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Showing posts from April, 2016

राधिके! तुम मम जीवन - मूल।

राधिके! तुम मम जीवन - मूल। अनुपम अमर प्रान - संजीवनि, नहिं कहुँ कोउ समतूल।। राधिके!... जस सरीर में निज निज थानहिं सबही सोभित अंग। किंतु प्रान बिनु सबहिं ब्यर्थ, नहिं रहत कतहुँ कोउ रंग।। राधिके!.... तस तुम प्रिये! सबनि के सुख की एकमात्र आधार। तुम्हरे बिना नहीं जीवन - रस, जासौं सब कौं प्यार।। राधिके!.... तुम्हारे प्राननि सौं अनुप्रानित,तुम्हरे मन मनावन। तुम्हरौ प्रेम - सिंधु - सीकर लै करौं सबहि रसदान।। राधिके!.... तुम्हरे रस भंडार पुन्य तैं पावत भिच्छुक चून। तुम सम केवल तुमहि एक हौ, तनिक न मानौ ऊन।। राधिके!.... सोऊ अति मरजादा, अति संभ्रम - भय - दैन्य- सँकोच। नहिं कोउ कतहुँ कबहुँ तुम - सी रसस्वामिनि निस्संकोच।। राधिके!.... तुम्हरौ स्वत्व अनंत नित्य, सब भाँति पूर्न अधिकार। कायब्यूह निज रस - बितरन करवावति परम उदार।। राधिके!.... तुम्हरी मधुर रहस्यमई मोहनि माया सौं नित्य। दच्छिन बाम रसास्वादन हित बनतौ रहूँ निमित्त।। राधिके!....

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार कृपापत्र मिला। आपके प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में इस प्रकार हैं- भगवान श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। उनकी प्रत्येक लीला आनन्दमयी है। उनकी मधुर लीला को आनन्द-श्रृंगार भी कह सकते हैं। परंतु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उनका यह आनन्द-श्रृंगार मायिक जगत् की कामक्रीडा कदापि नहीं है। भगवान की ह्लादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी तथा उनकी स्वरूपभूता गोपियों के साथ साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की परस्पर मिलन की जो मधुर आकांक्षा है, उसी का नाम आप आनन्द-श्रृंगार रख सकते हैं। यह काम-गन्धरहित विशुद्ध प्रेम ही है। श्रीकृष्ण की लीला में जिस ‘काम’ का नाम आया है, वह अप्राकृत ‘काम’ है। ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ भगवान के सामने प्राकृत काम तो आ ही नहीं सकता। वैष्णव भक्तों ने रति के तीन प्रकार बतलाये हैं - ‘समर्था’, ‘समन्जसा’ और ‘साधारणी’। ‘समर्था’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के सुख की एकमात्र स्पृहा और चेष्ठा रहती है। यह अप्राकृत है और व्रजमात्र में श्रीमती राधिकाजी में ही इसका पूर्ण विकास माना जाता है। ‘समन्जसा’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के और अपने - दोनों के सुख की स्पृहा रहत

भगवत् प्रेम - भाई जी

भगवत्प्रेम भगवत्प्रेम के पथिकों का एकमात्र लक्ष्य होता है-भगवत्प्रेम। वे भगवत्प्रेम को छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहते- यदि प्रेम में बाधा आती दीखे तो भगवान के साक्षात् मिलन की भी अवहेलना कर देते हैं, यद्यपि उनका हृदय मिलन के लिये आतुर रहता है। जगत का कोई भी पार्थिव पदार्थ, कोई भी विचार, कोई भी मनुष्य, कोई भी स्थिति, कोई भी सम्बन्ध, कोई भी अनुभव उनके मार्ग में बाधक नहीं हो सकता। वे सबका अनायास- बिना ही किसी संकोच, कठिनता, कष्ट और प्रयास के त्याग कर सकते हैं। संसार के किसी भी पदार्थ में उनका आकर्षण नहीं रहता। कोई भी स्थिति उनकी चित्त भूमि पर आकर नहीं टिक सकती, उनको और नहीं खींच सकती। शरीर का मोह मिट जाता है। उनका सारा अनुराग, सारा ममत्व, सारी आसक्ति, सारी अनुभूति, सारी विचार धारा, सारी क्रियाएँ एक ही केन्द्र में आकर मिल जाती हैं; वह केन्द्र होता है केवल भगवत्प्रेम - वैसे ही जैसे विभिन्न पथों से आने वाली नाना नदियाँ एक समुद्र में आकर मिलती हैं। शरीर के सम्बन्ध, शरीर का रक्षण-पोषण भाव, शरीर की आसक्ति,(अपने या पराये) शरीर में आकर्षण, (अपने या पराये) शरीर की चिन्ता-सब वैसे ही मिट जाते हैं जैसे

सच्चा एकांत

सच्चा एकान्त वस्तुतः बाहरी एकान्त का महत्त्व नहीं; सच्चा एकान्त तो वह है, जिसमें एक प्रभु को छोड़कर चित्त के अंदर और कोई कभी आये ही नहीं-शोक-विषाद, इच्छा-कामना आदि की तो बात ही क्या, मोक्षसुख भी जिस एकान्त में आकर बाधा न डाल सके।जबतक चित्त में नाना प्रकार के विषयों का चिन्तन होता है, तब तक एकान्त और मौन दोनों ही बाह्म हैं और महत्व भी उतना ही है, जितना केवल बाहरी दिखावे के लिये होने वाले कार्यो का होता है। उन प्रेमी महापुरूषों को धन्य है जो एकमात्र श्रीकृष्ण के ही रंग में पूर्ण रूप् से रँग गये हैं, जिनका चित्त जगत के विनाशी सुखों की भूलकर भी खोज नहीं करता, जिनकी चित्त वृत्ति संसार के ऊँचे-से-ऊँचे प्रलोभन की ओर भी कभी दृष्टि नहीं डालती, जिनकी आँखें सर्वत्र प्रियतम श्यामसुन्दर के दिव्य स्वरूप को देखती हैं और जिनकी सारी इन्द्रियाँ सदा केवल उन्हीं का अनुभव करती हैं। सच्चा एकान्तवास और सच्चा मौन उन्हीं प्रेमी महात्माओं में है। जय जय श्यामाश्याम ।

लीलामय भगवान लेख 3 - भाई जी

लीलामय भगवान 3 24- भगवान के सम्बन्ध होते ही सब दोष मिट जाते हैं। भगवान ने अपनी यह शक्ति लीला-कथा में छिपा रखी है। भगवान ने कृपा करके अपनी लीला-कथा-माधुरी इसीलिये छोड़ रखी है कि जगत् के बहिर्मुख लोगों का कल्याण हो। ऐसे लोगों (बहिर्मुखों) से कहा जाय कि यम-नियम आदि करो तो कौन करेगा। पर कथा में कोई रोचक प्रसंग आ जाय तो उनका भी मन लग ही जाता है। 25- अग्नि को देखे नहीं, अग्नि को समझे नहीं, पर अग्नि से स्पर्श हो जाय तो अग्नि का वस्तुगुण दाहकता जला ही देता है और जलने पर उस पर श्रद्धा अपने-आप हो जाती है। इसी प्रकार लीला कथा से अपने-आप श्रद्धा प्राप्त हो जाती है। 26- बिना पुण्यबल के, बिना भगवत्कृपा के भगवत्कथा सुनने को मिलती ही नहीं। जो तार्किक हैं, वे उसी व्यर्थ मानते हैं और जो गृहासक्त हैं, उन्हें कथा सुनने का भी अवकाश नहीं। 27- भगवान की लीला-कथा के लिये एक ही उपाय है - उसकी जो धारा आती है, उसके लिये अपने कानों का मार्ग खोल दो। वह पीयूष धारा बिना बाधा के कानों में जाती रहे। वह धारा भीतर पहुँची कि उसने जन्म-जन्मान्तर के कूड़े की राशि को धो-बहा दिया। फिर आग की आवश्यकता नहीं रहेगी। और आग की आ

छोड़ो मोहन , छोड़ो न .... तृषित

छोड़ो मोहन , छोड़ो न .... मैंने तो यूँ कहा था मधुसूदन उस रात अंग लगी थी जब और तुमने सच में मुझे छोड़ ही दिया । तुम तो ना लौटने को आये थे , फिर ना कुछ और छुने को छुये थे पर देखो तुम लौट भी गए , अब छु रहा है और कोई इस प्रेम डगर पर चली थी मैं ... पर मुहब्बत तुम्हारी ही थामी थी मोहन मुझसे कहाँ होनी थी ऐसी कोई साजिशें जहाँ कर लेती तुम्हारा शिकार मैं मोहन । तुम आएं , प्रेम सरिता बहा लाएं , वेणु रस में सब साज मेरे सजाने आएं । लो तुम आएं तो सब छोड़ ही दिया , अपने स्वप्नलोक से सम्वन्ध तोड़ ही लिया । अब दिवा रात्रि तुम , स्वप्न जागृति तुम , तुरीय सुक्षुप्ति भी तुम और इनसे परे भी तुम । पर तुम न माने और दे कर ही गए विरह सृष्टि अपार । अब वेणु नहीँ क्रंदन है सुनता ऐसे क्रंदन से कर्ण पट तब भी नहीँ फटता । जान लिया मैंने तुम्हारे विरह से भीष्ण कोई नर्क नहीँ । तुम न हो इससे तीव्र यातना और है कहीँ । पर तुम न सुनने वाले कहीँ , जब यह विरह मुझे भाने लगा । विरह के रूदन पर मन नटराज सा तांडव नृत्य करने लगा । श्वसन मेरा गहन केदार राग के तारों में डूबने ही लगा । तव आतुर पिपासु प्रियजन से चित् मेरा रम

अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है, प्यास शेष श्रिया दीदी काव्य

अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है, प्यास शेष है, अभी बरुनियों के कुञ्जों मैं छितरी छाया, पलक-पात पर थिरक रही रजनी की माया, श्यामल यमुना सी पुतली के कालीदह में, अभी रहा फुफकार नाग बौखल बौराया, अभी प्राण-बंसीबट में बज रही बंसुरिया, अधरों के तट पर चुम्बन का रास शेष है। अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है। प्यास शेष है। अभी स्पर्श से सेज सिहर उठती है, क्षण-क्षण, गल-माला के फूल-फूल में पुलकित कम्पन, खिसक-खिसक जाता उरोज से अभी लाज-पट, अंग-अंग में अभी अनंग-तरंगित-कर्षण, केलि-भवन के तरुण दीप की रूप-शिखा पर, अभी शलभ के जलने का उल्लास शेष है। अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है, प्यास शेष है। अगरु-गंध में मत्त कक्ष का कोना-कोना, सजग द्वार पर निशि-प्रहरी सुकुमार सलोना, अभी खोलने से कुनमुन करते गृह के पट देखो साबित अभी विरह का चन्द्र -खिलौना, रजत चांदनी के खुमार में अंकित अंजित- आँगन की आँखों में नीलाकाश शेष है। अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है, प्यास शेष है। अभी लहर तट के आलिंगन में है सोई, अलिनी नील कमल के गन्ध गर्भ में खोई, पवन पेड़ की बाँहों प

मगर निठुर न तुम रुके , श्रिया दीदी काव्य

मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके! पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन, पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन, निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे, कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन, असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे, मगर निठुर न तुम रुके! पकड़ चरण लिपट गए अनेक अश्रु धूल से, गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से, अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई, गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से, बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला, मगर निठुर न तुम रुके! विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना, असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना, मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी, अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना, सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ- मगर निठुर न तुम रुके! न तुम रुके, रुके न स्वप्न रूप-रात्रि-गेह में, न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में, धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता, अंगार सा जला प्रणय अनंग-अंक-देह में, मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा, मगर निठुर न तुम रुके! आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही, न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही, न फूल में सु

अब बुलाऊँ भी तुम्हें तो तुम न आना श्रिया दीदी काव्य

अब बुलाऊँ भी तुम्हें तो तुम न आना! टूट जाए शीघ्र जिससे आस मेरी छूट जाए शीघ्र जिससे साँस मेरी, इसलिए यदि तुम कभी आओ इधर तो द्वार तक आकर हमारे लौट जाना! अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!! देख लूं मैं भी कि तुम कितने निठुर हो, किस कदर इन आँसुओं से बेखबर हो, इसलिए जब सामने आकर तुम्हारे मैं बहाऊँ अश्रु तो तुम मुस्कुराना। अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!! जान लूं मैं भी कि तुम कैसे शिकारी, चोट कैसी तीर की होती तुम्हारी, इसलिए घायल हृदय लेकर खड़ा हूँ लो लगाओ साधकर अपना निशाना! अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!! एक भी अरमान रह जाए न मन में, औ, न बचे एक भी आँसू नयन में, इसलिए जब मैं मरूं तब तुम घृणा से एक ठोकर लाश में मेरी लगाना! अब बुलाऊँ भी तुम्हें...!!