प्रेम
जीव में प्रेम की भूख है इसलिए वह प्रेम करता है और ईश्वर माधुर्य भाव से प्रेरित होकर जीव को प्रेम प्रदान करने के लिए उससे प्रेम करता है।जीव जो भोगों का और उनकी चाह का त्याग करता है,उसमें कोई महत्व की बात नही है,क्योकि भोगों को भोगने का परिणाम तो रोग है।उससे बचने के लिए उनका त्याग अनिवार्य है।इसके सिवा जीव को जो वस्तु और कर्मशक्ति प्राप्त है,वह भी ईश्वर की दी हुई है।अतः उनका त्याग करना भी कोई बड़ी भारी उदारता नही है।इतने पर भी जीव की इस ईमानदारी को अर्थात् उसके नाममात्र के त्याग को भी ईश्वर अपने सहज कृपालु स्वाभाव सजीव की बड़ी भारी उदारता मानते हैं और जीव पर ऐसा प्रेम करते हैं की स्वयं पूर्णकाम होने पर भी प्रेम करने की कामना का अपने में आरोप कर लेते हैं;क्योंकि प्रेम उनका स्वाभाव है और जीव की मांग है।अतः जो उनसे प्रेम करता है,ईश्वर उसका अपने को ऋणी मानते हैं।सचमुच एकमात्र ईश्वर ही प्रेमी हैं,क्योंकि प्रेम प्रदान करने की सामर्थ्य अन्य किसी में नहीँ है।
भोगी मनुष्य प्रेम का अधिकारी नही होता।प्रेम का अधिकारी तो चाह से रहित ही होता है।क्योंकि चाह्युक्त व्यक्ति के साथ किया हुआ प्रेम स्थाई नहीँ होता।वह उस प्रेम को भी अपनी चाह पूर्ति का साधन मान लेता है।अतः प्रेम का आदर नहीँ कर पाता।
यह हरेक मनुष्य के अनुभव की बात है की उसका जब किसी के प्रति क्षणिक प्रेम भी होता है,तब उस समय वह अनायास पर्सनतापूर्वक अपने प्रेमास्पद को सुख देने की भावना से अपने सुख का त्याग करता है। उस समय उपभोग की स्मृति लुप्त हो जाती है और उसे अपने प्रेमास्पद को सुख देने में ही रस मिलता है।उस रस के सामने उपभोग का रस फीका पड़ जाता है।जब साधारण प्रेम की यह बात है,जो हरेक प्राणी के साथ सदा ही प्रेम करते हैं,प्रेम ही जिनका स्वाभाव है,ऐसे परम् प्रेमास्पद प्रभु के प्रेम की जिनको लालसा है,उस प्रेमी के सब प्रकार के सुखभोग सम्भंधि इच्छाओं का त्याग अपने आप बिना प्रयत्न के हो जाये,इसमें आश्चर्य ही क्या है।इससे यह सिद्ध हुआ की प्रेम से भी इच्छाओं का त्याग अनायास ही हो सकता है।
( एक महात्मा का प्रसाद )
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