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एक लालसा भाई जी का लेख

एक लालसा -

जीवन का परम ध्येय स्थिर हो जाने पर जब उसके अतिरिक्त अन्य सभी लौकिक-परलौकिक पदार्थों के प्रति वैराग्य हो जाता है, तब साधक के हृदय में कुछ दैवी भावों का विकास होता है । उसका अन्त:करण शुद्ध सात्विक बनता जाता है । इन्द्रियाँ वश में हो जाती है, मन विषयों से हट कर परमात्मा में एकाग्र हो जाता है, सुख-दुःख, शीतोष्ण का सहन सहज में ही हो जाता है, संसार के कार्यों से उपरामता होने लगती है, परमात्मा और उसकी प्राप्ति के साधनो में तथा सन्तशास्त्रों की वाणी में परम श्रद्धा हो जाती है, परमात्मा को छोड़ कर दुसरे किसी पदार्थ में मेरी तृप्ति होगी या मुझे परम सुख मिलेगा, यह शंका सर्वथा मिटकर चित का समाधान हो जाता है । फिर उसे एक परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उसकी सारी क्रियाए केवल परमात्मा की प्राप्ति के लिए होती है । वह सब कुछ छोड़ कर एक परमात्मा को ही चाहता है । इसी का नाम मुमुक्षा या शुभेच्छा है ।
मुमुक्षा तो इससे पहले भी जागृत हो सकती है, परन्तु वह प्राय अत्यन्त तीव्र नहीं होती । ध्येय का निश्चय, वैराग्य, सात्विक, षट सम्पति आदि की प्राप्ति के बाद जो मुमुक्षत्व होता है वाही अत्यन्त तीव्र हुआ करता है ।

भगवान् श्री शंकराचार्य ने मुमुक्षत्व के तीव्र, मध्यम, मन्द और अतिमन्द ये चार भेद बतलाये है । अध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक भेद से त्रिविध होने पर भी प्रकार भेद से अनेकरूप दुखों के द्वारा सर्वदा पीड़ित और व्याकुल होकर जिस अवस्था में साधक विवेकपूर्वक परिग्रहमात्र को ही अनर्थकारी समझकर त्याग देता है, उसको तीव्र मुमुक्षा कहते है । त्रिविध ताप का अनुभव करने और सत-परमार्थ वस्तु को विवेक से जानने के बाद, मोक्ष के लिए भोगो का त्याग करें की इच्छा होने पर भी संसार में रहना उचित है या त्याग देना, इस प्रकार के संशय में झूलने को मध्यम मुमुक्षा कहते है । मोक्ष के लिए इच्छा होने पर भी यह समझना की अभी बहुत समय है, इतनी जल्दी क्या पड़ी है, संसार के कामों को तो कर ले, भोग भोग ले, आगे चल कर मुक्ति के लिए भी उपाय कर लेंगे । इस प्रकार की बुद्धि को मन्द मुमुक्षा कहते है  और जैसे किसी राह चलते मनुष्य को अक्समात रास्ते में बहुमूल्य मणि पड़ी दीखाई दी और उसने उसको उठा लिया, वैसे ही संसार के सुख-भोग भोगते-भोगते ही भाग्यवश कभी मोक्ष मिल जायगा तो मणि पाने वाले पथिक की भांति मैं भी धन्य हो जाऊँगा । इस प्रकार की मूढ़-मतिवालों की बुद्धि को अतिमन्द मुमुक्षा कहते है ।
बहुजन्म व्यापी तपस्या और श्रीभगवान् की उपासना के प्रभाव से हृदय के सारे पाप नष्ट होने से भगवान् की प्राप्ति के लिए तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है । तीव्र इच्छा उत्पन्न होने पर मनुष्य को इसी जन्म में भगवान् की प्राप्ति हो जाती है । इस तीव्र शुभेच्छा के उदय होने पर उसे दूसरी कोई भी बात नही सुहाती, जिस उपाय से उसे अपने प्यारे का मिलन संभव दीखता है, वह लोक-परलोक किसी की कुछ भी परवा न कर उसी उपाय में लग जाता है । प्रिय मिलन की उत्कण्ठा उसे उन्मत बना देती है । प्रिय की प्राप्ति के लिए वह तन-मन-धन-धर्म-कर्म सभी को उत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहता है ।
प्रियतम की तुलना में उसकी दृष्टी से सभी कुछ तुच्छ हो जाता है, वह अपने आप को प्रियमिलनेइच्छा पर न्योछावर कर डालता है । ऐसे भक्तों का वर्णन करते हुए सत्पुरुष कहते है-

प्रियतम से मिलने को जिसके प्राण कर रहे हाहाकार ।

गिनता नही मार्ग, कुछ भी, दूरी को, वह किसी प्रकार ।।

नहीं ताकता, किन्न्चित भी, शतशत बाधा विघ्नों की और ।

दौड़ छूटता जहाँ बजाते मधुर वनश्री नदं किशोर ।।       

प्रियतम के लिए प्राणों को तो हथेली पर लिए घुमते है ऐसे प्रेमी साधक ! उनके प्राणों की सम्पूर्ण व्याकुलता, अनादी काल से लेकर अब तक की समस्त इच्छाए उस एक ही प्रियतम को अपना लक्ष्य बना लेती है ।

प्रियतम को पाने के लिए उसके प्राण उड़ने लगते है । एक सज्जन ने कहाँ की ‘जैसे बाँध के टूट जाने पर प्राणों में भगवतप्रेम के जिस प्रबल उन्मत वेग का संचार होता है, वह सारे बन्धनों को जोर से तत्काल हो तोड़ डालता है ।
प्राणी के अभिसार से दौड़ने वाली प्रणयिनी की तरह उसे रोकने में किसी भी सांसारिक प्रलोभन की परबा शक्ति समर्थ नहीं होती, उस समय वह होता है अनन्त का यात्री-अनन्त परमानन्द-सिन्धु-संगम का पूर्ण प्रयासी । घर-परिवार सबका मोह छोड़कर, सब और से मन मोड़कर वह कहता है-

बन बन फिरना बेहतर इसको हमको रतं भवन नही भावे है ।

लता तले  पड़ रहने में सुख नाहिन सेज सुखावे है ।।

सोना कर धर शीश भला अति तकिया ख्याल न आवे है ।

‘ललितकिशोरी’ नाम हरी है जपि-जपि मनु सचु पावे है ।।

अबी विलम्ब जनि करों लाडिली कृपा-द्रष्टि टुक हेरों ।

जमुना-पुलिन गलिन गहबर की विचरू सांझ सवेरों ।।

निसदिन निरखों जुगल-माधुरी रसिकन ते भट भेरों ।

‘ललितकिशोरी’ तन मन आकुल श्रीबन चहत बसेरों ।।

एक नन्दनंदन प्यारे व्रजचन्द्र की झांकी निरखने के सिवा उसके मन में फिर कोई लालसा नही रह जाती, वह अधीर होकर अपनी लालसा प्रगट करता है-

एक लालसा मनमहूँ धारू ।

बंसीवट, कालिंदी तट, नट नागर नित्य निहारूं ।।

मुरली-तान मनोहर सुनी सुनी तनु-सुधि सकल  बिसारूँ ।

छीन-छीन निरखि झलक अंग-अन्गनि पुलकित तन-मन वारु ।।

रिझहूँ स्याम मनाई, गाई गुन, गूंज-माल   गल डारु ।

परमानन्द भूली सगरों, जग स्यामहि श्याम पुकारूँ ।।

बस, यही तीव्रतंम शुभेच्छा है !  
       

   —श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!

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