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Showing posts from December, 2015

बहुत

क्यूँ है ज़िन्दग़ी तुझे आज यूँ क़ब्र में भी सब्र बहूत ज़हीर-ओ-हबिब की उल्फ़त में दर्द में ख़ुशबु है बहुत ठोकरों की महफ़िलें सजाई है मेरे क़दमो ने बहुत हर लम्हें को ज़श्न नवाज़ा है किसी ने तब भी बहुत ज़रूरतें जब मेरी उठी ज़मी साँसो की उधड़ी है तब बहुत फ़क़त तेरी क़शिश में जलती रूह ख़ामोशियोँ में गाती है बहुत सच कहूं यारों अपने वज़ूद से हैरां अब रहता हूँ बहुत इस गुस्ताख़ ने क़त्ल भी किया तो हर क़तरे का बहुत हर बहार-ए-गुल ने काँटों से दिल को कुरेदा भी है बहुत फिर भी चाहत में किसी की कपास के फूल उड़ते भी है बहुत एक ज़िंदा लाश को जी रहा हूँ जहाँ अब ख़ाक है बहुत और कही मुहब्बत की तलब डूबा आँसमा में घुल रहा हूँ बहुत कई ज़िन्दग़ियां मैंने जी कर पत्थर कर दी थी जब सख़्त बहुत तब जीने लगा यूँ , कोई सागर सिमट रहा हो हर मौज़ में बहुत ज़रूरत क्यों है आज भी तुझसे ज़ुदा होने की , सोचता हूँ बहुत बेगानी उलझी आरज़ूओं में सुलझती सरगम पर थिरकता कोई है बहुत कभी था मैं भी ख़ुद में , आज कोई और मिला जब तलाशा बहुत हैरां है निगाहें देखकर , ईश्क़ में लाशों में भी है हसरतें  बहुत यूँ पहले तब ना था , कहीँ खोकर आने लगा  फ़िज़ाओं में

लालसा से सहज साक्षात् दर्शन

सारा जगत् ईश्वर के विराटम् स्वरुप की चाहत में लगा है | विराट की विराटता हेतु अपनी सुक्ष्मता से परिचय हो | जो तत्व जितना विराट होगा उतना ही सुक्ष्म भी ... प्रभु की विराटता कही ना सकती है तो सुक्ष्मता भी नहीं कही जा सकती | आत्मा प्रोटॉन न्युट्रान इलेक्ट्रान से भी सुक्ष्म है तो परमात्मा इससे भी विरल ... एक रेत के कण के लाख खण्ड भी हो तो प्रत्येक ईश्वर ही है ... जिसका बिखरना ना रुके जिसका समेटना ना रुके वहीं प्रभु है ... सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भगवत् दृष्टि की लालसा हो तब ही प्रत्येक कण और कण के भी कण में ईश्वर ही अनुभूत् हो सकते है । विराट रूप में दर्शन जब ही सम्भव है जब सूक्ष्मतम दर्शन होने लगे । ईश्वर दर्शन ना दे , यें असम्भव है । दर्शन होगा लोलुप्ता (व्याकुलता) अनुरूप लालसा ही नही तो साक्षात् भी मुर्त लगते है । लालसा होने पर मुर्त या अमूर्त सर्वत्र साक्षात् । व्याकुलता का महत्व है । जिस परम् माधुर्य या परम् विराट के दर्शन की चाहत हम में है । वो केवल लोलुप्ता पर निर्भर है । दर्शन तो होते ही है , जै जै उतना ही अवतरण दर्शाते है , जितनी प्यास जगी । उतना ही

लालसा से सहज साक्षात् दर्शन

सारा जगत् ईश्वर के विराटम् स्वरुप की चाहत में लगा है | विराट की विराटता हेतु अपनी सुक्ष्मता से परिचय हो | जो तत्व जितना विराट होगा उतना ही सुक्ष्म भी ... प्रभु की विराटता कही ना सकती है तो सुक्ष्मता भी नहीं कही जा सकती | आत्मा प्रोटॉन न्युट्रान इलेक्ट्रान से भी सुक्ष्म है तो परमात्मा इससे भी विरल ... एक रेत के कण के लाख खण्ड भी हो तो प्रत्येक ईश्वर ही है ... जिसका बिखरना ना रुके जिसका समेटना ना रुके वहीं प्रभु है ... सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में भगवत् दृष्टि की लालसा हो तब ही प्रत्येक कण और कण के भी कण में ईश्वर ही अनुभूत् हो सकते है । विराट रूप में दर्शन जब ही सम्भव है जब सूक्ष्मतम दर्शन होने लगे । ईश्वर दर्शन ना दे , यें असम्भव है । दर्शन होगा लोलुप्ता (व्याकुलता) अनुरूप लालसा ही नही तो साक्षात् भी मुर्त लगते है । लालसा होने पर मुर्त या अमूर्त सर्वत्र साक्षात् । व्याकुलता का महत्व है । जिस परम् माधुर्य या परम् विराट के दर्शन की चाहत हम में है । वो केवल लोलुप्ता पर निर्भर है । दर्शन तो होते ही है , जै जै उतना ही अवतरण दर्शाते है , जितनी प्यास जगी । उतना ही

आश्चर्य की श्यामाश्याम को पाकर कुछ और भी शेष हो

आश्चर्य । जिन्हें श्यामाश्याम से कुछ वस्तुये मिली और वें हर्ष में है । आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम के सामने और कोई भी हसरते है । आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम से केवल सुखी जीवन की चाह से तृप्ति हो जाती है । आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम से मिलन बाद और भी दुःख या दर्द शेष रह जाते है । आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम के सामने अपने शब्दों को दोहराने में परम् मधुर ध्वनियाँ सुनाई नहीं आती । आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम के सामने जाकर कोई ठीक वैसा ही लौट आएं । आश्चर्य । जहाँ श्यामाश्याम की रूपमाधुरी के आभास या दर्शन पा कर अन्य किसी में सौंदर्य दिखाई दे । तृषित इस बार जब श्यामाश्याम सन्मुख हो , तब बह जाना ही हो , कोई चाह नही । बस दबी सांसो की आह । और रस माधुरी पीते हुए दो चकोर नैना । और लौटने पर कुछ और शेष रहे , कुछ और बोध बचा हो । कही अपना आभास हो , तो रस पीने का आनन्द छुट जायेगा । सो नैनो में भर कर , हर सांस केवल  श्यामाश्याम की हो जाएं । वरन् जब तक और भी कुछ जहन में बचा हो , कुछ और अपना लगता हो , नैन हटाने ही नहीँ , श्यामाश्याम से । अपने पर नहीँ उनके प्रेमाश्रय पर शेष अब सब कुछ है । अब यहाँ कुछ स

भजन किस तरह हो

भजन ... भजन का वास्तविक स्वरूप -- सेवा , त्याग और प्रेम !  भजन करने की विधि और उपाय है -- प्रभु में आस्था , श्रद्धा , विश्वास और आत्मीयता का होना | चार बातों  को मान लेने पर भजन स्वत: हो जाता है | यानी प्रभु है , सर्वश्रेष्ठ हैं , सुख और सौन्दर्य के भण्डार हैं और मेरे हैं -- यें चार बात मान लेने पर ही वास्तविक भजन होता है |   भगवान में अपनत्व मानना अनिवार्य है , प्रेम जब तक होगा नहीं , जब तक अपनापन  ना हो |  अपने में प्रीति स्वत: होती है और जिससे प्रीति होती है , उसकी स्मृति भी स्वत: होती है | अत: स्वत: स्मृति का होना ही सच्चा भजन है | जब तक ममता , कामना और आसक्ति का त्याग नहीं करोगे, भजन होगा ही नहीँ । इनका त्याग किये बिना प्रभु में पूर्ण आस्था कैसे होगी । इनके त्याग से ही सेवा , प्रेम , और त्याग की प्राप्ति होती है । सेवा हेतु ही देह आदि को सेवा में लगाना है । सभी वस्तुएं प्रभु की ही है , अपना मानकर भजन -प्रेम कैसे होगा । जिस वस्तु का सहज मन से त्याग ना हो वो भी एक समय तत्व में विलीन होनी है । देह आदि उनकी वस्तु है , ये जान कर स्व को उनके हेतु , उनमें ही पाना है । एक अबोध बालक  सहज स

राधा कुण्ड और कृष्ण कुण्ड की कथा

(राधा कुंड ओर कृष्ण कुंड की कथा..) कान्हा के लिए राधा के कंगन की खुदाई से बना यह एक कुंड, आज सैकडों आते हैं स्नान करने, धुल जाती हैं बुराइयां हमारे ब्रज की महिमा अनोखी है। यहां आकर हजारों लोगों को सद्-बुद्घ मिलती है। कान्हा और राधा के पर्वों पर कुंण्डों की शोभा हर किसी को खींच लाती है कि आज हमें यहां स्नान करना है। इनकी रौनक अलग ही है, अलग-अलग ही मान्याताएं हैं। राधा कुंड और कृष्ण कुंड तो दुनियां भर में जाने जाते हैं। गोवर्धन की तलहटी में आज भले ही पिछडे क्षेत्र में तब्दील हो गए हों लेकिन अलौकिकता पहले जैसी ही विद्यमान है। हां हालात ऐसे हैं कि खुद कै.राकेश इंटर कॉलेज में राधाकुण्ड़ के करीब 27 साथी पढते हैं, हमने जाननी चाही उनकी मिटटी़ की खुशबू उन्हें पता ही नहीं था। इसलिए हमने फैसला लिया कि साइट पर हम न केवल हर ब्रजवासी को समझा सकेंगे बल्कि विश्वभर के लोग भी हमें देख सकेंगे। चूंकि ज्ञान बांटने से बंटता है। भारत की हिंदी वेबसाइट भी यहां के विभिन्न मौकों पर प्रस्तुति देने में हिचकेंगी नहीं। हमसे तो राधा-कुंड पांच कोस है, लेकिन पर बाहरी लोगों की नजर से दस इंच भी नहीं। पहले राधा-कृष्ण की

सेवा कैसे हो ? आदि

सेवा "सेवा" प्रथम तो सेवा एक सौभाग्य है । कोई कर्म नहीं , जै जै की ही कृपा है । कर्म कहने में लालच है , लोभ है । और सौभाग्य -कृपा मान लेने में रस और नित्य सेवा का नित्य नव आनन्द। कर्म क्यों नही , और सौभाग्य क्यों ? शायद शंका उठे । अपने द्वारा प्रारब्ध आदि से अर्जित कर्म नहीँ , सहज मिला ईश्वर का प्रसाद ही सेवा है । सेवा परीक्षा नही , अपितु परम् लक्ष्य ही है । अग़र खच्चर घोड़े की दौड़ में दौड़े , तो खच्चर के लिए उन लम्हों को भरपूर जी लेने का समय है । खच्चर अपने प्रयास से घोड़ो के संग नहीँ दौड़ सकता । सेवा में सबसे अधिक प्रबलता सच्ची दीनता से है । आज हर शब्द के संग सच लिखना कहना पड़ता है । क्योंकि अभिनय देखते देखते अभिनय सिर चढ़ चूका है । सेवा चाकर होना कहती है , चाकर के अभिनय को नहीँ । वस्तुतः सच्चा चाकर । सेवा पर बहुत सवाल आये , तरह-तरह के , परन्तु कुछ कहते न हुआ । क्योंकि पहले भी कहा जब याद के लिए कहा कि कथित नहीँ , स्वभाविक स्थितियां हो । अभिनय नहीँ  , जो हृदय से तत्क्षण स्फुरित हो । सेवा भी इस तरह है , सेवा के पथ को रट लिया जाएं , आदेश ही मान लिया जावें तो भाव न्यून और क्रिया