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Showing posts from April, 2017

रसराज के रस आवर्त , 2 , मृदुला

पीताम्बर की एक एक सिलवट रस की गहन धारा है जो रसार्णव के ऊपरी तल पर सूर्य रश्मियों की भांति किलोल कर रही है ॥ यह सुमधुर पीताम्बर आह ...कितना मधुर है यह जितना निरखो उतना ही डूबता जाता हृदय इस रस आवर्त की गहनता में ....॥।मन ही नहीं कि आगे भी बढा जावे ॥रस का लावण्य का सार सा, मनहर का मनहर पीताम्बर ॥ कटि से आबद्ध चरणों को स्पर्श करता ......॥।चरण आहा समस्त चराचर की परम विश्राम स्थली ये हरि चरण ॥ ये तिरछे चरण न जाने कौन कौन से भावों का विस्तार करते ॥ दास्य भी इन्हीं में तो लोकपावन माधुर्य भी इन्हीं में ॥ गोपांगनाओं के विरह संतप्त हृदयों का ताप हरने वाले परम सुशीतल कमल भी यही ॥।हृदय में न जाने कितने रस भावों का सहज ही उदय कर देने वाले रसिकशेखर के ये तिरछे चरण ॥ भक्तो की परम निधि तो रसिकों का जीवन प्राण ये परम सुकुमार अरुणिम चरण पल्लव और इनसे लिपटे ये पुष्पों के रसीले नूपुर ॥ इन रस नूपुरों से झंकृत होती मधुर झनकार आहा ....जरा कल्पना तो करें कि कैसी रसमयी झंकार होती होगी रसराज के चरण नूपुरों की ॥ प्राणों को , रोम रोम को रस में डुबो देने वाली मधुर झनकार ॥ न जाने किन किन रसिकों के रसभाव कोमल पल्लव

रसराज के रस आवर्त , मृदुला

परम प्राण सार सर्वस्व मोहन का दिव्य रसमय श्रृंगार आहा .....वही रसराज रससिंधु के गहन रस आवर्त ....॥तिरछी झुकी सी ग्रीवा और तिरछी चितवन से रस की सुधा और तृषा दोनो को युगपत प्यारी के मुखारविन्द पर सरसाते दो विशाल कमल दल लोचन ॥ प्राण वल्लभ का परमोदार विशाल वक्षस्थल जैसै शोभा का सागर ॥ माधुर्य भाव भावित प्रेयसियों की शरणस्थली॥ रससिद्ध रसिकाओं के पंचशर से बिंधे हुये हृदयों की रक्षा करने में सदैव तत्पर ये लावण्य सार सिंधु सा परम आश्रय ॥ इस मोहकता के सिंधु में डूबी हुयी सुखदान करती हुयी गोपांगनाओं के हृदय अभिसार स्वरूप ये नाना रत्नो , मुक्ताओं की मनभाविनी लडियाँ धारण कर उनके प्रदत्त सुखों का समादर करते हमारे परमोदार जीवन सर्वस्व ॥ चरणों को चूमती गुंजमाल रसिक भ्रमरों को पथ भुला देने वाली सुगंध का प्रसार कर रही है ॥श्री अंग से लिपटा वह अंग की सुकुमारता से होड लेता हुआ परम सुकोमल अंग वस्त्र इतनी कोमलता से श्यामल गात से लिपटा है कि लागे कि श्री प्रिया का कोई परम गूढ़ आंतरिक भाव ही प्रियतम से आलिंगनबद्ध हो रसकेलि में लीन है ॥ एक रसआवर्त से निकसें तो दूजे में खो जावें .....आहा यह तिरछी कटि मोहकता को

सरस झांकी सखियाँ .. मृदुला जी

श्री राधा सरस झांकी सखियाँ .....प्रिया प्रियतम के संयुक्त प्रेम भाव की परस्पर सुख लालसा की साकार प्रतिमाएँ ॥ प्रिया लाल के सुख के अनन्त प्यास को प्राणों में संजोये नित नवीन नित नूतन रसमयी झांकियां सजाना ही तो जीवन इन रस की झूमती तरंग मालाओं का ॥तो आज पुनः एक रस झांकी उकेरी है इन्होंने निकुंज के चित्रपट पे .....॥ झूलन लीला संजोयी है आज सखियों ने हिलमिल कर ॥ निकुंज उपवन में जहाँ प्रिया प्रियतम के हृदय रस से न जाने कितने फूल खिल खिल कर उनके रस को सुगंध रूप सर्वत्र प्रसारित कर रहे हैं । साखियों ने प्रेम रज्जु में इन्हीं रस प्रसूनों को गूंथ गूंथ हृदय रूपी पटल से जोड़ कर रस भाव की अनन्त लहरियों में युगल को ले जाने वाले सुंदर झूले की रचना की है ॥ लाल प्रिया परस्पर गलबहियाँ किये नेत्रों में नेत्र डुबोये चरण नूपुरों की मधुर झन्कार से सखियों के हृदय में रस वर्षण करते इस प्रेम उपवन में आ गये हैं ॥ सखियाँ इन दो प्रेम विहगो को बडें लाड से कोमल पुष्प की भांति सहेज अपने हृदय के झूले पर विराजमान करायीं हैं ॥ प्रेम रस में निमग्न दो सुकोमल कमलों का रस मकरंद परस्पर के सानिध्य से और मधुरता को प्राप्त क

प्रेम कों खिलौना दोऊ खेलैं प्रेम कू खेल , संगिनी जु

प्रेम कों खिलौना दोऊ खेलैं प्रेम कू खेल                         -1- अधरन धर बंसिया लसै दूजो वीणा हिय सजै मधुरसुता ढरकत वृंद बनि पुष्पनि को सुभग सेज ऊपर सजि लालि गुलाब सों करै छांव सघन कुंजै ढुरकि ढुरकि हरो रंग लाल लालि सों कियो हरो बिसेस ज्यूं धुन सों धुनि मिलि जाबै दोऊन एक प्रेम रस बहै !                           -2- अखियन सों अखियां मिलि हेरि हेरि नाहिं अघै रस रसीली छलकत घणो रसमधु भरि नयन छकै बिंदु कोर जहं अधर सिलै हिय रस अधरन सों पियै रससरिता रससिंधु दोऊ दोऊ दोऊन कै रसना रस झरै बंध जित कसै रहै उत खिलै कमल माहिं भ्रमर रसहुं चखै !                             -3- सुबदनी धनी बैठि तन संभारि कै रस लम्पट तकै छलकै ज्यूं मधु भृंग रसाल तैं तीक्ष्ण कटाक्ष सों बतियाँ करै ज्यूं प्रहार दसन कै पिय प्यारि प्यारि पिय मानिनि सों मान काह करै अखियन ते कर रख अधर रस सुजान बीच उदर धरै !                             -4- रसमगे रसपगे द्विजन रहैं डूबै इक अखियन रेख अंजन बन रहै दूजो अधर लालि बनै कंठहार बन हिय तैं बसै दूजो वक्ष् सुखनिहूं सेज संग लसै एकहू कटि करधनि पै ढुरकै दूजो कामरिया रं

प्रिया लाल को मिलन है सर्व रसन को सार , मृदुला

प्रिया लाल को मिलन है सर्व रसन को सार बरसत चहुँ ओर यही बनकर मधु रस धार युगल प्यारे कुसुमित कुंज में नेत्रों से नेत्र उलझाये बैठै हैं रसमगे रसपगे चार नयन रस में डूबे न जाने क्या क्या कह रहें है न जाने क्या क्या सुन रहे हैं ॥ एक दूसरे में डूबने को अकुलाते जैसै दोनों ही के युगल नयन सागर को पी भी लेना चाहते है और सागर में डूब भी जाने को उत्सुक ॥ ऐसा लग रहा है जैसै रस के नीलाभ गगन में दो प्रेमी कपोत संग संग स्वच्छंद विहरण कर रहे हैं ॥ रस सिंधु में डूबे हैं दोउ रसीले नयन । डूबते उतराते कितना काल बीत चला है इन दोउ रस केलि लीन रसिक युगलवर को भान ही नहीं है ॥ इन का यूँ रस में डूबना ही तो समस्त रसों का सार है ॥ ज्यों ज्यों रस के सिंधु में नवीन तरंगें विलस रहीं हैं त्यों त्यों यही रस चहुं ओर रस मालिकायें बन बरस रहा है ॥ इन प्रेम आवर्तों मे घूमते इठलाते दो चंद्रकमलों को तो पता ही नहीं कि इनके चहुँ ओर प्रकृति नूतन रस से सौन्दर्य से रंग से लावण्य से भर उठी है इनके इस रस अवगाहन से ॥ न जाने कितने प्रसून खिल गये हैं अपने मकरंद को बिखेरते हुये ॥ न जाने कितनी कोमल कलियाँ अपनी सरसता को सहेजे चटक उठी हैं

रस सिंधु के रस आवर्त , मृदुला जी

रस सिंधु के रस आवर्त जो डूबे बस डूबत जाहीं दो रसभरे रसीले नयन नित नूतन रस तरंगों से छलकते ॥ कभी भोले शिशु की सी निश्छलता तो कभी रस केलि का आमंत्रण देती शरारत भरि चितवन  कभी रस तृषित सिंधु से तो कभी माधुर्य की रस सिक्त फुहारें ॥ कभी कारुण्य लहरियाँ तो कभी औदार्य की वृष्टि ॥ कभी प्रश्न सी पूछती सकुचाती तरल दृष्टि तो कभी समस्त उत्तरों का सार पढाती बंकिम चितवन ॥ कितने रंगों की मधुर चंद्रिकायें छिटकती नैनो के आकाश माहीं ॥ पलकों की चिलमन से प्रेम की फुहारें तन मन प्राण को रस सिक्त करती ॥ हम तो नैनन माहीं अटक गये हैं , आगे भी तो निरखन चाहीं ॥ कर्ण पटु के ऊपरी छोर का स्पर्श करते दो रसीले मुक्ता और कर्णों से लटकते रसीले रत्न जडे़ कुंडल जो झूम झूम कपोलों के रस सागर में डुबकियाँ लगा रहें हैं और रस में डूबने के कारण और रसीले हो इठला रहे हैं नृत्य सा थिरक रहे हैं ॥ सुघड़ नासिका के नीचे सजे रस  के गहन सरोवर में खिले दो सरसिज ॥माधुर्य के मकरंद से ओतप्रोत ये बिम्ब अधर कमल ॥ प्रेमियों की परम निधि स्वरूप  कभी रस मूर्छा में ले जाने वाली तो कभी रस मूर्छा से जगाने वाली महारसौषधि को समेटे दो रसीले रस आवर

र से रस , राधा , संगिनी जु

!! राधा !! अहा ! 'र'से रस की सम्पूर्ण झन्कार केवल इस एक नाम की सरगम में जहाँ रस का उद्गम तो होता है पर उद्भव कभी नहीं।प्रियतम श्यामसुंदर राजाधिराज समस्त चराचर के एकमात्र स्वामी द्वारिकाधीश प्रियतम रसराज हो जाते जिनके नाम में रस का केवल आधा ही अक्षर उन्हें मधुर माधुर्य रस में भिगो डुबो देता है वही 'र' जब पूर्ण होता उन रसस्वरूपा श्रीराधा जु के नाम में तो किंचित एक नूपुर भी नहीं एक चिंगारी मात्र भीतर इस नाम की झन्कृत कर देती सम्पूर्ण ब्रह्मांड को।श्रीकृष्ण अत्यधिक सुंदर स्याम अति मधुर मुस्कन अति प्रिय चित्तवन अति सुघड़ चौंसठ कलाओं के एकमात्र अधिपति रस स्वरूप भावभावित ऐश्वर्यशाली और न जाने क्या क्या ! अति सरस सहज सरल प्रेम की मूर्ति श्रीकृष्ण भगवान पर उनके प्रेम में यह रस आता कहाँ से कि वे इतने आकर्षित होते सदा से।प्रेम स्वतः घटित हो ऐसा तो नहीं है ना।प्रेम को प्रेम ही खींचता यह भी सत्य पर उस प्रेम का सींचन होता रस से और भाव में परिवर्तित होता और ले जाता रस की गहराइयों में।ऐसे ही श्रीकृष्ण से हमें प्रेम तो होता है पर यह प्रेम रस के प्रादुर्भाव से ही बहता हुआ समाता है हृदय म

श्यामसुन्दर की रस चितवन , मृदुला

श्री राधा रस भरी चितवन रस भरी अलकन रस भरी मुस्कन रस भरी पलकन रस बरसाते नयन रसीले रस छलकाते अधर रसीले रसमयी कोर मरोर सैनन की रसपगी मधुर गिरा बैनन की रस को पाग सजी भाल पर रस को रचना बनी गाल पर रस की लडियाँ गुंथी अलक में रस को कज्जल रची नयन में रसराज की रसमयी देह का रसमय श्रृंगार आहा ....॥नख शिख रस के सिंधु से हमारे रसिक प्रियतम ॥ रस की अलकें रस के गुच्छे सी बनकर झूल रहीं हैं प्यारे के रसमय भाल पर ॥इन रस की लडियों से झरते रस बिंदुओं से प्रियतम ललाट की शोभा अपूर्वता को छू रही  ॥ मस्तक पर लपेटी लटपटी सी रसीली पाग जिसमें केयूर के पिच्छ रसमुक्ताओं के आश्रय अलंकृत हो निष्कामता का उद्घोष कर रयो है ॥।केयूर मुकुट के छोर से लटकती रस रत्नों की लड़ी ॥ पाग के दूसरे छोर पर विलसते दो रसीले पीत पुष्प जो झुक झुक कर ललाट को चूमने को प्रयास में अपने रस कण ललाट पर छिड़के जा रहे हैं ॥ नील इन्दीवर सम मुखमंडल पर सजे दो रस कमल से ,कर्णों का चुम्बन कर अपनी विशालता का दर्शन कराते दो रसीले सरसीले नशीले सकुचीले से दृगन जिनमें रस की अनन्त लहरियाँ सदा उमड़ती घुमडती, देखने वाले को अपने में डुबो स्वयं को विस

वियोग की कन्दरा , मृदुला

श्री राधा प्रेम आहा .....कैसी दिव्य अनुभूति होती है यह प्रेम ॥ सदा हृदय में प्राणों में आत्मा में रस का सृजन करने वाली मधुर सी शीतल सी गुदगुदी करने वाली अनुपम अनुभूति है प्रेम ॥ कितना रस भरा इसमें कि जिस हृदय में तनिक सा अणु भी किशोरी कृपा से प्रस्फुटित हो जावे तो सर्वस्व ही रस रंजित हो नित्य उसका ॥ पर क्या प्रेम हृदय में विकसित होते हुए भी इस विलक्षण तत्व को हृदयंगम कर पाना सरल है सहज है ! संयोग जितना शीतल सुखद मधुर वियोग उतनी ही दाहक मर्मातंक पीड़ा को प्राणों में संजो देता ॥ पर प्रेम की गहनता तो वियोग बिना संभव ही नहीं कभी ॥ संयोग रस निमज्जन कराता है परंतु वियोग तो प्रेमी को साक्षात् प्रेमास्पद ही कर देता ॥।विरह की महाअनल में पल पल तप कर ही तो रस रूप स्वर्ण कुंदन हो पाता ॥ वियोग ही तो प्रेम की अनन्त कोटि गहराइयों में प्रेमी का कर पकड ले चलता ॥ संयोग रस की वीथियों में विचरण कराता है तो वियोग प्रेम की गहनतम् रहस्मयी कंदराओं के कोने कोने से परिचय करा देता ॥ वियोग ही तो नित नवीन रहस्य उजागर करता हृदय निकुंज के ॥ निकुंज ..... हां यहीं तो प्रेम की गहनतम् रहस्मयी कंदरायें हैं ॥ निकुंज अर्थ

निभृत रस शैय्या पर आलिंगित युगल रस , मृदुला

निभृत रस शैय्या पर आलिंगित युगल रस चातक आहा .......॥झर रहा है रस, रस अणु बन प्रिया के रोम रोम से ॥ प्रति अंग अंग से निर्झरित होते रस बिंदुओं की मनभावनी लडियाँ  ॥ प्रत्येक बिंदु को समेट लेने को रससमउत्सुक प्रियतम ॥ जैसै हर ओर से पी लेना चाहें इन रस झारियों को । प्रिया अंगन पर सुशोभित रसमय आभूषणों की मधुर झंकार ,कंगनो, की किंकणी ,की नूपुरों की रससिक्त लहरियाँ प्रिया की सुगंधित श्वासों से झंकृत संगीत वो प्रेम के सार को संजोति प्रिया की मंद मंद वाणी रस घोल रही प्रियतम कर्ण पुटों में तो क्यों न रोम रोम ही कर्ण पटु हों  प्रियतम के  .....॥। परम सुशीतल परम मधुरतम समस्त सुखन को सार वह महाभावभावित सुदुर्लभ पियूषवत स्पर्श झरता जब प्रियतम हित ही प्रति अंग अंग से तो क्यों न रोम रोम ही तृषा का सिंधु हो प्रियतम का .....॥ अंग अंग से महकती प्राणों को शीतल करती श्वासों में नित नव उल्लास भरती हृदय को रस में चूर करती फिर नव तृषा का उदय करती पुलकाति संवारति फुलवारी सी महकती मदमाति वो महाभावभावित अंग सुंगध जब प्राणों में उतर मचलने को व्याकुल तो क्यों न रोम रोम ही श्वासें होे प्रियतम की .....॥ रूप राशि अपरिम