मोहे श्री चरणन की आस .....
रसिक संत प्रार्थना करते है कि हे देवि ! तुम्हारी श्री चरणों की इस दीनदासी की देह लता तुम्हारे विरह-दावानल में पूरी ही जल रही है । कृपा करके क्षणभर दर्शनामृत-वर्षण कर उसे जीवित करो । नित्य लीला रस में तो रसिक वर नित्य सिद्ध परिकर है । दर्शन होने के बाद भी वें अतृप्त रहे , भक्ति रानी के स्वभाव के कारण भजन में तृप्ति आते ही यह समझना होगा कि भजन क्षीण हो गया । इसलिए वें लीला दर्शन बन्द होते ही दूसरी लीला दर्शन के लिए उत्कंठापूर्वक प्रार्थना करते है ।
गोवर्धन वासी संत कृष्णदास बड़ी ही उत्कंठा और आर्त भाव की प्रार्थना करते है , इन्हें तो बहुत रोने से ही सफलता मिली और उन्हें राधादास्य की प्राप्ति हुई । इसलिये हे प्रेमी साधकों । तुम रसमयी वार्ता का सत्संग करो , श्री राधा और गोपियों के विलाप को श्री कृष्ण के मथुरा गमन पर बार-बार स्मरण करो । फिर जी भर कर रोओ , और अपने रूदन से सन्तुष्ट न हो पुनः विरह क्षण का स्मरण कर रोओ और सटीक व्यथा होने पर राधादास्य सहज ही मिल जायेगा । रोना भगवत्प्राप्ति का सबसे उत्कृष्ट और सुलभ साधन है । रोने से अनेक जन्मों के कर्म बन्धन समाप्त हो जायेंगे और एक ही जन्म में भगवद् प्राप्ति होगी । राधा दासी की लालसा है , तो जब स्वामिनी हँसे तो सहज आनन्दित भावना स्फुरित होगी , कृष्ण विरह में स्वामिनी रोवें तो दासी को भी उन स्थितियों तक रोना चाहिए जब ही कुशल पक्की दासी कहलाओगी । सन्त प्रार्थना करते है - हा देवि , हो गान्धर्विके । मैं मूढ़ जन, परम् आर्ति से भरकर दण्ड की तरह पृथ्वी पर लेटकर काकुगद्गद्कण्ठ से तुम्हारे श्री चरणों में प्रार्थना करता है कि मुझे दासी बना कर मेरी भी गणना निजजनों में कर लो श्यामा । मैं तुम्हारी दासी बनकर तुम्हारी मनोनुकूल सेवा कर चिरधन्य कब होऊंगी ?
हे देवि । मैं कब तुमको नीलाम्बर पहनाकर और तुम्हारे चरणों से नूपुर उतारकर, तुम्हें अभिसारिका के समान अति सुंदर वेश में सुसज्जित कर निशीथ (अर्धरात्रि) में श्यामसुंदर के निकल आपको लें जाउंगी ? त्रैलोक्य-भूषण स्वरूप तुम दोनों कुञ्ज में कुसुम शैय्या पर जब मधुर विलास की मधुरतम् रसास्वादन में होंगे , तब मैं तुम दोनों के श्रीचरण की सेवा में ही रहूँगी , मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा ?
रसमय प्रेम रसास्वादन से तुम दोनों स्वेदाक्त (पसीना-पसीना) हो जाओगे और व्याकुलता के निवारण के लिए तुम दोनों अपने कुण्ड के पास के विशाल वृक्ष के नीचे बैठोगे , ऐसी स्थिति में मैं कब दोनों के पसीने सुखाने के लिए चँवर ढुलाउंगी ?
राधा दासी बनने के लिए पूर्ण बलवती लालसा हृदय में जगनी ही चाहिए । गाढ़ी लालसा ही रागमय भजन की प्राणवस्तु है । तीव्र उत्कंठा के बिना , तीव्र रुदन के बिना माधुर्य भाव का राग भजन समझ नहीँ आता ... सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।
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