरौ बृज,अद्भुत बालक,जे इहिं लोक कौ नहीं। (डाॅ.मँजु गुप्ता) प्रकट हु‌ए थे धराधाम में पूर्ण परात्पर श्रीभगवान। परम दिव्य ऐश्वर्य-निकेतन,सुन्दरता-मधुरता-निधान॥ दुष्ट को निज धाम भेजकर, साधु-जनों का कर उद्धार। किया धर्म का संस्थापन था, लेकर स्वयं दिव्य अवतार॥ वही पुण्य तिथि भाद्र-‌अष्टमी, कृष्णपक्ष मंगलमय आज। सुरभित श्रद्धा-सुमन-राशि से सभी सजाकर मंगल साज॥ नन्दालय में आज महोत्सव वही हो रहा मधुर विशाल। शीघ्र बुझा देगा जो भव-दावानल सहसा अति विकराल॥ हम भी सब मिल आज मनायें वही महोत्सव मंगलरूप। भोगासक्ति-विनाशक, भव-बाधा-हर, दायक-प्रेम अनूप॥ प्रेम कृष्ण का, प्रेम कृष्ण में, स्वयं कृष्ण ही निर्मल प्रेम। हमें मिले, बस, एकमात्र वह, वही हमारा योग-क्षेम॥ कृष्ण-नाम-गुण गा‌ओ अविरत प्रेमसहित नाचो तज लाज। बनो कृष्णभक्त के भक्त के अनुगामी सहित समाज॥ मधुर मनोहर मंगलमय श्रीराधा-माधव

हैं इनायतें कितनी तेरी  मैं हक़दार नहीं प्यारे , most अमिता दीदी

हैं इनायतें कितनी तेरी  मैं हक़दार नहीं प्यारे नहीं प्यास मुझको तेरी देखो मैं तलबगार नहीं प्यारे नज़र ए कर्म मुझ पर इतना मेरी सरकार आज करना खाली है आँखें मेरी इनको अश्कों से तुम भरना मुझको अपनी मोहबत का इतबार नहीं प्यारे हैं इनायतें कितनी तेरी मैं हक़दार नहीं प्यारे नहीं प्यास मुझको तेरी देखो मैं तलबगार नहीं प्यारे मुझे अपने दर्द दे दो कुछ ऐसी तलब लगाना हँसते ही ये दम निकले कितने सितम करे ज़माना मैं तेरी रहमतों का शुक्रगुज़ार नहीं प्यारे हैं इनायतें कितनी तेरी मैं हक़दार नहीं प्यारे नहीं प्यास मुझको तेरी देखो मैं तलबगार नहीं प्यारे इन आँखों को बरसता पल पल का सावन देना जिसमें हो प्यास तेरी बस ऐसा जीवन देना बस बढ़ती तड़प देना संसार नहीं प्यारे हैं इनायतें कितनी तेरी मैं हक़दार नहीं प्यारे नहीं प्यास मुझको तेरी देखो मैं तलबगार नहीं प्यारे इस दिल को इश्क़ की कुछ ऐसी तलब लगाना पल पल रहे सिसकता रहे फिर मुस्कुराना दुनिया में रहा उलझा तेरी दरकार नहीं प्यारे हैं इनायतें कितनी तेरी मैं हक़दार नहीं प्यारे नहीं प्यास मुझको तेरी देखो मैं तलबगार नहीं प्यारे

श्यामसुन्दर का कुर्ता और ललिता सखी लीला , आँचल सखी जु

रात्री का समय हो रहा। कई सारी सखियाँ एक कक्ष मे नीचे ही बैठी हुई युगल के वस्त्रो पर मोती टाँक रही है। तभी श्यामाजु भी कक्ष मे प्रवेश करती है,संग मे ललिता सखी व कुछ ओर सखियाँ है। सबकी ओर देखती हुई श्यामा एक सखी के पास रूक गयी। यह सखी श्यामसुन्दर के घेरदार कुर्ते को लिये हुए है। श्यामाजु सखी से कुर्ता ले लेती है। इसकी दोनो बाजू पकड सामने की ओर कर देखती हुई शैय्या तक आयी....सब सखिया भी पीछे पीछे। अब शैय्या पर बैठ कुर्ते को पूरी तरह खोलकर बिछा दी। और कितने प्रेम से इस कुर्ते को निहार रही है।दोनो बाजू पकड रखी है अपने हाथो मे...... सखियाँ सोची,शायद श्यामाजु कुर्ते को श्यामसुन्दर समझ बैठी है। तब ललिता सखी कुछ निकट आ प्रियाजु से बडे लाड से पूछती है। मेरी बाँवरी सखी,ऐसे इस कुर्ते को क्या निहार रही है...... श्यामाजु वही दृष्टि रखे हुए उत्तर देती है---- ललिते,सोच रही हू....जो इस कुर्ते मे श्यामसुन्दर होते तो...... ललिता सखी हसकर कहती है...अच्छा!यदि श्यामसुन्दर होते तो..... कहकर ललिता सखी कुर्ते को लेकर एक ओर चली गयी। और कुछ देर बाद उसी कुर्ते को पहनकर श्यामजु के सामने आ खडी हो गयी..