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Showing posts from March, 2017

र से रस , 36 , संगिनी जु

!! प्रेम विहर्मत सर्व समर्पण !! प्रगाढ़ प्रेम प्रगाढ़तम विरह और अति प्रगाढ़तम समर्पण।यही हैं प्रेम की नहीं क्यों कि प्रेम की सीमा नहीं पर प्रेममग्न हृदय की परिसीमाएँ।प्रेमी हृदय जानबूझ कर तो प्रेम नहीं करता ना।हो जाता है क्योंकि यह स्वभाव उसका।उसे कब पता प्रेम के पलने में खेलना शिशु के पलने में खेलने जैसा है जो तनिक सा भी अव्यवस्थित हुआ तो पलट कर गिरने का भय सदैव।पर क्या करे प्रेम विवश है ना प्रेमी।पल पल रोना और पल पल आनंद का अनुभव।सत्य अनुभूति या स्वप्न जाने क्या !पर जो भी बस प्रेम।अति प्रगाढ़ प्रेम है तो विरह भी प्रगाढ़ ही होगा।प्रियालाल जु अपलक समाए हुए पर पलक झपकते ही विहरित हो उठते।ऐसी गहन तड़प ही प्रेम विहर्मत है।भ्रमित से होने लगते प्राण।अति अकुलाए हुए पुकार उठते प्रियतम को और भूल चुके होते स्वहित को।तब प्रियतम कौन ज्ञात ही ना होता।तन्मयता में सर्व समर्पण हो जाता।समर्पण जिसमें मैं खो जाता और याद रहता तो केवल तुम और एक रस झन्कार वो भी स्वहेतू नहीं तत्सुख हेतु प्राणों में मृदुल संगीत करती कि तुम ही तुम और तुम हेतु यह विरह से सर्व समर्पण भरी मधुर यादें झन्कार बनी झन्कृत सदा।एक बार

मृदुला 1

कैसै हैं वे .......। परम अदभुत अकथनीय अनिर्वचनीय अद्वितीय और न जाने क्या क्या ॥ इतने भोले कि सृष्टि के समस्त शिशुओं का भोलापन उन्हीं के तो सीकर का परिचय कराता ॥ इतने प्रेमी कि तकते रहते कि कोई जीव बस एक बार पुकार भर ले उन्हें ,स्वयं को देकर ही चैन उन्हें अब ॥ उनकी व्याकुलता उनकी प्यास उनकी कामना क्या उतर सकता किसी के हृदय में उसका एक कण मात्र भी ॥ जो वे सहते हम जानते ही नहीं तभी तो विमुख उनसें । उनके मुखमंडल को देखती हूँ तो क्या लगता वह वाणी या शब्द सामर्थ्य से परे है ॥ अनन्त युगों की प्यास अनन्त कोटि कल्पों की प्यास छलकती रोम रोम से उनके ॥ सदा प्रेम पियासे पिया हमारे ॥ करोड़ों करोड़ों आत्म को भर दूं  रोम रोम में तो भी पूरित न हो उन्हें ऐसी प्यास । क्यों मुझे दिखती उनकी प्यास यह ॥ क्योंकि कोई देखना ही नहीं चाहता उन्हें प्यासा ॥ सब केवल पूरा , भरा ही पाते उन्हें क्योंकि जो भरा वही आपको दे सकता जो स्वयं प्यासा वो कैसै देगा और जगत को तो केवल लेना आता ॥ प्यासे देखोगे तो देना होगा न । लेने की वृत्ति देना कैसै सीखे ॥ यही प्रेम की पाठशाला है । जितना देने की (त्यागने की नहीं )चाह बढेगी उतना ही

र से रस , 35 , संगिनी जु

!! विहरण भ्रमण प्रफुल्लन !! सुंदर सुघड़ सवर्णिम सेज श्य्या पर विराजे युगल अति गहन मधुर चंचल कोमल रसछटा धारण किए सुरत केलि से आलस्य भरे जगे हैं और उनकी इस समय की रूपमाधुरी का अद्भुत अमृत रस का पसारा ही है।युगल परस्पर निहारते डूबे हुए उषा के आगमन से आलस्य भरे व अर्धनिमलित नयनों से आलिंगित हैं।सखियाँ इन रसभंवरों को जागृत करने हेतु मधुर संगीत बजाती हैं और वहीं श्रीवृंदा देवी भी प्राकृतिक ढंग से श्यामा श्यामसुंदर जु को जागृत करतीं हैं।शर्माए हुए श्यामा श्यामसुंदर जु सखियों से नज़रें चुराते हुए वृंदा देवी जु के आग्रह पर चहलकदमी वन विहार के लिए चलते हैं।सुरतकेलि के प्रभाव में उनके चरण डगमग डगमग जब धरा पर पड़ते है तो जैसे चरणस्पर्श पाते ही धरा झन्कृत हो उठती है।जहाँ जहाँ प्रियालाल जु पग धरते हैं वहीं वहीं तृण सिहरते व पराग कण अंकुरित होते हैं।कोमल चंचल कमलपदों की धीमी थाप से जैसे नृत्य की धमनियाँ ही उठतीं हैं और श्वासों से महके पुष्प स्वतः ही राह पर बिछने लगते हैं।खग मृग हंस मयूर नूपुर पायल की ध्वनि का धरा पर कोमल संगीत सुनते ही थिरक उठते हैं।सखियों से घिरे श्यामा श्यामसुंदर जु जैसे जैसे आगे बढ

र से रस , 36 , संगिनी जु

!! भाव अलंकार भूषण !! परस्पर निहारते श्यामा श्यामसुंदर जु रसमग्न हुए निकुंज में निर्मल विशुद्ध प्रेम की अद्भुत झाँकी हैं।उनका दिव्यातिदिव्य प्रेम भाव ऐसा है जैसे एक चंचल चित्तवन और दूसरा अति सुकोमलतम रसस्वरूप।सदैव परस्पर आलिंगित श्रीयुगल रसधराधाम पर ब्रह्मांड के अति गहन प्रेमी युगल बने विचरते हैं।दो दिखने वाले युगल रसमगे सदा एक दूसरे में समाए हुए अभिन्न भावलहरियों में विहरण करते हैं।श्यामा श्यामसुंदर जु का प्रेम केवल दैहिक ना होकर विशुद्ध प्रीतिरस की मंत्रमुग्ध कर देने वाली मूर्त रूप है।जब प्रियालाल जु परस्पर निहारते अनंत घड़ियों तक बैठे रहते हैं तो ना केवल उनके नयन एक दूसरे से उलझे हुए होते हैं अपितु उनका एक एक अंग परस्पर अंगों को निहारने का सुखदान कर रहा होता है।पुलकित रोम रोम श्रीयुगल जु का परस्पर उलझा हुआ होता है।दर्शन मात्र में वे प्रेमीयुगल दिखने वाले प्रगाढ़ रसालिंगित ही जीते हैं।परस्पर भावनिमग्न अलंकाराभूषण भी जैसे प्रेम रस वार्ता में डूबे हुए से स्वतः झन्कृत होती रहती है।श्यामा जु की पायल के घुंघरू जहाँ प्रियतम की पायल को झन्कृत करते हैं वैसे ही उनके समग्र आभूषण झन्कार बन प्रत

मोहे ना छोड़ो नंद के लाल , संगिनी जु ।

मोहे ना छोड़ो नंद के लाल नयन मिलि जाबै ह्वै धमाल इत झलक देखूं कजरारि अखियन सों उत हिय जावै मनमोहिनि मुरतिया कमाल प्रिया जु आज श्यामसुंदर सों मुख फेरे बैठी हैं।श्यामसुंदर पल पल प्रिया जु कौ मुख देखन तांई आगे झुकै है पर प्यारी जु नाए मुख देखत नाए दिखावै।सखियाँ प्यारी जु को मान करिबै देख बैठी मुस्कावै और प्यारे जु कै प्रेम पै बलि बलि जावै।प्यारे जु कछु डरै हुए से कबहु पुष्प लावै है और कबहु चरणन तांई बैठ प्यारी जु नै मनावै पर प्यारी जु नै कह दई सो कह दई।आज नाए देखूं तोय। पर श्यामसुंदर मानै तबहि तो ना।सखियन तांई प्रेम मनुहार लगावै और घड़ी घड़ी पूछै आज का भई री प्यारी नै।काहे मोसे नयन चुरावै।अजहू तो मैं निर्धारित समय से पूर्ब ही आए गयो और देख याके तांई सब सिंगार भी लैके आएयो।फेर काहै प्यारी जु निठुराई करै है।का कर यानै मनाऊं। प्यारी जु मुख झुकाए तनिक मुस्कावै है और कहै है के तुम कछू गलत नाए कियो हो।मोते तो तुम आए कै चले जाए हो सो बात ही खटकै है।इह वास्ते ना तोए देख रही।तुम एक नजर देख लेवै से हिय में उतर जावै और फेर परत जावै और तब तोय वा बेचैनी कू भान ही नाए रहै है जो मेरो मन में समावै और

र से रस , 34 , संगिनी जु

!! रसालाप रोमपुलक !! रसमय माधुरी जोड़ी श्यामाश्याम जु की डूबी प्रेम सुभावों में सदा महकती चहकती आनंदस्कित रखती कुंज निकुंजों में बसते रमते एक एक अहोभागी कण तृण को।माधुर्य रस में भीगे श्रीयुगल परस्पर सुखदान करते कभी रसमग्न हो प्रेमालिंगन करते तो कभी रसवार्ता भी।सखियों संग बैठ जब प्यारी जु श्यामसुंदर संग बिताए पलों को याद कर क्षण क्षण भावस्कित होतीं तो सखियाँ भी उनसे प्रिय संग बीती रसमयी रात्रि की रसवार्ता छेड़ देतीं।प्रिया जु पहले तो आनाकानी करतीं पर फिर रसमद में चूर हुईं कुछ कुछ बताने लगतीं।हालाँकि कायव्यूहरूप सखियों से कुछ भी छुपा नहीं होता पर फिर भी प्रिया जु की मधुर वाणी का श्रवण करतीं सखियों को श्यामा जु गहन रसडुबकियाँ लगवातीं।उनके रोमपुलक झन्कृत करते प्रिया जु के मधुर रस भरे बोल और रसालाप में डूबीं प्रिया जु संग जो उनके रस गोते लगते उनका विवेचन कैसे हो।शर्माईं हुईं सी माधुरी की मूर्ति श्यामा जु जब श्यामसुंदर संग बिताए उन पलों को याद कर अपनी सखियों से रसालाप करतीं तो सखियों संग फिर से वे बार बार मंत्रमुग्ध रस में डूबतीं उतरतीं प्रियतम की यादों में खो जातीं।इस रसालाप से श्यामा जु व स

र से रस , 33 , संगिनी जु

!! वचनामृत रसविनोद !! रसविनोद नागर नागरी श्यामसुंदर श्यामा जु रसिक सिरमौर तो हैं ही पर उनके रसानंद में डूबे समस्त रसिक व सखियाँ प्रियालाल जु के प्रेम भरे रसविनोद और वचनामृत में सदैव छके रहते हैं।जहाँ श्यामा श्यामसुंदर जु के रसमाधुर्य में परस्पर सुख हेतु एक गहन अश्रुप्रवाहयुक्त गाम्भिर्य है वहीं उनकी रसलिप्त हास्यविनोद के भी अनंत कोटि की रसलीलाएँ भी बेशुमार हैं वे भी रसवर्धन और परस्पर सुखदान हेतु ही।इसी रस भरे हास्य विनोद से ब्रज बरसाना की धरा सदा रसमग्न सदैव उत्सव रूप झन्कृत रहती है।रसमग्न श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर प्रेम में डूबे रसमय हंसी ठिठोली भी करते हैं।सखियाँ इस मधुर प्रेम वार्ता में अपनी उपस्थिति से चारचाँद लगा देतीं हैं।परस्पर कभी प्रेम कटाक्ष तो कभी रस भरे उलाहने देतीं सखियाँ श्यामा जु को खिलखिलाकर हंसते देख आनंद में डूबने लगतीं हैं और श्यामसुंदर जु भी प्रिया जु को ऐसे हंसते खेलते देख अतिमधुर प्रेम भरे कटाक्षों का वैसा ही लाजवाब प्रतिउत्तर देते हुए सखियों संग ठहाके मार हंसते हैं।अति सुमधुर खिलखिलाते ठहाकों की ध्वनि पवन संग भावलहरियाँ बन बहती और समस्त कुंज निकुंजों में विचरत

र से रस , 32 , संगिनी जु

!! रसमधुरिम अरूणिम प्रेमविलास !! स्वसुख की जहाँ गंध तक नहीं वहाँ प्रियालाल जु परस्पर सुखदान करते निरंतर सखियों संग लीलायमान रहते हैं।श्यामसुंदर जु श्यामा जु जिस तरह एक दूसरे की चाह में सदा रंगमंच के नायक नायिका हैं वहीं वे अपनी कायव्युहरूप सहचरी अनुगामिनी सखियों के भी प्राणधन हैं।सेवारत सखियाँ प्रियालाल जु के सुख हेतु ही सदैव मकरंद रसकणों सी मधुर कोमल झरती रहती हैं और श्यामा श्यामसुंदर जु भी उन्हें तृप्त करने हेतु उनकी समस्त सेवाओं के लिए भृमर-भृमरी रूप उन संग वनविहार करते हैं। यह भृमर-भृमरी स्वयं ही फूल-फुलनि है और स्वयं ही रसिली-रसिक । सखी के अंतर्मन के मधुर रसभाव में जो प्रेम झन्कार बन नित्य नवनवायमान रहता है वही प्रेम प्रियालाल जु के सुखरूप उनमें रस-संचार बन अनवरत बहता है।गलबहियाँ डाले श्यामा श्यामसुंदर जु जब निकुंजों में बिहरते हैं तो सखियाँ भी उनकी विलासानुरूप उनके संग संग रसरूप बिहरती हैं।श्यामसुंदर जु जैसे श्यामा जु से नित्य प्रगाढ़ प्रेम निमग्न हैं वैसे ही वे सखियों के प्रेम का भी अभिनंदन करते हैं और उनकी रसपिपासा के प्रतिरूप उनसे लीला भी रचते हैं।उनका अत्यंत गहन प्रेम व परस्

पिया ना आये , भाव , संगिनी जु

हाय सखी !! देर भई पिया ना आए जाने कौन घड़ी किस राह धाय जिया मोरा तड़प तड़प जाए ऐ री !! राह तकूं सखी नयन बिछाए कंटक चुगूं पलकन सों बुहारूं हाय सखी !! देर भई अज पिया ना आए मोरा जिया घबराए रोम रोम पुकार करै असुवन मोती हार पहरूँ हिय लग अंगिया भीगी जाय हाय का करूँ कासे कहूँ मैं बिरहणी रसअंग नहाए रतिया निगोड़ी पपीहरा गाए कोकिल कूहु कूहु हिय जराय महक पुष्पन सों मकरंद झरै हाय ज्यूं तपन अग्न सी अंग जराय हाय री सखी !! काहे मोरे पिया ना आए !! कारि रतिया अकेली डर मोहे लागै सर्प दंस सी मोहे डस डस जाए ऐ री पिय मिलन आस सों सखी जुगल रसफल उचकाए हिय रस उफनाए छिन छिन प्राणन छूए मेरो कर कुच जंघ रसमंडल थर्राय सिहर गए रोम सखी रस भर भर छलकाय हाय सखी !! का करूँ मोरा पिया ना आए !! अति बिकल अधीर भई जब पिया मोरा छुप छुप होले पग धराए जड़ जाती रसमाती मोरी देह कों अंग लगाय हाय री सखी !! मोरा पिया ना आए !! रसालिंगन दियो तब गहन अंग मद भर पीवै रस अति आकुल ब्याकुल काहै सताए रख कर अधर तैं रसमग होय हिय लग अग्न बुझाए अंगिया चोली सब तीतर बितराए नीलांबर पीतांबर ज्यूं उरझाए उरोजरस चाखै भर

र से रस , 30 , संगिनी जु

!! प्रेम रसमहाभाव लहरियाँ !! प्राणधन से मिलने की गहन आतुरता और प्राणवल्लभा की रस आतुरता से आतुर हुए तृषित मधुकर श्यामसुंदर परस्पर अंतर्मन की पुकार करते डूबे रहते महाभाव समन्दर की प्रेम लहरियों में।अपनी विरह दशा में आकुल व्याकुल प्रियालाल जु के पल पल प्यासे अधरों की थिरकन उन थिरकते अधरों से रसस्कित झरती रसध्वनि और रसध्वनि से झन्कृत हो उठते उनके कर्णपुट।परस्पर निहारते अर्धनिमलित नेत्रों से बहती भावतरंगें भिगोती हृत्तल की अनवरत रसधार।रोम रोम से उठती रसध्वनियाँ परस्पर नामधन की।अति सुकोमलतम अंगों की लहराती स्वरलहरियाँ जो प्रिया जु के निंविबंधन व किंकणी से सुशोभित और कंचुकी बंद  व कुचमण्डल पर सजी गलमाल से बहती मधुरिम रसभाव बन लाल जु को आकर्षित करतीं।सुमन सेज पर भावलहरियों से थिरकते व महकते सिलवट जो परस्पर रसपिपासुओं को आलिंगित होने हेतु सिहराते और क्षण क्षण गहनतम रसतरंगों में डूबते श्यामा श्यामसुंदर स्पंदित हुए एक एक रसझन्कार को जीवन देते रहते।कभी सुसज्जित तो कभी मूर्छित होते महाभावों की मधुरतिमधुरिम रसझन्कारें परस्पर रसस्कित करतीं प्रियालाल जु को।अति गहन रस महाभाव लहरियाँ अनवरत झन्कृत होती